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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत में दालों का संकट

  • 12 Sep 2017
  • 12 min read

भूमिका

भारतीय कृषि-खाद्य में दलहन का हमेशा से एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। दलहन के उत्पादन एवं उपभोग में न केवल भारत का संपूर्ण विश्व में पहला स्थान है, बल्कि इसके आयात में भी यह उच्च स्थान पर काबिज़ है। तथापि पिछले कुछ समय से यह परिदृश्य बदलता हुआ प्रतीत हो रहा है। भारत में दलहन की वास्तविक स्थिति एवं इससे संबंधित चुनौतियों एवं उनके समाधानों को मद्देनज़र रखते हुए ही इस विषय में इस लेख के अंतर्गत विस्तार से चर्चा की गई है।

प्रमुख बिंदु 

  • दलहन के मामले में हमेशा से आत्मनिर्भर रहे भारत को वर्ष 1990-1991 में तिलहन के लिये चलाए गए प्रौद्योगिकी मिशन में दालों (Technology Mission on Oilseeds) को शामिल करने के पश्चात् काफी नुकसान का सामना करना पड़ा। 
  • वर्ष 1992 और 1995-1996 में इस मिशन में ताड़ के तेल (palm oil) और मक्का को शामिल करने के पश्चात् इस मिशन का पुनर्नामकरण कर इसे आई.एस.ओ.पी.ओ.एम. (Integrated Scheme on Oilseeds, Pulses, Oil palm and Maize – ISOPOM) कर दिया गया।
  • वर्ष 2007 में आई.एस.ओ.पी.ओ.एम. में शामिल की गई दालों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (National Food Security Mission) के साथ मिला दिया गया।
  • हालाँकि, दशकों तक ऐसी योजनाओं को चलाने के पश्चात् भी भारत अभी तक दालों और खाद्य तेलों (तिलहन) के संबंध में आत्मनिर्भरता हासिल नहीं कर पाया है।

वास्तविक स्थिति

  • वित्तीय वर्ष 2016 में 16.5 मिलियन मीट्रिक टन (Million Metric Tonnes - MMT) घरेलू उत्पादन के बावजूद मात्र 5.8 मिलियन मीट्रिक टन दालों का ही आयात किया गया।
  • विदित हो कि वित्तीय वर्ष 2014 में 19.25 मिलियन मीट्रिक टन दालों का उत्पादन हुआ था, परंतु वित्तीय वर्ष 2015 और 2016 में सूखा पड़ने के कारण दालों के उत्पादन में कमी आई। 
  • यह कमी दालों में आत्मनिर्भरता को प्राप्त करने के लिये बनाई गई भारत की रणनीति की असफलता को रेखांकित करती है।

इस संबंध में सरकारी पहल

  • दलहन की कमज़ोर होती स्थिति के संदर्भ में सरकार का ध्यान तब आकर्षित हुआ जब मुद्रास्फीति “सहिष्णुता की सीमा” (Tolerance Limit) को पार कर गई। अगस्त 2016 में दालों की खुदरा मुद्रास्फीति दर 22% थी।
  • परंतु, सितंबर में अनेक बाज़ारों में मूंग की दाल पहुँचने के बाद इसके थोक मूल्य (Wholesale Price) में कमी आई। कुछ बाज़ारों में तो इसका थोक मूल्य इसके न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price - MSP) से भी कम हो गया।
  • स्पष्ट रूप से बाज़ार की इस अस्थिरता से किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को नुकसान हुआ। 
  • दालों के मूल्यों की इस अस्थिरता का समाधान करने का एक उपाय यह भी हो सकता है कि जिस समय बाज़ार में दालों की कीमत कम हो, उस समय या तो दालों का आयात करके अथवा उसका भंडारण करके लगभग 2 मिलियन मीट्रिक टन दालों का बफर स्टॉक बना लिया जाए। हाल ही में अरविंद सुब्रमण्यम द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में इसी प्रकार की अनुशंसा की गई। 
  • हालाँकि, इन सबमें सबसे ख़ुशी की बात यह है कि केंद्र सरकार द्वारा पहले ही दालों के बफर स्टॉक के निर्माण को मंज़ूरी दी जा चुकी है।

चुनौतियाँ एवं समाधान

  • परंतु, यदि ऐसा किया जाता है तो इसके संचालन से संबंधित चुनौतियों के विषय में भी विचार किये जाने की आवश्यकता है, ताकि समय रहते इनका समाधान निकला जा सके।
  • इस संबंध में एक व्यावहारिक समझ बनाने के लिये हाल के कुछ अनुभवों पर एक नज़र डालना समीचीन प्रतीत होता है।
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2015 में जब दालों का बाज़ारी मूल्य उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक था, तब सरकार द्वारा खरीफ के मौसम में इनका भंडारण करने का निर्णय लिया गया।
  • इस कार्य के लिये भारत सरकार द्वारा स्थापित एक कीमत स्थिरता फण्ड (Price Stabilisation Fund- PSF) द्वारा तकरीबन 500 करोड़ रुपए की राशि मुहैया कराई गई।
  • नाफेड (NAFED), एस.एफ.ए.सी (SFAC) और एफ.सी.आई (FCI) को भंडारण हेतु नोडल एजेंसियाँ बनाया गया।
  • इन एजेंसियों द्वारा इस कार्य के लिये राज्य एजेंसियों जैसे- नागरिक आपूर्ति निगम (Civil Supplies Corporation) और राज्य सहकारी विपणन संघ (State Cooperative Marketing Federation) का उपयोग किया गया।
  • परंतु, इन सबमें सबसे बड़ी समस्या यह आई कि इन एजेंसियों के पास भंडारण संबंधी कोई आवश्यक ट्रैक रिकॉर्ड, अवसंरचना अथवा वित्त उपलब्ध नहीं होने के कारण ये राज्य एजेंसियों की मदद से केवल 50,422 टन दलों का ही भंडारण कर सकीं।
  • इसके लगभग एक वर्ष बाद इसमें से तकरीबन 10,000 टन से भी कम दालों का वितरण कर दिया गया। 
  • हालाँकि, अधिकांश राज्य सरकारों ने दालों के वितरण में कोई रुचि नहीं दिखाई, जबकि अधिकतर सब्सिडी का खर्च केंद्र सरकार द्वारा वहन किया जा रहा था।
  • इस समयावधि के दौरान दालों का खुदरा मूल्य भी उच्च बना रहा।
  • एक वर्ष से भी कम समय तक दालों को भंडारित रखने के पश्चात् सरकारों के मध्य यह भय उत्पन्न हो गया कि यदि और अधिक लंबे समय तक दालों को भंडारित करके रखा गया तो इससे दालों की गुणवत्ता प्रभावित हो जाएगी, जिसका स्पष्ट प्रभाव इसके मूल्य पर पड़ेगा। इन सभी बातों ने बहुत सी शंकाओं को जन्म दिया।

उक्त अनुभव से प्राप्त ज्ञान के अनुसार, 

  • उक्त अनुभव से यह तो स्पष्ट है कि बफर स्टॉक के लिये 2 मिलियन मीट्रिक टन दालों के भंडारण की चुनौती को पूरा करना कोई आसान बात नहीं है। 
  • अत: इसके सभी पहलुओं के विषय में गंभीरता से विचार-विमर्श किये जाने की आवश्यकता है। इस उदाहरण से निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण मुद्दे उभरकर सामने आते हैं - 

• पहला, इसके लिये न्यूनतम 10,000 करोड़ (न कि कीमत स्थिरता फंड के समान मात्र 500 करोड़ की) की कार्यक्षम पूंजी की आवश्यकता होगी।
• भारत सरकार द्वारा या तो इस राशि का आवंटन बजट के अंतर्गत ही कर दिया जाना चाहिये अथवा एफ.सी.आई. जैसी एजेंसियों द्वारा दालों के भण्डारण हेतु अपनी खाद्य ऋण वाली सीमा का उपयोग किया जाना चाहिये।
• दूसरा, यदि भंडारण के कारण दालों की गुणवत्ता में तेज़ी से कमी आती है तो इनकी भंडारित मात्रा को बेहतर तरीके से नियंत्रित किये जाने की आवश्यकता होगी।
• इस संबंध में अरविन्द सुब्रमण्यम रिपोर्ट के अंतर्गत एक नई एजेंसी के सृजन (जिसका संचालन सार्वजनिक-निजी भागीदारी द्वारा हो) का सुझाव दिया गया है। परंतु, इसमें मुख्य समस्या यह है कि निजी एजेंसियाँ भारत सरकार से अपने पैसों की वापसी के लिये लंबे समय तक प्रतीक्षा नहीं कर सकती हैं| जैसा कि राज्य एजेंसियों जैसे-एफ.सी.आई. और नाफेड के मामले में नियमित रूप से होता रहता है। 
• तीसरा, यदि राज्य एजेंसियों के लिये दालों की आर्थिक लागत (भंडारण मूल्य साथ ही खरीद मूल्य, प्रोसेसिंग चार्ज, स्टॉक और वितरण लागत) इसके बाज़ारी मूल्यों से अधिक होती है तो खुले बाज़ार में दालों के बफर स्टॉक संबंधी सभी अभियान स्वतः ही समाप्त हो जाएंगे।
• इससे सबसे अधिक नुकसान भारत सरकार को ही होगा। यह और बात है कि इन सभी बातों को भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General - CAG) द्वारा गंभीरतापूर्वक नहीं लिया गया है। 

निष्कर्ष

अंततः दालों के भंडारण के लिये सरकार के बाज़ार में प्रवेश करने से पहले क्या सरकार द्वारा निर्यात प्रतिबंधों के साथ-साथ व्यापारियों के लिये निर्धारित की गई स्टॉकिंग सीमा को समाप्त कर दिया जाएगा अथवा ए.पी.एम.सी. अधिनियम की सूची से ही दालों को हटा दिया जाएगा या फिर सुब्रमण्यम रिपोर्ट द्वारा पेश की गई सिफारिशों के मद्देनज़र आवश्यक वस्तु अधिनियम (Essential Commodities Act), 1955 की पुनर्समीक्षा की जाएगी? इन सभी प्रश्नों के उत्तर मिलना अभी बाकी है। तथापि यह कहना गलत न होगा कि इस संबंध में स्पष्ट रूप से यह सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है कि आयातित दालों की खरीद लागत न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम नहीं होनी चाहिये। आंशिक समाधान के तौर पर, इसके लिये दालों पर लगभग 10% की दर से आयात शुल्क लगाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि के उद्देश्य को भी निरस्त कर दिया जाना चाहिये। अब देखना यह होगा कि क्या भारत सरकार दालों के उत्पादन में बढ़ोतरी को लेकर किसानों से किये गए अपने वादे को बनाए रखेगी अथवा पहले की भाँति केवल निराशा ही हाथ लगेगी| 

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