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एडिटोरियल

भारतीय अर्थव्यवस्था

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में संरक्षणवाद

  • 29 Oct 2021
  • 15 min read

यह एडिटोरियल दिनांक 23/10/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “International trade is not a zero-sum game” लेख पर आधारित है। इसमें भारत द्वारा मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में संरक्षणवाद को दूर करने की आवश्यकता के संबंध में चर्चा की गई है।

संयुक्त राज्य व्यापार प्रतिनिधि (USTR) ने अपनी वर्ष 2021 की "विदेश व्यापार बाधाओं पर राष्ट्रीय व्यापार अनुमान रिपोर्ट" (National Trade Estimate Report on Foreign Trade Barriers) में बताया है कि भारत की औसत टैरिफ दर 17.6% है जो किसी भी प्रमुख वैश्विक अर्थव्यवस्था की तुलना में उच्चतम है।    

अपने घरेलू उद्योगों की चीन एवं अन्य देशों द्वारा डंपिंग तथा अन्य व्यापार विकृति अभ्यासों से रक्षा करने के उद्देश्य से भारत ने अपनी टैरिफ दरों में वृद्धि की है और अपने अन्य गैर-टैरिफ उपायों को कठोर बनाया है।    

यद्यपि व्यापार संरक्षणवाद (Trade protectionism) का अर्थव्यवस्था को तत्काल लाभ हो सकता है, लेकिन सभी अर्थशास्त्री सहमति रखते हैं कि दीर्घावधि में यह देश के आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचाता है। 

संरक्षणवाद के साधन

भारत के साथ ही अन्य देश अनुचित व्यापार अभ्यासों से अपनी अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिये विभिन्न उपाय अपनाते हैं। उनमें से कुछ प्रमुख उपाय हैं-

  • टैरिफ: टैरिफ किसी देश की सरकार द्वारा माल के आयात या निर्यात पर लगाया जाने वाला कर है। उच्च टैरिफ विदेशी उत्पादकों के लिये किसी घरेलू बाज़ार में अपना माल बेचने की लागत बढ़ा देते हैं, जिससे स्थानीय उत्पादकों को रणनीतिक लाभ प्राप्त होता है।     
    • भारत में विश्व के उच्चतम टैरिफ दरों में से एक लागू है।
  • आयात कोटा: यह किसी देश विशेष से किसी निश्चित वस्तु की खरीद को संख्यात्मक रूप से सीमित रखने का उपाय है जो सुनिश्चित करता है कि घरेलू उत्पादक बाज़ार में अपनी एक हिस्सेदारी बनाए रखेंगे।   
  • स्थानीय सामग्री की आवश्यकता: आयात किये जा सकने वाले सामानों की संख्या पर एक कोटा आरोपित करने के बजाय सरकार यह आवश्यक बना सकती है कि किसी वस्तु का एक निश्चित प्रतिशत घरेलू स्तर पर उत्पादित किया जाए। भारत सरकार यह उपाय देश के अंदर रक्षा अनुबंधों और प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों के लिये अपनाती है। 
  • सैनिटरी एंड फाइटोसैनिटरी (SPS) उपाय और व्यापार के लिये तकनीकी बाधाएँ (TBT) उपाय: विश्व व्यापार संगठन (WTO) के तहत अन्य देशों के स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा के लिये इन दो प्रकार के उपायों को अपनाने की अनुमति है। वे तकनीकी उत्पादों में किसी देश के मानक का पालन करने के लिये अन्य देशों को बाध्य भी करते हैं।   
  • एंटी-डंपिंग ड्यूटी: डंपिंग (Dumping) प्रतिस्पर्द्धा को दूर करने के लिये बाज़ार मूल्य से काफी कम मूल्य पर माल बेचने की प्रक्रिया है। भारत घरेलू उद्योग को आयात प्रतिस्पर्द्धा से बचाने के उद्देश्य से एंटी-डंपिंग उपायों को शुरू करने वाला प्रमुखतम देश है।     
    • WTO के अनुसार, वर्ष 2015 से 2019 के बीच भारत ने 233 एंटी-डंपिंग जाँचों की शुरुआत की जो वर्ष 2011 से 2014 के बीच ऐसे 82 जाँचों की तुलना में तेज़ वृद्धि को दर्शाता है।
  • ‘रूल्स ऑफ ऑरिजिन’: भारत ने सीमा शुल्क अधिनियम के तहत ‘रूल्स ऑफ ऑरिजिन में संशोधन किया है। भारत ने रूल्स ऑफ ऑरिजिन आवश्यकता की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिये आयातकों पर भारी दबाव लागू कर रखा है।    
    • प्रतीत होता है कि भारत ने यह शर्त इसलिये आरोपित की है ताकि आयातक भारत के मुक्त व्यापार समझौता (FTA) भागीदारों से माल का आयात न कर सकें।

संरक्षणवाद के पक्ष में तर्क

  • राष्ट्रीय सुरक्षा: यह आर्थिक संवहनीयता के लिये अन्य देशों पर निर्भरता के जोखिम से संबंधित है। यह तर्क दिया जाता है कि युद्ध की स्थिति में आर्थिक निर्भरता विकल्पों को सीमित कर सकती है। इसके साथ ही, कोई देश किसी दूसरे देश की अर्थव्यवस्था को नकारात्मक तरीके से प्रभावित कर सकता है।   
  • नवजात उद्योग: यह तर्क दिया जाता है कि उद्योगों को उनके प्रारंभिक चरणों में संरक्षण प्रदान करने के लिये संरक्षणवादी नीतियों की आवश्यकता होती है। चूँकि बाज़ार खुला होता है, वैश्विक स्तर की बड़ी कंपनियाँ बाज़ार पर कब्जा कर सकती हैं। इससे नए उद्योग में घरेलू खिलाड़ियों के लिये अवसर का अंत हो सकता है।    
  • डंपिंग: कई देश अन्य देशों में अपने माल की डंपिंग (उत्पादन लागत या स्थानीय बाज़ार में उनकी कीमत से कम मूल्य पर बिक्री करना) करते हैं।
    • डंपिंग का उद्देश्य प्रतिस्पर्द्धा को समाप्त करते हुए विदेशी बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना और इस तरह एकाधिकार स्थापित करना होता है।      
  • नौकरियाँ बचाना: यह तर्क दिया जाता है कि घरेलू स्तर पर अधिकाधिक खरीदारी राष्ट्रीय उत्पादन को प्रेरित करती है और उत्पादन में यह वृद्धि एक स्वस्थ घरेलू रोज़गार बाज़ार के निर्माण में योगदान करती है।    
  • आउटसोर्सिंग: कंपनियों के लिये यह सामान्य अभ्यास है कि वे सस्ते श्रम और सरल शासन प्रणाली वाले देशों की पहचान करते हैं और वहाँ अपने रोज़गार कार्यों की आउटसोर्सिंग करते हैं। इससे घरेलू उद्योगों में नौकरियों का नुकसान होता है।
  • बौद्धिक संपदा संरक्षण: किसी घरेलू प्रणाली में पेटेंट्स नवप्रवर्तकों की रक्षा करते हैं। हालाँकि, वैश्विक स्तर पर विकासशील देशों के लिये रिवर्स इंजीनियरिंग के माध्यम से नई तकनीकों की नकल करना बेहद सामान्य बात है।

संरक्षणवाद के विरुद्ध तर्क

  • व्यापार समझौते: भारत को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समझौतों से व्यापक लाभ हुआ है। वाणिज्य मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, भारत ने 54 देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर हस्ताक्षर किये हैं।     
    • वे टैरिफ रियायतें प्रदान करते हैं, जिससे लघु एवं मध्यम उद्यमों (SMEs) से संबंधित उत्पादों के साथ ही वृहत रूप से उत्पादों के निर्यात को अवसर प्राप्त होता है।  
  • WTO के विनियमों के विरुद्ध: भारत WTO की स्थापना के समय से ही इसका सदस्य रहा है। विश्व व्यापार संगठन के नियम अन्य देशों से आयात पर प्रतिबंध लगाने पर रोक लगाते हैं।   
    • ऐसे प्रतिबंध केवल भुगतान संतुलन की कठिनाइयों, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे कुछ उद्देश्यों से ही आरोपित किये जा सकते हैं। घरेलू उद्योग को स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा से बचाने के लिये ऐसी बाधाएँ नहीं लगाई जा सकती हैं।    
  • मुद्रास्फीति-विषयक प्रवृत्ति: आयात को प्रतिबंधित करने जैसी संरक्षणवादी नीतियाँ घरेलू बाज़ार में वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि ला सकती हैं, जिससे सीधे तौर पर उपभोक्ताओं के हित प्रभावित होते हैं।     
  • अप्रतिस्पर्द्धी घरेलू उद्योग: स्थानीय उद्योगों को इस प्रकार संरक्षित किये जाने से उनके पास नए उत्पादों के लिये नवाचार या अनुसंधान और विकास पर संसाधनों के निवेश की कोई प्रेरणा नहीं होती।

आगे की राह 

  • ‘कारोबार सुगमता’ में सुधार: हालाँकि भारत ने कई दिशाओं में प्रगति की है, लेकिन व्यवसाय शुरू करने, अनुबंध लागू करने और संपत्ति को पंजीकृत करने जैसे संकेतकों में वह अभी भी कई बड़े देशों से पीछे है।   
    • इन संकेतकों में सुधार से भारतीय फर्मों को विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा कर सकने और बड़ी बाज़ार हिस्सेदारी प्राप्त कर सकने में मदद मिल सकती है।
  • ‘मेक इन इंडिया’: देश में नवाचार, अनुसंधान एवं विकास और उद्यमिता को प्रोत्साहित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये। यह भारतीय कंपनियों को भविष्य के क्षेत्रों में प्रतिस्पर्द्धा कर सकने के लिये तैयार करेगा।   
  • निजी निवेश को बढ़ावा देना: इससे विकास, रोज़गार अवसरों, निर्यात और माँग को बढ़ावा मिलेगा।  
  • अनुमान-योग्य और पारदर्शी व्यापार नीति: यह भारतीय फर्मों को अपनी क्षमता और वित्त की अग्रिम योजना तैयार कर सकने का अवसर देगी। वे विस्तार और अनुसंधान एवं विकास के लिये अपने संसाधनों का आवंटन कर सकने में सक्षम होंगे। इससे वे अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धी बन सकेंगे। 
  • मुक्त व्यापार समझौते (FTAs): भारत को पूर्वी एशियाई देशों (आसियान), जापान, दक्षिण कोरिया आदि के साथ विशेष रूप से मुक्त व्यापार समझौतों का प्रभावी उपयोग करने की आवश्यकता है, ताकि इन देशों के साथ निवेश, निर्यात और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया जा सके।     
  • व्यापार संबंधी समस्याओं का समाधान: भारतीय व्यापार व्यवस्था में निवेशकों की शंकाओं को दूर करने के लिये अमेरिका और अन्य देशों के साथ व्यापार संबंधी समस्याओं को जल्द से जल्द हल किया जाना चाहिये।  

निष्कर्ष

भारत को घरेलू उद्योग के हितों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से FDI के रूप में विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिये व्यापार रियायतें प्रदान करने के बीच एक बेहतर संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता है।   

वर्ष 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के निर्माण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये व्यापक, बहुआयामी और बहु-क्षेत्रीय प्रयासों की ज़रूरत है।  

अभ्यास प्रश्न: "संरक्षणवाद अल्पावधि में तो लाभप्रद हो सकता है, लेकिन दीर्घावधि में यह अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाता है।" टिप्पणी कीजिये।

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