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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

आर्थिक वृद्धि के प्रचलित दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तनों की आवश्यकता

  • 03 Jul 2017
  • 7 min read

विश्व के अन्य कई देशों की तरह ही भारत भी कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना कर रहा है। कृषिगत, ग्रामीण अर्थव्यवस्था का रुग्ण स्थिति में होना, रोज़गार सृजन की चुनौतियाँ और पर्यावरण क्षरण भारत की तीन मुख्य समस्याएँ हैं। आर्थिक वृद्धि की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ते भारत के कदमों को इन तीनों ही चुनौतियों ने जकड़ रखा है।

चिंताजनक परिस्थितियाँ

  • भारत में किसानों की दयनीय हालत से सभी वाकिफ हैं, पहले यह माना जाता था कि सभी कृषिगत समस्याएँ मुख्यतः मानसून से संबंधित हैं, मसलन अल्प वर्षण और कम पैदावार को ध्यान में रखकर बनाई गई नीतियाँ भी अब असरदार नहीं दिख रही हैं। विदित हो कि वर्ष 2016 में बेहतर मानसून, और बढ़ी पैदावार के बावजूद देश के लगभग प्रत्येक हिस्से में किसानों के मध्य असंतोष देखा जा रहा है।
  • वहीं यदि हम जीडीपी के आँकड़ों पर नज़र दौडाएँ तो भारत निश्चित रूप से बेहतर स्थिति में दिख रहा है। यह वृद्धि इस बात की परिचायक है कि भारत आर्थिक वृद्धि के मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन कर रहा है और रोज़गारों का सृजन हो रहा है, लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत को “रोज़गार विहीन संवृद्धि” (jobless growth) का सामना करना पड़ रहा है। हमें जीडीपी में वृद्धि को हर मर्ज़ की दवा मानने की अपनी प्रवृत्ति में बदलाव लाना होगा।
  • भारत में शहरों की स्थिति तो और भी दयनीय है, अधिकांश शहर ठोस अपशिष्टों से अटे पड़े हैं। भारतीय के कुछ महानगर तो विश्व में सर्वाधिक वायु प्रदूषण से प्रभावित शहरों में से एक हैं। मिट्टी की उर्वरता घटती जा रही है।

प्रचलित दृष्टिकोण में बदलाव की ज़रूरत क्यों ?

  • दरअसल, ये समस्याएँ हमारे वर्तमान संवृद्धि के पैटर्न के कारण ही है, अतः इसी पैटर्न पर संवृद्धि के पीछे भागना समस्याओं और भी विकराल बनाएगा। वास्तव में, इस पैटर्न को यदि नहीं बदला गया तो और जैसे-जैसे हम आर्थिक वृद्धि के पथ पर कदम बढ़ाएंगे, वैसे-वैसे हमें और भी अधिक पर्यावरणीय समस्याओं से दो-चार होना पड़ेगा।
  • आज हमारे लिये रोज़गार बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि दुनिया में स्वचालन इतना बढ़ गया है, जितना हमने अतीत में कभी नहीं देखा है। पहले फैक्ट्रियों में मशीनों ने मनुष्य की जगह ले ली, अब कंप्यूटरीकरण काम की गति और उत्पादनशीलता को बढ़ा रहा है।
  • इसका मतलब यह है कि अब अमीर देशों को हमारी सस्ती मजदूरी की उतनी ज़रूरत नहीं रही, इसलिये आने वाले समय में बेरोज़गारी बड़ी तेज़ी से बढ़ेगी। दुनिया में वर्गभेद और गैर-बराबरी को लेकर पहले से मौजूद आक्रोश और भी बढ़ेगा। इससे भविष्य और अंधकारमय नज़र आ रहा है। 
  • इसलिये भारत को अपने वृद्धि की रणनीति और टिकाऊपन के बारे में फिर से विचार करना चाहिये। अगर उत्पादन के बजाय सेवाओं में वृद्धि दिखाई पड़ रहा है तो हमें नए कारोबार शुरू करने पड़ेंगे, जो किफायती मूल्य पर रोज़गार और सेवाएँ मुहैया करा सकें।
  • इसलिए स्थानीयकरण को बढ़ावा देना होगा है। यह स्थानीय संसाधनों के आधार पर, स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर एक नए भविष्य का निर्माण कर सकता है।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • दरअसल, अर्थव्यवस्था, समाज, और पर्यावरण तीनों ही एक-दूसरे से कुछ इस प्रकार से जुड़े हुए हैं कि किसी एक में भी लाया गया बदलाव शेष तीनों को प्रभावित करता है। किसी भी तंत्र द्वारा बेहतर कार्य निष्पादन क्षमता के लिये यह आवश्यक है कि इसके सभी अंगों को एक-दुसरे से समन्वित ढंग से जुड़े हों।
  • जिस प्रकार मानव शरीर में हृदय, रक्त और धमनियों के मध्य आपसी समन्यव से शरीर के प्रत्येक कोने में रक्त का संचार होता है, ठीक उसी प्रकार से अर्थव्यवस्था, समाज और पर्यावरण को एक साथ मिलाकर ही हम वास्तविक संवृद्धि पा सकते हैं।
  • समस्या यह भी है कि आर्थिक वृद्धि के इन घटकों का हम अलग-अलग अध्ययन करते हैं, अर्थशास्त्री केवल अर्थव्यवस्था की चिंता करता है, समाजाशास्त्री, सामाजिक चिंताओं की बात करता है और एक पर्यावरणविद केवल पर्यावरणीय चिंताओं तक ही सीमित हो जाता है।
  • इतना ही नहीं कई बार तो वे एक-दूरे को अपने-अपने कार्यक्षेत्र की बाधाओं का ज़िम्मेदार तक मानने लगते हैं। हमें प्रचलित तरीकों में बदलाव लाते हुए एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा जो इन्हें एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायी बना सके।

निष्कर्ष
यूरोपीय यूनियन से अलग होने का इंग्लैंड का फैसला हो या फिर अपने देश में पटेल, मराठा और जाटों जैसी समृद्ध जातियों का खुद को ‘पिछड़ा’ घोषित करवाने का आंदोलन हो, यह दुनिया दो फाड़ होती दिख रही है। यह आर्थिक वृद्धि के विकृत होने के संकेत हैं। इसी आर्थिक वृद्धि ने पर्यावरण को भी बड़ा नुकसान पहुँचाया है। हमारी आबोहवा में, हमारे खान-पान में, हमारी मिट्टी में ज़हर फैल रहा है और सबसे चिंताजनक, जलवायु परिवर्तन हो रहा है। इसलिये हमें निरंकुश उपभोक्तावाद और वैश्विकरण पर टिके वृद्धि के इस मॉडल में स्थानीयता के मूल्यों को समाहित करना होगा। वक्त है आर्थिक वृद्धि के परंपरागत तरीकों से थोड़ा अलग सोचने का।

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