ध्यान दें:

एडिटोरियल

  • 14 Jun, 2021
  • 13 min read
भारतीय राजव्यवस्था

राजद्रोह कानून

यह एडिटोरियल दिनांक 12/06/2021 को 'द इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित लेख “Why the sedition law must go” पर आधारित है। इसमें राजद्रोह से जुड़े मुद्दों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एक वरिष्ठ पत्रकार के खिलाफ राजद्रोह के आरोपों को खारिज़ कर दिया। नागरिक समाज ने राजद्रोह के मामलों की बढ़ती संख्या के विरोध में इस फैसले का उत्साहजनक रूप से स्वागत किया।

  • राजद्रोह के मामलों की बढ़ती संख्या सरकार की असहमति और आलोचना के प्रति दमनकारी दृष्टिकोण को दर्शाती है।
  • इसके अलावा, फ्रीडम हाउस (फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2021: डेमोक्रेसी अंडर सीज) की एक रिपोर्ट ने भारत की स्थिति को एक स्वतंत्र देश से आंशिक रूप से स्वतंत्र देश कर दिया। पतन के कारणों में से एक असंतुष्टि के खिलाफ राजद्रोह के मामलों में वृद्धि है।
  • चूंकि राजद्रोह कानून का इस्तेमाल अक्सर लोकतंत्र का गला घोंटने के लिये किया जाता है, अतः इसे क़ानून से हटा दिया जाना चाहिये।

राजद्रोह कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

  • 17वीं शताब्दी के इंग्लैंड में राजद्रोह कानून बनाए गए थे, जब सांसदों का मानना था कि सरकार के बारे में अच्छी राय ही बनी रहनी चाहिये क्योंकि बुरी राय सरकार और राजशाही के लिये हानिकारक थी।
  • इस तर्क एवं कानून को अंग्रेजों ने वर्ष 1870 में आईपीसी की धारा 124 A में शामिल किया गया था।
  • अंग्रेजों ने स्वतंत्रता सेनानियों को दोषी ठहराने और सजा देने के लिये राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया। इसका इस्तेमाल पहली बार 1897 में बाल गंगाधर तिलक पर मुकदमा चलाने के लिये किया गया था।
  • महात्मा गांधी पर भी बाद में यंग इंडिया में उनके लेखों के लिये राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया था।

राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता:

  • उचित प्रतिबंध: भारत का संविधान उचित प्रतिबंध (अनुच्छेद 19(2) के तहत) निर्धारित करता है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रति ज़िम्मेदार अभ्यास को सुनिश्चित करता है साथ ही यह भी सुनिश्चित करता है कि यह सभी नागरिकों के लिये समान रूप से उपलब्ध है।
  • एकता और अखंडता बनाए रखना: राजद्रोह कानून सरकार को राष्ट्र-विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों का मुकाबला करने में मदद करता है।

नोट

भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत उचित प्रतिबंधों का उल्लेख किया गया है अर्थात भारत की संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखना, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता या अदालत की अवमानना, मानहानि के संबंध में या किसी अपराध के लिये उकसाना।

  • राज्य की स्थिरता बनाए रखना: यह चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाने में मदद करता है। कानून द्वारा स्थापित सरकार का निरंतर अस्तित्व राज्य की स्थिरता के लिये एक अनिवार्य शर्त है।

राजद्रोह से जुड़े चर्चित मुद्दे

महारानी बनाम बाल गंगाधर तिलक- 1897

  • शायद इतिहास में राजद्रोह के सबसे प्रसिद्ध मामले औपनिवेशिक शासन के खिलाफ हमारे देश के स्वतंत्रता सेनानियों के ही रहे हैं। भारत की स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक बाल गंगाधर तिलक पर दो बार राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। सर्वप्रथम वर्ष 1897 में जब उनके एक भाषण ने कथित तौर पर अन्य लोगों को हिंसक व्यवहार के लिये उकसाया और जिसके परिणामस्वरूप दो ब्रिटिश अधिकारियों की मौत हो गई। इसके बाद वर्ष 1909 में जब उन्होंने अपने अखबार केसरी में एक सरकार विरोधी लेख लिखा।

केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य- 1962

  • यह मामला स्वतंत्र भारत की किसी अदालत में राजद्रोह का पहला मुकदमा था। इस मामले में पहली बार देश में राजद्रोह के कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई और मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने देश और देश की सरकार के मध्य के अंतर को भी स्पष्ट किया। बिहार में फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदार नाथ सिंह पर तत्कालीन सत्ताधारी सरकार की निंदा करने और क्रांति का आह्वान करने हेतु भाषण देने का आरोप लगाया गया था। इस मामले में अदालत ने स्पष्ट कहा था कि किसी भी परिस्थिति में सरकार की आलोचना करना राजद्रोह के तहत नहीं गिना जाएगा।

असीम त्रिवेदी बनाम महाराष्ट्र राज्य- 2012

  • विवादास्पद राजनीतिक कार्टूनिस्ट और कार्यकर्त्ता, असीम त्रिवेदी जो अपने भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान (कार्टून्स अगेंस्ट करप्शन) के लिये सबसे ज़्यादा जाने जाते हैं, को वर्ष 2010 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उनके कई सहयोगियों का मानना था कि असीम त्रिवेदी पर राजद्रोह का आरोप भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान के कारण ही लगाया गया है।

राजद्रोह कानून के आलोचनात्मक बिंदु:

  • औपनिवेशिक युग के अवशेष: औपनिवेशिक प्रशासकों ने ब्रिटिश नीतियों की आलोचना करने वाले लोगों को रोकने के लिये राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया।
    • लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह आदि जैसे स्वतंत्रता आंदोलन के दिग्गजों को ब्रिटिश शासन के तहत उनके "राजद्रोही" भाषणों, लेखन और गतिविधियों के लिये दोषी ठहराया गया था।
    • इस प्रकार राजद्रोह कानून का इतना व्यापक उपयोग औपनिवेशिक युग को याद करता है।
  • संविधान सभा का स्टैंड: संविधान सभा संविधान में राजद्रोह को शामिल करने के लिये सहमत नहीं थी। सदस्यों का तर्क था कि यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करेगा।
    • उन्होंने तर्क दिया कि लोगों के विरोध के वैध और संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार को दबाने के लिये राजद्रोह कानून को एक हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
  • सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवहेलना: केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल "अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी, या हिंसा के लिये उकसाने वाले कृत्यों" के लिये राजद्रोह का सीमित उपयोग किया जाना चाहिये।
    • इस प्रकार, शिक्षाविदों, वकीलों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं और छात्रों के खिलाफ राजद्रोह का आरोप लगाना सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना है।
  • प्रजातांत्रिक मूल्यों का दमन: मुख्य रूप से राजद्रोह कानून के कठोर और गणनात्मक उपयोग के कारण विश्व पटल पर भारत को एक निर्वाचित निरंकुशता के रूप में वर्णित किया जा रहा है। 

वर्तमान में राजद्रोह कानून की स्थिति: भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के तहत राजद्रोह एक अपराध है।

धारा 124A IPC:

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के अनुसार, राजद्रोह एक प्रकार का अपराध है। इस कानून में राजद्रोह के अंतर्गत भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में घृणा या अवमानना या उत्तेजना पैदा करने के प्रयत्न को शामिल किया जाता है।
  • विद्रोह में वैमनस्य और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल होती हैं। हालाँकि इस खंड के तहत घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किये बिना की गई टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।

राजद्रोह के लिये दंड:

  • राजद्रोह गैर-जमानती अपराध है। राजद्रोह के अपराध में तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है और इसके साथ ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
  • इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी करने से रोका जा सकता है।
  • आरोपित व्यक्ति को पासपोर्ट के बिना रहना होगा, साथ ही आवश्यकता पड़ने पर उसे अदालत में पेश होना ज़रूरी है।

आगे की राह

  • राजद्रोह कानून को समाप्त करना: भारत के लिये बाहरी और आंतरिक खतरों से निपटने के लिये हमारे देश में पर्याप्त कानून हैं और राजद्रोह कानून को जारी रखने की कोई आवश्यकता नहीं है।
    • अतः राजद्रोह कानून को इस आधार पर समाप्त करने की आवश्यकता है कि इसका उपयोग भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिये किया जाता है।
  • न्यायपालिका की भूमिका: जब तक संसद द्वारा राजद्रोह कानून को समाप्त नहीं किया जाता है, तब तक उच्च न्यायपालिका को अपनी पर्यवेक्षी शक्तियों का उपयोग मजिस्ट्रेट और पुलिस को स्वतंत्र भाषण की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के प्रति संवेदनशील बनाने के लिये करना चाहिये।
    • इसके अलावा राजद्रोह कानून के अति प्रयोग से बचने के लिये, उच्च न्यायपालिका राजद्रोह की परिभाषा को सीमित कर सकती है। इसमें केवल भारत की क्षेत्रीय अखंडता एवं देश की संप्रभुता से संबंधित मुद्दों को शामिल किया जा सकता है।
  • नागरिक समाज में जागरूकता बढ़ाना: नागरिक समाज को राजद्रोह कानून के मनमाने उपयोग के बारे में जागरूकता बढ़ाने का बीड़ा उठाना चाहिये।

निष्कर्ष

अब जब सर्वोच्च न्यायालय ने एक पत्रकार पर लगे राजद्रोह के आरोपों को खारिज कर दिया है तो भारतीय नागरिकों को संविधान निर्माण के समय संविधान सभा के दृष्टिकोण को सामने रखते हुए राजद्रोह कानून को पूरी तरह से समाप्त करने की मांग करनी चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: राजद्रोह कानून को इस आधार पर समाप्त करने की जरूरत है कि इसका इस्तेमाल अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिये किया जाता है। चर्चा कीजिये।


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
PrevNext
June 2025
SuMoTuWeThFrSa
1234567
891011121314
15161718192021
22232425262728
2930