भारतीय राजव्यवस्था
दलबदल विरोधी कानून
- 04 Aug 2025
- 62 min read
प्रिलिम्स के लिये:दसवीं अनुसूची, न्यायिक समीक्षा, सर्वोच्च न्यायालय, अध्यक्ष, विधानसभा के सदस्य, मेन्स के लिये:दलबदल विरोधी कानून, वैधानिक, नियामक और विभिन्न अर्द्ध-न्यायिक निकाय, विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों का पृथक्करण, संशोधन। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने पाडी कौशिक रेड्डी बनाम तेलंगाना राज्य (2025) मामले में तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष की आलोचना की, क्योंकि उन्होंने वर्ष 2024 में दलबदल करने वाले विधानसभा सदस्यों (विधायकों) के खिलाफ अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय लेने में देरी की।
- सर्वोच्च न्यायालय ने अध्यक्ष को कार्यवाही समाप्त करने के लिये तीन महीने की समय-सीमा निर्धारित की, जिससे भारत के दलबदल विरोधी कानून की प्रभावशीलता को लेकर एक व्यापक बहस फिर से शुरू हो गई।
नोट: दलबदल का अर्थ है पार्टी के प्रति निष्ठा या कर्तव्य का जानबूझकर परित्याग।
दलबदल विरोधी कानून क्या है?
- परिचय: स्वतंत्रता के बाद के भारत में, बार-बार दलबदल के कारण राजनीतिक अस्थिरता बनी रही। 1960 के दशक में हरियाणा के एक विधायक द्वारा एक ही दिन में कई बार दल बदलने के बाद "आया राम, गया राम" मुहावरा लोकप्रिय हो गया।
- इस समस्या से निपटने के लिये दलबदल विरोधी कानून को संविधान में दसवीं अनुसूची के रूप में 52वें संविधान संशोधन, 1985 के माध्यम से शामिल किया गया।
- इसका उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ के लिये राजनीतिक दलबदल को रोकना था। यह संसद और राज्य विधानसभाओं, दोनों पर लागू होता है।
- 91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (2003) ने दलबदल विरोधी कानून में संशोधन करते हुए एक-तिहाई विभाजन के प्रावधान को समाप्त कर दिया। अब केवल तभी विलय मान्य होगा जब किसी पार्टी के दो-तिहाई सदस्य सहमत हों। साथ ही दलबदल करने वाले सदस्य तब तक मंत्री या किसी वेतनभोगी राजनीतिक पद पर नियुक्त नहीं हो सकते जब तक वे पुनः निर्वाचित न हो जाएं।
- इस समस्या से निपटने के लिये दलबदल विरोधी कानून को संविधान में दसवीं अनुसूची के रूप में 52वें संविधान संशोधन, 1985 के माध्यम से शामिल किया गया।
- अयोग्यता के आधार: स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोड़ देना (केवल त्यागपत्र से नहीं, बल्कि आचरण से इसका अनुमान लगाया जा सकता है)।
- पार्टी व्हिप के विरुद्ध मतदान करने या मतदान से दूर रहने पर अयोग्यता हो सकती है।
- यदि कोई विधायक स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य है और किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है तो उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
- यदि कोई मनोनीत सदस्य विधायक बनने के छह महीने बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है तो उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।
- अयोग्यता के अपवाद: यदि किसी पार्टी के दो-तिहाई विधायक सहमत हों तो वह किसी अन्य पार्टी के साथ विलय कर सकती है, तथा विलय करने या बने रहने वालों के लिये कोई अयोग्यता नहीं होगी।
- तटस्थ रहने के लिये पार्टी से त्यागपत्र देने वाले अध्यक्ष/सभापति/उपसभापति हेतु कोई अयोग्यता नहीं।
- पीठासीन अधिकारी की भूमिका: अयोग्यता के मामलों का निर्णय अध्यक्ष/सभापति द्वारा किया जाता है।
दलबदल विरोधी कानून की आलोचनाएँ क्या हैं?
- असहमति पर अंकुश: यह विधायकों को अपनी अंतरात्मा के आधार पर मतदान करने या पार्टी लाइन के विरुद्ध जाने पर अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने से रोकता है।
- पार्टी नेता अयोग्य ठहराए जाने की धमकी देकर, पार्टियों के भीतर स्वतंत्र अभिव्यक्ति को हतोत्साहित करके आंतरिक बहस को दबा सकते हैं।
- अध्यक्ष का पूर्वाग्रह: अध्यक्ष जो प्रायः सत्तारूढ़ दल से होता है, अयोग्यता के मामलों पर निर्णय लेता है, जिससे निष्पक्षता और देरी के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
- कोई निश्चित समय सीमा नहीं: अयोग्यता के मामलों पर निर्णय लेने के लिये अध्यक्ष हेतु कोई कानूनी रूप से बाध्यकारी समय सीमा नहीं है, जिससे रणनीतिक देरी की गुंजाइश बनी रहती है।
- हॉर्स ट्रेडिंग: यदि किसी पार्टी के दो-तिहाई सदस्य पक्ष बदलने के लिये सहमत हों, तो दलबदल को अनुमति मिल जाती है। यह व्यवस्था अवसरवादी और अनैतिक विलयों या विभाजनों को बढ़ावा देती है, हॉर्स ट्रेडिंग को प्रोत्साहित करती है और राजनीतिक स्थिरता को कमज़ोर करती है।
- पार्टी व्हिप में पारदर्शिता का अभाव: पार्टी व्हिप पार्टी अनुशासन सुनिश्चित करने के लिये जारी किये जाते हैं, लेकिन उनका संचार अक्सर अपारदर्शी होता है, जिससे इस बात पर विवाद पैदा होता है कि क्या सदस्यों को उचित रूप से सूचित किया गया था, विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण मतदान में।
दलबदल विरोधी मामले पर सर्वोच्च न्यायालय का रुख क्या रहा है?
- समयबद्ध निर्णय: केशम मेघचंद्र सिंह बनाम माननीय अध्यक्ष मणिपुर विधानसभा एवं अन्य (2020) में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि अध्यक्ष दलबदल से संबंधित मामलों का निर्णय 3 माह के भीतर लें और निष्पक्षता व त्वरित निर्णय सुनिश्चित करने के लिये स्वतंत्र अधिकरण की स्थापना का सुझाव दिया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि अयोग्यता संबंधी कार्यवाही में देरी करना संविधान की दसवीं अनुसूची की मंशा का उल्लंघन है और समयबद्ध निर्णय प्रक्रिया का पालन न करने से अध्यक्ष के पद पर जनता का विश्वास कमज़ोर होता है।
- अध्यक्ष की निष्पक्ष भूमिका: रवि एस. नाइक बनाम भारत संघ (1994) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अध्यक्ष को राजनीतिक पक्षपात से मुक्त निष्पक्ष न्यायाधीश की भूमिका में कार्य करना चाहिये।
- इस निर्णय में यह भी स्पष्ट किया गया कि कोई सांसद/विधायक यदि अपनी पार्टी से औपचारिक रूप से इस्तीफा नहीं भी देता, तो भी उसे दलबदल के आधार पर अयोग्य ठहराया जा सकता है।
- न्यायिक पुनरावलोकन: किहोतो होलोहान बनाम ज़ाचिल्हु (1992) में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अध्यक्ष के निर्णय न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत आते हैं।
- इसका अर्थ यह है कि यदि अध्यक्ष के निर्णय में दुर्भावनापूर्ण मंशा, प्रक्रियागत चूक या संवैधानिक उल्लंघन हो तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है, जिससे निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके।
- सुधार की आवश्यकता: पाडी कौशिक रेड्डी बनाम तेलंगाना राज्य (2025) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संसद से आग्रह किया कि वह दलबदल मामलों में अध्यक्ष की भूमिका की समीक्षा करे और यह सुनिश्चित करने के लिये कानूनी सुधार लाए कि दलबदल विरोधी कानून समयबद्ध तथा निष्पक्ष रूप से लागू हो।
भारत अपने दलबदल विरोधी कानून को कैसे मज़बूत कर सकता है?
- विधि के दायरे को सीमित करना: अविश्वास प्रस्ताव या बजट प्रस्ताव जैसे सरकार की स्थिरता को प्रभावित करने वाले मामलों तक अयोग्यता को लागू करें, ताकि स्वतंत्र सोच की रक्षा की जा सके।
- निर्णय लेने की शक्ति स्थानांतरित करना: अयोग्यता के मामलों का निर्णय लेने का अधिकार अध्यक्ष से हटाकर एक स्वतंत्र संस्था (जैसे निर्वाचन आयोग) को दिया जाए, ताकि राजनीतिक पक्षपात को कम किया जा सके।
- द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने सिफारिश की थी कि दलबदल के मामलों का निर्णय राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा निर्वाचन आयोग की सलाह पर लिया जाए।
- स्पष्ट समय-सीमा तय करना: दलबदल से संबंधित मामलों के निर्णय के लिये एक सख्त समय-सीमा निर्धारित की जाए, ताकि देरी और दुरुपयोग को रोका जा सके।
- दलीय आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देना: 170वीं विधि आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, दलों के भीतर चर्चा को प्रोत्साहित किया जाए और शीर्ष-स्तरीय निर्णय थोपने की प्रवृत्ति को कम किया जाए।
- प्रभावी प्रवर्तन और पारदर्शिता: दिनेश गोस्वामी समिति (1990), हाशिम अब्दुल हलीम समिति (1994) व विधि आयोग की रिपोर्टों (1999 व 2015) की सिफारिशों के अनुसार, दलबदल संबंधी कार्यवाहियों को समयबद्ध, पारदर्शी तथा सार्वजनिक जाँच के लिये खुला बनाया जाना चाहिये, ताकि जनता का विश्वास बढ़े, जवाबदेही सुनिश्चित हो और दुरुपयोग रोका जा सके।
- व्हिप जारी करने में पारदर्शिता: समाचार पत्रों या इलेक्ट्रॉनिक संचार के माध्यम से पार्टी व्हिप की सार्वजनिक सूचना देना अनिवार्य करना।
- इससे यह सुनिश्चित होता है कि सभी सदस्यों को पर्याप्त जानकारी मिल जाए और पार्टी निर्देशों पर विवादों का समाधान आसानी से हो सके।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. राजनीतिक अवसरवाद पर अंकुश लगाने में दलबदल विरोधी कानून की प्रभावशीलता का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न. भारत के संविधान की निम्नलिखित अनुसूचियों में से किसमें दल-बदल विरोधी प्रावधान हैं? (2014) (a) दूसरी अनुसूची उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. कुछ वर्षों से सांसदों की व्यक्तिगत भूमिका में कमी आई है जिसके फलस्वरूप नीतिगत मामलों में स्वस्थ रचनात्मक बहस प्रायः देखने को नहीं मिलती। दल परिवर्तन विरोधी कानून, जो भिन्न उद्देश्य से बनाया गया था, को कहाँ तक इसके लिये उत्तरदायी माना जा सकता है? (2013) |