भारतीय राजव्यवस्था
भारतीय संघवाद और उभरती चुनौतियाँ
- 01 Oct 2020
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प्रिलिम्स के लिये:एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994), अंतर्राज्यीय परिषद मेन्स के लिये: भारतीय संघवाद और उभरती चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के कई राज्यों ने भारतीय संघवाद को लेकर बढ़ते संकट के बारे में शिकायत की है। उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेशों एवं विधेयकों के बारे में तर्क दिया है कि ये अध्यादेश एवं विधेयक उनके कानूनी दायरे का अतिक्रमण करते हैं जो संविधान के संघीय ढाँचे के लिये एक संकट की स्थिति उत्पन्न करते हैं।
प्रमुख बिंदु:
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भारतीय राज्यों द्वारा उठाए गए संघीय मुद्दे:
- वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के कम राजस्व की भरपाई के लिये अपनी कानूनी प्रतिबद्धता से केंद्र सरकार द्वारा मना किया जाना।
- केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि कम राजस्व ‘एक्ट ऑफ गॉड’ का परिणाम है जिसके लिये उसे ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।
- जीएसटी अधिनियम के अनुसार, राज्यों को वर्ष 2022 तक समाप्त होने वाले पहले पाँच वर्षों के लिये 14% वृद्धि (आधार वर्ष 2015-16) से नीचे किसी भी राजस्व कमी के लिये क्षतिपूर्ति की गारंटी दी जाती है।
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राज्य सरकार की शक्तियों में केंद्र सरकार द्वारा परिवर्तन:
- हालिया कृषि अधिनियमों जो किसानों को कृषि उपज बाज़ार समिति (Agricultural Produce Market Committee- APMC) के बाहर अपनी उपज बेचने की अनुमति देते हैं और अंतर-राज्य व्यापार को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखते हैं, ने राज्य सूची का अतिक्रमण किया है।
- भारतीय संविधान की समवर्ती सूची की प्रविष्टि 33 में व्यापार एवं वाणिज्य, उत्पादन, एक उद्योग के घरेलू एवं आयातित उत्पादों की आपूर्ति एवं वितरण, तिलहन एवं तेल सहित खाद्य पदार्थ, पशुओं का चारा, कच्चा कपास एवं जूट का उल्लेख किया गया है।
- हालाँकि यदि खाद्य पदार्थों को कृषि का पर्याय माना जाता है तो कृषि के संबंध में राज्यों की सभी शक्तियाँ, जो संविधान में विस्तृत रूप से सूचीबद्ध हैं, निरर्थक हो जाएंगी।
- संसद संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत कृषि उपज एवं बाज़ारों के संबंध में एक कानून नहीं बना सकती है क्योंकि कृषि एवं बाज़ार राज्य के विषय हैं।
- भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की निगरानी में सहकारी बैंकों को लाकर बैंकिंग नियमों में संशोधन किया जाना।
- सहकारी समितियाँ भारतीय संविधान में राज्य सूची के अंतर्गत आती हैं अर्थात् भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की द्वितीय सूची में।
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संघवाद से संबंधित प्रावधान:
- राष्ट्रों को 'संघीय' या 'एकात्मक' के रूप में वर्णित किया जाता है जिसके तहत शासन का क्रियान्वयन किया जाता है।
- ‘संघवाद’ का अनिवार्य रूप से अर्थ है कि केंद्र एवं राज्यों दोनों को एक दूसरे के साथ समन्वय से अपने आवंटित क्षेत्रों में कार्य करने की स्वतंत्रता है।
- ‘एकात्मक’ प्रणाली में सरकार की सभी शक्तियाँ केंद्र सरकार में केंद्रीकृत होती हैं।
- पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ (1962) में उच्चतम न्यायालय ने माना कि भारतीय संविधान संघीय नहीं है।
- हालाँकि एस आर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में उच्चतम न्यायालय के 9 न्यायाधीशों की पीठ ने संघवाद को भारतीय संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा माना है।
- इसमें कहा गया है कि सातवीं अनुसूची में न तो विधायी प्रविष्टियाँ हैं और न ही संघ द्वारा राजकोषीय नियंत्रण जो संविधान के एकात्मक होने का निर्णायक है। राज्यों एवं केंद्र की संबंधित विधायी शक्तियों का अनुच्छेद 245 से 254 तक अनुरेखण किया जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने देखा कि भारतीय संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका से काफी भिन्न है। भारतीय संसद के पास नए राज्यों के प्रवेश की अनुमति देने (अनुच्छेद 2), नए राज्य बनाने, उनकी सीमाओं एवं उनके नामों में परिवर्तन करने और राज्यों को मिलाने या विभाजित करने की शक्ति है (अनुच्छेद 3)।
- हाल ही में जम्मू एवं कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में परिवर्तित किया गया- जम्मू एवं कश्मीर व लद्दाख।
- राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों के गठन एवं उनके निर्माण के लिये राज्यों की सहमति की आवश्यकता नहीं है।
- इसके अलावा उच्चतम न्यायालय ने संविधान के कई प्रावधानों की मौजूदगी पर ध्यान दिया जो केंद्र को राज्यों की शक्तियों को अधिभावी या रद्द करने की अनुमति देते हैं जैसे- समवर्ती सूची के विषय पर कानून बनाना।
- भले ही राज्य अपने निर्धारित विधायी क्षेत्र में संप्रभु हैं और उनकी कार्यकारी शक्ति उनकी विधायी शक्तियों के साथ सह-व्यापक हैं किंतु यह स्पष्ट है कि राज्यों की शक्तियों का संघ के साथ समन्वय नहीं है। यही कारण है कि भारतीय संविधान को अक्सर 'अर्द्ध-संघीय' रूप में वर्णित किया जाता है।
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विवाद का समाधान:
- उच्चतम न्यायालय ने केंद्र एवं राज्यों के बीच सातवीं अनुसूची में प्रवेश सूची को लेकर विवाद को सुलझाने के लिये दो तंत्रों का उपयोग किया है।
- तत्त्व एवं सार का सिद्धांत (Doctrine of Pith and Substance)
- छद्म विधान का सिद्धांत (Doctrine of Colourable Legislation)
- ‘तत्त्व एवं सार के सिद्धांत’ के तहत कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखा जाता है यदि यह विस्तारित रूप से एक सूची द्वारा कवर किया जाता है और दूसरी सूची को केवल आकस्मिक रूप से स्पर्श करता है।
- यह सिद्धांत एक क़ानून की वास्तविक प्रकृति का पता लगाने से संबंधित है।
- छद्म विधान का सिद्धांत एक अधिनियमित कानून के खिलाफ विधायिका की क्षमता का परीक्षण करता है। यह सिद्धांत इस तथ्य को दर्शाता है कि जो प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता है, वह अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं किया जा सकता है।
- यह सिद्धांत विधायिका की शक्ति के भटकाव को एक प्रच्छन्न, गुप्त या अप्रत्यक्ष तरीके से प्रतिबंधित करता है।
- उच्चतम न्यायालय ने केंद्र एवं राज्यों के बीच सातवीं अनुसूची में प्रवेश सूची को लेकर विवाद को सुलझाने के लिये दो तंत्रों का उपयोग किया है।
आगे की राह:
- भारत जैसे विविध एवं बड़े देश को संघवाद के स्तंभों अर्थात् राज्यों की स्वायत्तता, राष्ट्रीय एकीकरण, केंद्रीकरण, विकेंद्रीकरण, राष्ट्रीयकरण एवं क्षेत्रीयकरण के बीच एक उचित संतुलन की आवश्यकता है।
- अधिकतम राजनीतिक केंद्रीकरण या अव्यवस्थित राजनीतिक विकेंद्रीकरण दोनों ही भारतीय संघवाद के कमज़ोर होने का कारण बन सकते हैं।
- संस्थागत एवं राजनीतिक स्तर पर सुधार भारत में संघवाद की जड़ों को गहरा कर सकते हैं। जैसे-
- केंद्र सरकार की इच्छा के अनुरूप राज्यों पर दबाव बनाने के लिये राज्यपाल की विवादास्पद भूमिका की समीक्षा करने की आवश्यकता है।
- विवादास्पद नीतिगत मुद्दों पर केंद्र एवं राज्यों के बीच राजनीतिक सद्भाव विकसित करने के लिये अंतर्राज्यीय परिषद के संस्थागत तंत्र का उचित उपयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
- केंद्र की हिस्सेदारी कम किये बिना राज्यों की राजकोषीय क्षमता के क्रमिक विस्तार को कानूनी रूप से सुनिश्चित किया जाना चाहिये।