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भारतीय समाज

विवाह की एक समान आयु

  • 22 Aug 2019
  • 6 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर पुरुषों और महिलाओं के लिये विवाह की एक समान आयु की मांग की गई है।

विवाह की आयु: इतिहास

  • भारतीय दंड संहिता ने वर्ष 1860 में 10 वर्ष से कम आयु की लड़की के साथ किसी भी प्रकार के शारीरिक संबंध को अपराध की श्रेणी में रखा था।
  • उपरोक्त प्रावधान को वर्ष 1927 में आयु कानून 1927 के माध्यम से संशोधित किया गया, जिसने 12 वर्ष से कम आयु की लड़कियों के साथ विवाह को अमान्य बना दिया। इस कानून का विरोध राष्ट्रवादी आंदोलन के रूढ़िवादी नेताओं द्वारा किया गया क्योंकि वे इस प्रकार के कानूनों को हिंदू रीति-रिवाजों में ब्रिटिश हस्तक्षेप मानते थे।
  • बाल विवाह निरोधक अधिनियम 1929 के अनुसार महिलाओं और पुरुषों के विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 16 और 18 वर्ष निर्धारित की गई थी। इस कानून को शारदा अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है, हरविलास शारदा न्यायाधीश और आर्य समाज की सदस्य थीं।

संविधान का दृष्टिकोण:

  • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 भी महिलाओं और पुरुषों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 18 और 21 वर्ष निर्धारित करते हैं।
  • कानून विवाह की न्यूनतम आयु के माध्यम से बाल विवाह और नाबालिगों के अधिकारों के दुरुपयोग को रोकते हैं। विवाह के संबंध में विभिन्न धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों के अपने मानक हैं, जो अक्सर रीति-रिवाजों को दर्शाते हैं।
  • इस्लाम में यौवन प्राप्ति को नाबालिगों के विवाह के लिये व्यक्तिगत कानून के तहत वैध माना जाता है।
  • हिंदू धर्म में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 (iii) के तहत दुल्हन और वर की न्यूनतम आयु क्रमशः 18 और 21 वर्ष निर्धारित की गई थी। इस अधिनियम के अनुसार बाल विवाह गैरकानूनी नहीं था लेकिन विवाह में नाबालिग के अनुरोध पर इस विवाह को शून्य घोषित किया जा सकता था।

विवाह की आयु से संबंधित मुद्दे:

  • पुरुषों और महिलाओं के लिये विवाह की अलग-अलग आयु का प्रावधान कानूनी विमर्श का विषय बनता जा रहा है। इस प्रकार के कानून रीति-रिवाजों और धार्मिक प्रथाओं का एक कोडीकरण है जो पितृसत्ता में निहित हैं।
  • विवाह की अलग-अलग आयु, संविधान के अनुच्छेद 14 ( समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार) का उल्लंघन करती है।
  • विधि आयोग ने वर्ष 2018 मे परिवार कानून में सुधार के एक परामर्श पत्र में तर्क दिया कि पति और पत्नी की अलग-अलग कानूनी आयु रूढ़िवादिता को बढ़ावा देती है।
  • विधि आयोग के अनुसार, पति और पत्नी की आयु में अंतर का कानून में कोई आधार नहीं है क्योंकि पति या पत्नी का विवाह में शामिल होने का तात्पर्य हर तरह से समान है और वैवाहिक जीवन में उनकी भागीदारी भी समान होती है।
  • महिला अधिकारों हेतु कार्यरत कार्यकर्त्ताओं ने भी तर्क दिया है कि समाज के लिये यह केवल एक रूढ़ि मात्र है कि एक समान आयु में महिलाएँ, पुरुषों की तुलना में अधिक परिपक्व होती हैं और इसलिये उन्हें कम आयु में विवाह की अनुमति दी जा सकती है।
  • महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन संबंधी समिति (Committee on the Elimination of Discrimination against Women- CEDAW) जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ भी ऐसे कानूनों को समाप्त करने का आह्वान करती हैं जो पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अलग भौतिक और बौद्धिक परिपक्वता संबंधी विचारों से घिरे हैं।

महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन संबंधी समिति

(Committee on the Elimination of Discrimination against Women- CEDAW):

  • यह स्वतंत्र विशेषज्ञों का एक समिति है जो महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर अभिसमय के कार्यान्वयन की निगरानी करती है।
  • CEDAW समिति में विश्व भर से महिला अधिकारों के 23 विशेषज्ञ शामिल हैं।
  • वे देश जो इस प्रकार की संधि के पक्षकार बन गए हैं, अभिसमय के क्रियान्वयन संबंधी प्रगति रिपोर्ट समिति को नियमित रूप से सौंपने के लिये बाध्य हैं।

वर्तमान दृष्टिकोण:

सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2014 में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ के निर्णय में कहा कि तीसरे लिंग के रूप में ट्रांसजेंडरों को भी अन्य सभी मनुष्यों की तरह समान कानूनों में समान अधिकार मिलना चाहिये।

सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2019 में जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (Joseph Shine v Union of India) मामले में व्यभिचार (Adultery) को रद्द करते हुए कहा कि इस प्रकार के कानून लैंगिक रूढ़ियों के आधार पर महिलाओं से विभेद करते हैं जो महिलाओं की गरिमा संबंधी समानता का उल्लघंन भी करते हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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