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कृषि-ऋण माफी के प्रभाव

  • 17 Jun 2017
  • 7 min read

संदर्भ
हाल ही में कृषि ऋण में छूट राज्यों के मध्य प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ बनती नज़र आ रही है। दुर्भाग्य से यह एक गंभीर चिंता का विषय है कि ऋण माफी ने आज तक कृषक समुदाय की असली समस्या को उज़ागर नहीं किया है और न ही कृषि में व्यापक ढाँचागत सुधारों को लागू किया। इस प्रकार के अल्पकालिक उपायों से लोगों के साथ-साथ सरकार के राजस्व पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उल्लेखनीय है कि 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा (National Front) सरकार द्वारा भी इसी प्रकार की ऋण माफी के कारण राजस्व और भुगतान संतुलन का संकट उत्त्पन्न हो गया था।

महत्त्वपूर्ण बिंदु 

  • वित्त मंत्री ने कहा है कि केंद्र सरकार की ऋण माफी में कोई भूमिका नहीं है। राज्य सरकारें ऐसा निर्णय लेने के लिये पूर्ण स्वतंत्र हैं, लेकिन उन्हें इससे पड़ने वाले वित्तीय परिणामों को भी ध्यान में रखना चाहिये। 
  • 14वें वित्त आयोग के अनुसार राज्यों का कुल व्यय (GSDP के प्रतिशत रूप में) केन्द्र सरकार की तुलना में अधिक है। 
  • कई राज्य सरकारों ने राज्य स्तर पर राजकोषीय कानूनों को लागू किया है और राज्य स्तर के एफ.आर.बी.एम. (वित्तीय दायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम) के तहत 3% राजकोषीय लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ रही हैं।
  • रिज़र्व बैंक की हालिया रिपोर्ट- ‘राज्य वित्त: 2016-17 के बजट का अध्ययन’ में कुछ चिंताजनक निष्कर्ष सामने आए हैं। राज्यों का कुल राजकोषीय घाटा वित्तीय वर्ष 2016 में जी.डी.पी. का 3.6% तक पहुँच गया, जो पिछले वर्ष  2.6% था। अत: यह स्थिति एफ.आर.बी.एम. एक्ट के लक्ष्य जो कि 3% राजकोषीय घाटे को बनाए रखने की है, के विपरीत है। केंद्र का राजकोषीय समेकन राज्यों से अधिक अच्छी स्थिति में है।
  • राज्यों की यह स्थिति राज्य बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कोम) के ऋण के कारण बनी हुई है। 
  • अगर ऋण-जी.डी.पी. अनुपात स्थिर हो तो ऋण को वहनीय माना जाता है। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार का ऋण अनुपात कम है, जबकि राज्यों में स्थिति थोड़ी अलग है।
  • राज्यों का ऋण अनुपात और वर्तमान एफ.आर.बी.एम. परिदृश्य दोनों के बढ़ने का अनुमान है। केंद्र की तुलना में राज्यों का प्राथमिक घाटा (कुल घाटा में ब्याज भुगतान को छोड़कर) बहुत अधिक है। भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार केंद्र का प्राथमिक घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 0.7% है, जबकि राज्यों का करीब 2% है।
  • अगर यह स्थिति बनी रहती है तो अगले 10 सालों में राज्यों का ऋण-जी.डी.पी. अनुपात लगभग 20% से 35% तक बढ़ जाएगा। अत: राज्यों को ऋण अनुपात को समेकित स्थिति में रखने की आवश्यकता है।
  • अगर राज्यों की वित्तीय स्थिति बिगड़ जाती है तो इससे विदेशी संस्थागत निवेशकों (FII) का भारत के प्रति मोह भंग हो सकता है।
  • राज्य सरकार के सरकारी बांडों में वृद्धि से नए कर्ज़ पर ब्याज का अधिक बोझ बढ़ेगा। यह स्थिति राज्यों के लिये ज़्यादा कर्ज़ का बोझ उत्त्पन्न कर सकती है।
  • अगर राज्य स्तर पर तुलना करें तो उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों की तुलना में तमिलनाडु, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में राजकोषीय घाटा काफी कम है, साथ ही करों को तर्कसंगत बनाने की दिशा में सकारात्मक प्रयास किये जा रहे हैं। 
  • ऋण-माफी के साथ-साथ ‘उदय बांड’ के कारण राज्यों का ऋण और बढ़ सकता है। अत: ऐसी स्थिति में सरकार के लिये वित्तीय स्थिरता को बनाएं रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य हो सकता है।

क्या किया जाना चाहिये?

  • संविधान के अनुच्छेद-293 के तहत राज्यों की उधार लेने की शक्ति तथा केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली सहमति के बीच सामंजस्य बिठाने की आवश्यकता है, क्योंकि इस स्थिति को लेकर वित्त मंत्रालय के भीतर ही समन्वय का अभाव दिखता है। अत: इसके लिये कठोर मानदंड निर्धारित करने की आवश्यकता है और ये मानदंड अराजनैतिक और पारदर्शी होने चाहिये। 
  • जब भी केंद्र सरकार राजकोषीय मानदंडों का उल्लंघन करे, तो इसे संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये तथा राज्य सरकारों को भी इस प्रकार की प्रक्रिया को अपनाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • राज्यों द्वारा बांड जारी करने के लिये बाज़ारों और राज्य वित्त के बीच समन्वय स्थापित करने के लिये नियामक उपाय किये जाने चाहिये।
  • 15वें वित्त आयोग को राज्यों के वित्तीय दायित्वों से संबंधित व्यापक मुद्दों को देखना चाहिये।


निष्कर्ष 
अत: हमें लोन माफी जैसे अल्पकालीन उपायों के बजाय एक दीर्घकालीन व्यापक कृषि-नीति बनाने की आवश्यकता है। केंद्र एवं राज्य सरकारों को मिलकर तुरंत इस समस्या का समाधान निकलना चाहिये। कृषि से संबंधित चल रही विभिन्न योजनाओं को समेकित करते हुए, उन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने की महती आवश्यकता है।

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