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डेली न्यूज़

कृषि

बहुफसली पद्धति का महत्त्व

  • 03 Aug 2019
  • 4 min read

चर्चा में क्यों?

आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र (Centre for Economic and Social Studies-CESS) द्वारा किये गए एक हालिया अध्ययन में बहुफसली पद्धति (Multi-Cropping System) के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है।

प्रमुख बिंदु

  • एकल फसली व्यवस्था (Mono-Cropping) के विपरीत बहुफसली पद्धति (Multi Cropping) के अंतर्गत किसान भूमि के एक ही हिस्से में दो या दो से अधिक फसलें उगाते हैं। बहुफसली पद्धति मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं:
    • अंतर फसली (Intercropping): इसका अभिप्राय एक निश्चित फसल पैटर्न में दो या दो से अधिक फसलों को उगाने से है।
    • रिले क्रॉपिंग (Relay cropping): रिले क्रॉपिंग के तहत भूमि के एक ही हिस्से में दो या दो से अधिक फसलें उगाई जाती हैं, परंतु इस पद्यति में पहली फसल की कटाई से ठीक पहले दूसरी फसल की बुवाई उसी भूमि पर की जाती है।
    • मिश्रित अंतर फसली (Mixed intercropping): इस व्यवस्था में किसी निश्चित पंक्ति पैटर्न के बिना सभी फसलें एक साथ एक ही भूमि पर उगाई जाती हैं।

बहुफसली पद्धति के आर्थिक लाभ

  • अधिकतम उत्पादकता: बहुफसली पद्धति की सहायता से छोटे आकार की भूमि से अधिकतम उत्पादकता प्राप्त की जा सकती है।
  • पशुओं के लिये चारा संग्रहण: बहुफसली पद्धति पशुओं के लिये भी अधिकतम चारा सुनिश्चित करती है।
  • खाद्य सुरक्षा: यदि बहुफसली पद्धति में एक या दो फसलें ख़राब भी हो जाए तो भी किसान बची हुई फसलों के सहारे अपनी और अपने परिवार की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है।
  • एकाधिक उपयोग: इस व्यवस्था में फसलें सिर्फ अनाज ही नहीं बल्कि चारा और ईंधन भी प्रदान करती हैं।

सस्यविज्ञान (Agronomy) संबंधी लाभ

  • कीट प्रबंधन: एक साथ कई प्रकार की फसलें उगाने से कीट की समस्याएँ कम होती हैं और मिट्टी के पोषक तत्त्वों, पानी और भूमि का कुशल उपयोग होता है।
  • खरपतवार का प्रबंधन: बहुफसली पद्धति खरपतवार के रोकथाम में भी काफी सहायक होती है, क्योंकि खरपतवार को कुछ फसलों के साथ उगने में मुश्किल होती हैं।
  • एक सतत् कृषि पद्यति: बहुफसली पद्धति के माध्यम से रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को कम किया जा सकता है।

आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र

  • आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र (Centre for Economic and Social Studies-CESS) की स्थापना वर्ष 1980 में एक स्वायत्त अनुसंधान केंद्र के रूप में की गई थी।
  • 1986 में इसे भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (Indian Council of Social Science Research-ICSSR) द्वारा एक राष्ट्रीय संस्थान के रूप में मान्यता दी गई।
  • इस केंद्र को विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम, 1976 की धारा 6 (1) (a) के तहत पंजीकृत किया गया था।

स्रोत: द हिंदू (बिज़नेस लाइन)

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