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डेली न्यूज़

जैव विविधता और पर्यावरण

IPCC रिपोर्ट

  • 10 Aug 2019
  • 8 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल द्वारा एक नई रिपोर्ट जारी की गई है, जिसमे भूमि और जलवायु परिवर्तन पर समग्रता से विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। वर्ष 2016 में नैरोबी, केन्या में संपन्न हुए IPCC के 43वें सत्र में जलवायु परिवर्तन, मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण, स्थायी भूमि प्रबंधन, खाद्य सुरक्षा और स्थलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों पर ग्रीनहाउस गैस के प्रभाव को लेकर एक विशेष रिपोर्ट तैयार करने का निर्णय लिया गया था।

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल

(Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC):

  • IPCC की स्थापना संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और विश्व मौसम संगठन द्वारा वर्ष 1988 में की गई थी।
  • यह जलवायु परिवर्तन पर नियमित वैज्ञानिक आकलन, इसके निहितार्थ और भविष्य के संभावित जोखिमों के साथ-साथ, अनुकूलन और शमन के विकल्प भी उपलब्ध कराता है।
  • इसका मुख्यालय ज़िनेवा में स्थित है।

IPCC की रिपोर्ट:

  • पिछले वर्ष IPCC ने पूर्व-औद्योगिक काल से 1.5 डिग्री सेल्सियस के अंदर तापमान में वैश्विक वृद्धि को प्रतिबंधित करने की व्यवहार्यता पर एक विशेष रिपोर्ट तैयार की थी।
  • इस वर्ष की रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग में भूमि संबंधी गतिविधियों जैसे कृषि, उद्योग, वानिकी, पशुपालन और शहरीकरण के योगदान के बारे में बात की गई है।
  • रिपोर्ट में खाद्य उत्पादन गतिविधियों द्वारा ग्लोबल वार्मिंग को प्रभावित करने संबंधी योगदान को भी इंगित किया गया है।
  • रिपोर्ट में कहा गया कि अगर मवेशियों के पालन-पोषण और परिवहन, ऊर्जा एवं खाद्य प्रसंस्करण जैसी गतिविधियों पर ध्यान दिया जाए तो ये गतिविधियाँ प्रत्येक वर्ष कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 37% का योगदान करती है।
  • रिपोर्ट में बताया गया कि उत्पादित सभी खाद्य पदार्थों का लगभग 25% बर्बाद हो जाता है जो कचरे के रूप में अपघटित होकर उत्सर्जन को बढ़ाता है।

भूमि उपयोग और जलवायु परिवर्तन:

  • IPCC ने पहली बार जलवायु परिवर्तन संबंधी रिपोर्ट को भूमि क्षेत्र पर केंद्रित किया है।
  • भूमि उपयोग और भूमि उपयोग में परिवर्तन हमेशा जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करते रहे हैं क्योंकि भूमि कार्बन के स्रोत के साथ-साथ कार्बन सिंक का भी कार्य करती है।
  • कृषि और पशुपालन जैसी गतिविधियाँ मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड के प्रमुख स्रोत हैं, ये दोनों गैसें ग्रीनहाउस गैस के रूप में कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में सैकड़ों गुना अधिक खतरनाक हैं।
  • वन, प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, जिससे समग्र वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा कम हो जाती है।
  • यही कारण है कि बड़े पैमाने पर भूमि उपयोग परिवर्तन, जैसे कि वनों की कटाई, शहरीकरण और यहाँ तक ​​कि फसल के पैटर्न में बदलाव का ग्रीनहाउस गैसों के समग्र उत्सर्जन पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

Carbon Cycle

भूमि, महासागर और जलवायु परिवर्तन:

  • कार्बन चक्र में प्राकृतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से भूमि और महासागर प्रत्येक वर्ष लगभग 50% ग्रीनहाउस गैसों को अवशोषित करते हैं।
  • कार्बन सिंक के रूप में भूमि और महासागरों का जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक प्रयासों में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
  • भारत की जलवायु परिवर्तन पर कार्य योजना में वन एक महत्त्वपूर्ण घटक है। भारत ने कहा है कि वह अपने वन आवरण को बढ़ाएगा और वर्ष 2032 तक 2.5 बिलियन से 3 बिलियन टन का अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाएगा।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:

  • इस रिपोर्ट में ग्रीनहाउस गैसों का वार्षिक उत्सर्जन का अनुमान लगभग 49 बिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साइड के लगाया गया है।
  • IPCC की रिपोर्ट के अनुसार, कृषि और वन कटाई जैसी गतिविधियों के लिये उपयोग की जाने वाली भूमि से वर्ष 2007 और 2016 के बीच वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा में काफी वृद्धि हुई।
  • इस प्रकार की गतिविधियाँ आर्द्रभूमि और प्राकृतिक वनों को भी नुकसान पहुँचा रही हैं।
  • अत्यधिक तापमान बढ़ोतरी से कुछ जानवरों की प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है।
  • अमेज़न के वर्षावनों की कटाई, आर्कटिक क्षेत्रों में पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने और दक्षिण अमेरिकी किसानों द्वारा अधिक नाइट्रोजन उर्वरकों का उपयोग करने से वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बढ़ रही है।
  • न्यूयॉर्क स्थित नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज़ ( Goddard Institute for Space Studies ) के अनुसार, रेड मीट की खपत से शाकाहारी आहारों की तुलना में ग्रीनहाउस गैस का ज़्यादा उत्सर्जन होता है।

जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा:

  • जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की पैदावार कम होने से खाद्यान्न समस्या उत्पन्न हो सकती है, साथ ही भूमि निम्नीकरण जैसी समस्याएँ भी सामने आ सकती हैं।
  • एशिया और अफ्रीका पहले से ही आयातित खाद्य पदार्थों पर निर्भर हैं। ये क्षेत्र तेज़ी से बढ़ते तापमान के कारण सूखे की चपेट में आ सकते हैं।
  • रिपोर्ट के अनुसार, कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में गेहूँ और मकई जैसी फसलों की पैदावार में पहले से ही गिरावट देखी जा रही है।
  • वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ने से फसलों की पोषण गुणवत्ता में कमी आ रही है। उदाहरण के लिये उच्च कार्बन वातावरण के कारण गेहूँ की पौष्टिकता में प्रोटीन का 6 से 13%, जस्ते का 4 से 7% और लोहे का 5 से 8% तक की कमी आ रही है।
  • यूरोप में गर्मी लहर की वजह से फसल की पैदावार गिर रही है।
  • ब्लूमबर्ग एग्रीकल्चर स्पॉट इंडेक्स ( Bloomberg Agriculture Spot Index ) 9 फसलों का एक मूल्य मापक है जो मई में एक दशक के सबसे निचले स्तर पर आ गया था। इस सूचकांक की अस्थिरता खाद्यान सुरक्षा की अस्थिरता को प्रदर्शित करती है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू

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