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डेली न्यूज़

भारतीय राजव्यवस्था

चुनाव मुफ्त

  • 27 Jan 2022
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये:

चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश 1968।

मेन्स के लिये:

फ्रीबीज के पक्ष में तर्क, अर्थव्यवस्था पर फ्रीबीज का प्रभाव।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय  में एक याचिका दायर की गई है जिसमें भारत के चुनाव आयोग ( Election Commission of India-ECI) द्वारा चुनाव चिह्न को ज़ब्त करने या चुनाव से पहले सार्वजनिक धन से "तर्कहीन मुफ्त (irrational freebies)" का वादा करने या वितरित करने वाले राजनीतिक दल को अपंजीकृत करने का निर्देश देने की मांग की गई है।

  • याचिका में यह तर्क दिया गया है कि राजनीतिक दलों द्वारा हाल ही में चुनावों को ध्यान में रखते हुए मुफ्त उपहार देकर मतदाताओं को प्रभावित करने की प्रवृत्ति न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के अस्तित्त्व के लिये सबसे बड़ा खतरा है बल्कि संविधान की भावना को भी चोट पहुँचाती है।

प्रमुख बिंदु

  • भारतीय राजनीति में मुफ्त (Freebies) के बारे में:
    • राजनीतिक दल लोगों के वोट को सुरक्षित करने के लिये मुफ्त बिज़ली / पानी की आपूर्ति, बेरोज़गारों, दैनिक वेतनभोगी श्रमिकों एवं महिलाओं, लैपटॉप, स्मार्टफोन जैसे गैजेट आदि को देने का वादा करते हैं।
  • याचिका के बारे में:
    • याचिकाकर्त्ता का कहना है कि तर्कहीन मुफ्त के मनमाने वादे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हेतु चुनाव आयोग के जनादेश का उल्लंघन करते हैं।
    • निजी वस्तुओं-सेवाओं का वितरण जो सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये नहीं हैं, सार्वजनिक धन से संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), 162 (राज्य की कार्यकारी शक्ति), 266 (3) (भारत की संचित निधि से व्यय) और 282 (विवेकाधीन अनुदान) का स्पष्ट रूप से उल्लंघन करता है।
    • याचिका में सर्वोच्च न्ययालय से इस संबंध में एक कानून बनाने के लिये संघ को निर्देश देने की भी मांग की गई है।
    • इसने चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के प्रासंगिक पैराग्राफ में एक अतिरिक्त शर्त जोड़ने के लिये चुनाव आयोग को निर्देश देने की मांग की।
      • यह एक राज्य पार्टी के रूप में मान्यता हेतु शर्तों से संबंधित है कि "राजनीतिक दल चुनाव से पहले सार्वजनिक निधि से तर्कहीन मुफ्त का वादा / वितरण नहीं करेगा"।
  • मुफ्त उपहारों/वादों के पक्ष में तर्क: 
    • अपेक्षाओं को पूरा करने हेतु आवश्यक: भारत जैसे देश में जहांँ राज्यों में विकास का एक निश्चित स्तर है (या नहीं है), चुनावों के उद्भव पर लोगों की ओर से ऐसी उम्मीदें होती हैं जो मुफ्त के ऐसे वादों से पूरी होती हैं। 
      • इसके अलावा जब आस-पास के अन्य राज्यों के लोगों (विभिन्न सत्तारूढ़ दलों के साथ) को मुफ्त उपहार वितरित किये जाते हैं तो तुलनात्मक अपेक्षाएंँ भी उत्पन्न होती हैं।
    • कम विकसित राज्यों के लिये सहायक: गरीबी से पीड़ित आबादी के एक बड़े हिस्से के साथ तुलनात्मक रूप से निम्न स्तर के विकास वाले राज्यों के लिये इस तरह के मुफ्त उपहार  आवश्यकता/मांग-आधारित हो जाते हैं और लोगों को अपने स्वयं के उत्थान हेतु इस तरह की सब्सिडी की पेशकश करना आवश्यक हो जाता है। 
  • मुफ्त उपहारों से संबंधित मुद्दे:
    • आर्थिक भार: यह राज्य के साथ-साथ केंद्र के खजाने पर भारी आर्थिक बोझ डालता है।
    • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के विरुद्ध: चुनाव से पहले सार्वजनिक धन से अतार्किक मुफ्त का वादा मतदाताओं को अनुचित रूप से प्रभावित करता है तथा चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता को बाधित करता है।
      • यह एक अनैतिक प्रथा है जो मतदाताओं को रिश्वत देने के समान है।
    • समानता के सिद्धांत के विपरीत: चुनाव से पहले सार्वजनिक धन से निजी वस्तुओं या सेवाओं का वितरण, जो सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये नहीं है, संविधान के कई अनुच्छेदों का उल्लंघन करता है, जिसमें अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) शामिल है।
  • सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: वर्ष 2013 के एस सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अवास्तविक चुनावी वादे और मुफ्त उपहार एक गंभीर मुद्दा है जो चुनाव में समान अवसर प्रदान करने की भावना का उलंघन करता है।
    • न्यायालय ने यह भी माना कि चुनावी घोषणा पत्र में वादों को जनप्रतिनिधित्व कानून या किसी अन्य प्रचलित कानून के तहत "भ्रष्ट आचरण" के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है इसलिये  जब सत्ताधारी पार्टी राज्य विधानसभा में विनियोग अधिनियम पारित करके इस उद्देश्य हेतु सार्वजनिक धन का उपयोग करती है तो मुफ्त वितरण को रोकना संभव नहीं है। 
    • न्यायालय ने कहा कि वर्तमान ऐसा कोई अधिनियम नहीं है, जो चुनाव घोषणापत्र को प्रत्यक्ष तौर पर नियंत्रित करता हो और साथ ही न्यायालय ने चुनाव आयोग को सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के परामर्श से इस संबंध में दिशा-निर्देश तैयार करने का निर्देश दिया है।

आगे की राह

  • बेहतर नीतिगत पहुँच: विभिन्न राजनीतिक दल, जिन आर्थिक नीतियों या विकास मॉडलों को अपनाने की योजना बना रहे हैं, उन्हें स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिये और प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिये।
    • इसके अलावा विभिन्न दलों में ऐसी नीतियों के आर्थिक प्रभाव की उचित समझ विकसित करनी चाहिये।
  • विवेकपूर्ण मांग-आधारित मुफ्त सुविधाएँ: भारत एक बड़ा देश है और अभी भी ऐसे लोगों का एक बड़ा समूह है जो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करते हैं।
    • देश की विकास योजना में सभी लोगों को शामिल करना भी ज़रूरी है।
    • मुफ्त या सब्सिडी की विवेकपूर्ण पेशकश, जिसे राज्यों के बजट में आसानी से समायोजित किया जा सकता है, ज़्यादा नुकसानदायक नहीं होगी और इसका लाभ आसानी से लोगों तक पहुँच सकेगा।
  • ‘सब्सिडी’ और ‘मुफ्त’ के बीच अंतर को स्पष्ट करना: आर्थिक रूप से ‘मुफ्त वितरण’ के प्रभावों को समझने और इसे करदाताओं के पैसे से जोड़ने की ज़रूरत है।
    • ‘सब्सिडी’ और ‘मुफ्त’ के बीच अंतर किया जाना आवश्यक है, क्योंकि सब्सिडी उचित और विशेष रूप से लक्षित लाभ है, जो मांगों से उत्पन्न होती है।
  • लोगों के बीच जागरूकता पैदा करना: लोगों को यह महसूस कराना चाहिये कि वे अपने वोट बर्बाद करके क्या गलती करते हैं। यदि वे विरोध नहीं करते हैं, तो वे अच्छे नेताओं की अपेक्षा नहीं कर सकते।

स्रोत: द हिंदू

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