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एडिटोरियल

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

निवेश के परिवेश पर किसका असर

  • 04 Apr 2017
  • 8 min read

संदर्भ 

गौरतलब है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा जनवरी 2017 के आरंभ में विश्व आर्थिक पूर्वानुमान जारी किये गए थे। आईएमएफ द्वारा जारी किये गए पूर्वानुमानों से यही संकेत मिलता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में धीमी गति से सुधार नज़र आ रहा है जो कि वर्तमान संदर्भ में राहत का संकेत है। सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाएँ एवं उनसे संबद्ध आर्थिक क्षेत्रों में वर्ष 2016 की तुलना में वर्ष 2017 और 2018 में अधिक तेज गति से वृद्धि होने की संभावनाएँ व्यक्त की जा रही हैं। 

महत्त्वपूर्ण बिंदु

  • जैसा की हम सभी जानते हैं कि वर्ष 2008 के वित्तीय संकट के पहले निवेश गतिविधियों का वैश्विक वृद्घि में अहम योगदान था।
  • इस संबंध में विश्व बैंक द्वारा प्रदत्त आँकड़ों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि वर्ष 2003 से 2008 के मध्य की पाँच साल की अवधि में निवेश दर में सालाना 12 फीसदी की दर से वृद्धि दर्ज की गई।
  • हालाँकि, वर्ष 2015 में यह दर घटकर मात्र 3.4 फीसदी ही रह गई। स्पष्ट है कि वर्ष 2010 के बाद से निवेश की वृद्घि दर हर वर्ष निरंतर घटती ही जा रही है। 

निवेश की इस गिरती दर के प्रमुख कारण

  • वस्तुतः निवेश की इस धीमी गति को समझने के लिये विभिन्न देशों में निवेश के मौजूदा स्तर और उसके दीर्घावधि के औसत की तुलना करनी होगी।
  • जैसा की हम सभी जानते है कि वर्ष 2006 में जब यह निवेश चक्र अपने उच्चतम स्तर पर था, तब विश्व के समस्त देशों में से तकरीबन 70 फीसदी देशों की निवेश संबंधी गतिविधियाँ सामान्य के स्तर से ऊपर थीं।
  • हालाँकि, बाद में कमोबेश निवेश की वृद्धि के संबंध में प्रस्तुत किये गए तमाम अनुमान विफल होते प्रतीत होने लगे। स्पष्ट है कि इन अनुमानों का परिणाम भी नकारात्मक ही हुआ।

नकारात्मक वृद्धि के कारण

  • सर्वप्रथम, वर्तमान के आर्थिक  परिदृश्य पर एक नज़र डाले तो हम पाएँगे कि पिछले कुछ समय से वैश्विक अर्थव्यवस्था में दिनोंदिन सुधार आ रहा है तथापि अभी भी इस संबंध में वृद्घि दर वित्तीय संकट के पहले तय की गई मानक दर के आसपास भी नहीं पहुँच पाई है। स्पष्ट है कि इस परिदृश्य में निवेश संबंधी गतिविधियों का धीमा होना तय था।
  • दूसरी कारण यह है कि मौजूदा ऊर्जा और जिंस कीमतों के परिदृश्य के संबंध में नज़र डाले तो हम पाएँगे कि इन वस्तुओं का निर्यात करने वाले देशों द्वारा अर्थव्यवस्था की नई क्षमताओं में निवेश काफी कमज़ोर हुआ है।
  • हालाँकि, हाल के दिनों में जिंस कीमतों में कुछ तेजी अवश्य देखी गई है लेकिन यह तेजी भी मांग में सुधार की वजह से नहीं है बल्कि यह निर्यातकों द्वारा आपूर्ति कम करने के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है। स्पष्ट है कि यह परिवर्तन नए निवेश के लिये अनुकूल स्थिति उपलब्ध नहीं कराता है।
  • इस नकारात्मक वृद्धि का तीसरा कारण है विश्व के कईं देशों की वित्तीय क्षेत्र की स्थिति। जैसा कि हम सभी जानते है कि वर्तमान समय में मौजूद परिसंपत्ति गुणवत्ता की समस्याओं और बढ़ी हुई पूंजी आवश्यकता ने वित्तीय तंत्र की जोखिम उठाने की क्षमता को बुरी तरह प्रभावित किया है।
  • यहाँ यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है कि यदि इस संबंध में मांग में वृद्धि हुई भी है तो भी पर्याप्त निवेश के कारण आपूर्ति की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। हालाँकि वर्तमान समय में यह समस्या मात्र निवेश हेतु पूँजी की कमी न होकर अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दों से भी संबद्ध हैं।
  • स्पष्ट है की जब भी निवेश संबंधी गतिविधियों में इज़ाफा होगा इस प्रकार की समस्याएँ मुहँ बाये खड़ी रहेंगी।
  • वस्तुतः इसके दो अन्य कारक हैं। पहला कारक यह है अधिकतर पूंजी प्रोत्साहन वाले उद्योगों में अतिरिक्त क्षमता की मौजूदगी न होना तथा दूसरा कारक है साझा अर्थव्यवस्था का तेज गति से विकास न हो पाना।

क्या इस संबंध में नीतिगत उपायों की आवश्यकता है?

  • यदि इस संबंध में नीतिगत दृष्टि से देखें तो सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि आखिर इन निवेश गतिविधियों को बल कैसे प्रदान किया जाएँ क्योंकि यदि हम धीमी वृद्घि दर और जिंस कीमतों, तनावग्रस्त वित्तीय तंत्र और गैरजरूरती क्षमताओं के इस्तेमाल की बात करते है तो निवेश के लिये एक अलग तरह का माहौल तैयार होता है।
  • संभवतः ऐसी किसी भी स्थिति में यह स्पष्ट करना अत्यंत कठिन हो जाता है कि केवल ब्याज दर और कर प्रोत्साहन जैसे पारंपरिक तरीके ही निवेश को बढ़ावा दे पाएंगे या इससे इतर भी कुछ अन्य कदम उठाने की आवश्यकता है। 
  • ऐसे में प्रश्न उठता है कि ऐसा करने के लिये कोई नीतिगत उपाय करना चाहिये अथवा नहीं? 

निष्कर्ष

  • वस्तुतः इस संबंध में केवल हम ही नहीं वरन् जहां नीति निर्माता भी इन सवालों से जूझ रहे हैं। जहाँ एक ओर बुनियादी ढांचागत क्षेत्र की मूलभूत आवश्यकताएँ है वहीं दूसरी ओर तात्कालिक रूप से नियमन को सुसंगत बनाने की भी आवश्यकता है।
  • इसके अतिरिक्त यदि इस क्षेत्र में निवेश दर में बढ़ोतरी नहीं की जाती है तो बुनियादी क्षेत्र में निवेश करना पहले की अपेक्षा और भी अधिक जोखिमपूर्ण कार्य साबित होगा।
  • स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में हमें एक ऐसा वित्तीय ढांचा विकसित करने की आवश्यकता  है जो न केवल इस जोखिम को झेल सकें बल्कि इसके परिणामों को भी साझा कर सकें।
  • हालाँकि, इसके लिये आवश्यक है कि निवेश के कमजोर रुझान से इतर सरकार को कुछ ऐसे नीतिगत उपाय अपनाने चाहिये जो सुधार की प्रक्रिया को ज़रूरत के मुताबिक तेज करने के साथ-साथ विकास की वृद्धि दर में भी इज़ाफा कर सकें।
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