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भारत की तेल कूटनीति में बड़ा बदलाव

  • 30 Aug 2017
  • 6 min read

भूमिका

25 मई, 2017 को वियना में हुई पेट्रोलियम निर्यातक देशों (Organization of Petroleum Exporting Countries - OPEC) की बैठक में कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण बिंदु उभरकर सामने आए हैं। जिनकी भारत की तेल रणनीति में तो बहुत महत्त्वपूर्ण उपयोगिता है ही साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था में भी उल्लेखनीय स्थान है।  इस बैठक में इस संगठन के सदस्य देशों के साथ-साथ कुछ गैर-सदस्य देश भी उपस्थित थे। इस बैठक में भारत का प्रतिनिधित्त्व पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री श्री धर्मेन्द्र प्रधान द्वारा किया गया।

प्रमुख बिंदु

  • इस बैठक में जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात सामने आई वह यह कि वर्तमान परिदृश्य में जितनी आवश्यकता भारत को ओपेक की है, उससे कहीं अधिक आवश्यकता ओपेक को भारत की है।
  • ध्यातव्य है कि भारत कच्चे तेल के लगभग 80%, प्राकृतिक गैस के 70% और एल.पी.जी. के तकरीबन 95% का आयात ओपेक देशों से करता है। 
  • संभवतः यही कारण है कि इस बैठक में भारत द्वारा इस बात पर विशेष बल दिया गया कि जिस प्रकार उपभोक्ता देशों के लिये उक्त चीज़ों की आपूर्ति की सुरक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा है उसी प्रकार उत्पादक देशों के लिये मांग की सुरक्षा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
  • आज वैश्विक तेल उद्योग एक बेहद नाज़ुक स्थिति में है और यह स्थिति इस ओर संकेत करती है कि भारत की मांग को तवज्जो न देना इसके आपूर्तिकर्त्ताओं के लिये नुकसानदेह साबित हो सकता है।

एशियाई प्रीमियम

  • इसके अतिरिक्त इस बैठक में भारत द्वारा ओपेक आपूर्तिकर्त्ताओं द्वारा अधिरोपित विवादास्पद ‘एशियाई प्रीमियम’ (Asian Premium) के विषय में भी चर्चा की गई।
  • भारत द्वारा इस विषय में अधिक जानकारी प्रदान करते हुए स्पष्ट किया गया कि वर्ष 1990 से गरीब आयातकों (एशियाई देशों) पर ओपेक द्वारा प्रीमियम लगाया गया, जबकि अमेरिका और यूरोप को इसमें भारी छूट दी गई।
  • जापान के ‘एनर्जी इकोनॉमिक्स संस्थान’ (Institute of Energy Economics) द्वारा यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि वर्ष 1992 से एशियाई आयातकों के लिये प्रीमियम राशि 1 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 1.5 डॉलर प्रति बैरल हो गई है। यानी अभी तक 10 बिलियन डॉलर की प्रीमियम राशि का भुगतान किया जा चुका है।

भारतीय परिदृश्य

  • हालाँकि, इससे पहले भी भारत द्वारा इस व्यवस्था को समाप्त करने के लिये एशियाई आयातकों से एकजुट होने का अनुरोध किया गया था, परंतु किन्हीं कारणों से बाद में भारत स्वयं इससे पीछे हट गया।
  • गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से पश्चिम एशियाई आपूर्तिकर्त्ता देश भारत की बढ़ती तेल मांग के मद्देनज़र तेल बाज़ार को प्रबंधित करने तथा बाज़ार में अपनी-अपनी हिस्सेदारी बनाए रखने के लिये संघर्ष कर रहे हैं। अतः ऐसी स्थिति में भारत के लिये अपनी मांग को मनवाना और तेल आपूर्तिकर्त्ता देशों पर अपनी पकड़ मज़बूत करना बहुत मुश्किल काम नहीं है। 
  • नए ऊर्जा स्रोतों में हो रही तीव्र कमी जहाँ एक ओर इस दिशा में नए मार्गों (ईरान, अमेरिका और कनाडा) को प्रशस्त कर रही है, वहीं दूसरी ओर परंपरागत स्रोतों में कम होती निर्भरता, भारत के ऊर्जा रोडमैप को एक नया रूप प्रदान करेगी।
  • हालाँकि, इस संबंध में पहली बार भारत ने एक परिपक्व खरीदार (mature buyer) के रूप में व्यवहार करते हुए विश्व के तीसरे सबसे बड़े तेल आयातक देश के दर्जे को स्वीकार किया है।
  • एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2040 तक भारत की तेल मांग में तकरीबन 150% से अधिक की वृद्धि होने की संभावना है।
  • बदलते वैश्विक आर्थिक परिदृश्य एवं दिनोंदिन बढ़ती ऊर्जा की मांग के मद्देनज़र भारत ने अपनी समस्त आर्थिक एवं रणनीतिक समझ का प्रयोग करते हुए अपनी विदेश नीति को पहले की अपेक्षा काफी अधिक मज़बूत किया है।
  • संभवतः यही कारण है कि इस वर्ष पहली बार भारत ने अमेरिका से कच्चे तेल का सौदा किया है।
  • नए समीकरण के संबंध में गंभीरता से विचार करने के पश्चात् ज्ञात होता है कि ओपेक द्वारा तेल उत्पादन में की गई कमी तथा उच्च सल्फर युक्त कच्चे तेल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी इसका एक कारण हो सकता है| 

निष्कर्ष

ओपेक देशों के डगमगाते तेल उद्योग एवं कच्चे तेल के व्यापार में भारत-अमेरिका के मध्य विकसित होते नए संबंधों का भविष्य क्या होगा, यह तो समय ही बताएगा। परंतु, हाल की सबसे बड़ी बात यह है कि इसने अमेरिका के साथ भारत के संबंधों का एक नया अध्याय अवश्य आरंभ कर दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भी भारत द्वारा उठाये गए इस कदम का स्वागत किया है। हालाँकि, इस संबंध में ज़्यादा कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी।

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