दृष्टि आईएएस अब इंदौर में भी! अधिक जानकारी के लिये संपर्क करें |   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

एडिटोरियल

  • 10 Aug, 2019
  • 20 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

शरणार्थी (रोहिंग्या) संकट एवं भारत की नीति

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस आलेख में शरणार्थी संकट, विशेष रूप से रोहिंग्या के संदर्भ में चर्चा की गई है, साथ ही इस मुद्दे पर भारतीय नीति को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

हाल में अमेरिका ने रोहिंग्या शरणार्थियों के मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप में म्याँमार के सैन्य बलों के कमांडर इन चीफ जनरल मिन आंग हलाइंग पर प्रतिबंध लगा दिया है। अमेरिका के अनुसार, म्याँमार के सैन्य बलों ने नियम-कानूनों और मानवाधिकारों को ताक पर रखकर रोहिंग्या शरणार्थियों की नृशंस हत्याएँ तथा अत्याचार को अंजाम दिया है। इसके अतिरिक्त म्याँमार सरकार ने रोहिंग्या मुसलमानों के साथ अत्याचार करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, बल्कि ऐसे लोगों को संरक्षण ही दिया है।

Myanman Rohingya crisis

रोहिंग्या- अवस्थिति एवं स्थिति

हाल में अमेरिका द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता पर अंतर्राष्ट्रीय मंत्रिस्तरीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में ही अमेरिका ने म्याँमार के सैन्य कमांडरों पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की। इस घोषणा के साथ ही अमेरिका प्रथम देश बन गया है जिसने सार्वजनिक स्तर पर म्याँमार सेना के अधिकारियों पर प्रतिबंध लगाया है। रोहिंग्या मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय के लोग हैं जो अधिकतर पश्चिमी म्याँमार के रखाइन प्रांत में रहते हैं। इस प्रांत की राजधानी सितवे है, यहीं पर भारत का विशेष आर्थिक क्षेत्र भी मौजूद है। रोहिंग्या आमतौर पर म्याँमार में बोली जाने वाली बर्मीज भाषा की जगह बंगाली भाषा की एक बोली बोलते हैं। हालाँकि ये रोहिंग्या म्याँमार में सदियों से रह रहे हैं लेकिन म्याँमार का मानना है कि रोहिंग्या म्याँमार में उपनिवेशीय शासन के दौरान आए थे। इस आधार पर म्याँमार सरकार ने रोहिंग्या समुदाय को अभी तक पूर्ण नागरिकता का दर्जा नहीं दिया है। बर्मा का नागरिकता कानून कहता है कि एक नृजातीय अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में रोहिंग्या समुदाय म्याँमार की नागरिकता पाने योग्य तभी होगा जब महिला या पुरुष रोहिंग्या इस बात का सबूत दें कि उनके पूर्वज म्याँमार में वर्ष 1823 के पहले निवास करते थे, अन्यथा उन्हें विदेशी निवासी या फिर सहवर्ती नागरिक (एसोसिएट सिटीज़न) माना जाएगा, भले ही उनके अभिभावकों में से कोई एक म्याँमार का नागरिक हो। चूँकि रोहिंग्या मुसलमानों को नागरिकता का दर्जा नहीं मिला है, साथ ही उन्हें बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा गया है। वे म्याँमार की प्रशासनिक सेवा के भी अंग नहीं बन सकते तथा भाषायी शोषण के शिकार हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल की हाल ही में जारी रिपोर्ट से म्याँमार में सैनिकों द्वारा किये गए जघन्यतम कृत्यों का बोध होता है जिसमें प्रमुख रूप से महिलाओं और बच्चों के साथ किये गए कृत्य शामिल हैं। इसके अतिरिक्त रखाइन प्रांत में रोहिंग्याओं की आवाजाही पर भी पाबंदी लगा दी गई है।

रोहिंग्याओं का इतिहास

आज रोहिंग्या मुद्दे पर म्याँमार, बांग्लादेश और भारत आमने-सामने क्यों हैं इसे जानने के लिये रोहिंग्या समुदाय के इतिहास पर प्रकाश डालना होगा। आठवीं शताब्दी में रोहिंग्या एक स्वतंत्र साम्राज्य अराकान में रहते थे, जिसे आज रखाइन कहा जाता है। नौवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच रोहिंग्या समुदाय अरब व्यापारियों के ज़रिये इस्लाम के संपर्क में आया और अराकान तथा बंगाल के बीच मज़बूत संबंध विकसित हुए। वर्ष 1784 में बर्मा (आधुनिक म्याँमार) के राजा ने स्वतंत्र अराकान पर कब्ज़ा कर लिया और हज़ारों शरणार्थी (जिन्हें आज रोहिंग्या कहा जाता है) बंगाल भाग गए। वर्ष 1790 में हिरम कॉक्स नामक ब्रिटिश राजनयिक को इन शरणार्थियों की मदद के लिये भेजा गया जिसने बांग्लादेश में कॉक्स बाज़ार शहर का निर्माण कराया। आज भी कॉक्स बाज़ार में बड़ी संख्या में रोहिंग्या शरणार्थी रहते हैं। कालांतर में ब्रिटेन ने बर्मा पर कब्ज़ा कर लिया और उसे म्याँमार के रूप में ब्रिटिश भारत का प्रांत बनाया। बर्मा से श्रमिकों ने ब्रिटिश भारत के कई भागों में काम-धंधे की तलाश में पलायन किया और इस तरह रोहिंग्या भारत से भी जुड़ गए। वर्ष 1942 में जापान ने बर्मा पर हमला किया और वहाँ से अंग्रेज़ों को निकाल दिया। अंग्रेज़ों द्वारा जवाबी कार्रवाई किये जाने पर बर्मा के राष्ट्रवादियों ने मुस्लिम समुदायों पर हमले शुरू कर दिये। नतीजा यह हुआ कि वर्ष 1948 में बर्मा की नई सरकार और रोहिंग्या लोगों के बीच तनाव बढ़ गया। बहुसंख्यक रोहिंग्याओं की मांग थी कि अराकान मुस्लिम बहुमत वाले पाकिस्तान में मिल जाए। इस पर बर्मा सरकार ने रोहिंग्या लोगों को देश निकाला दे दिया और सिविल सैनिक के रूप में नियुक्त रोहिंग्या बर्खास्त कर दिये गए। पचास के दशक में रोहिंग्या समुदाय ने मुजाहिद नामक सशस्त्र समूह के ज़रिये बर्मा सरकार का प्रतिकार करना शुरू किया। वर्ष 1962 में अंतत: जनरल नी विन सत्ता में आए और रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कठोर नीति अपनाई गई। वर्ष 1977 में बर्मा की सैन्य सरकार- जुंटा ने रोहिंग्या की आबादी और क्षेत्रों का पता लगाने के लिये कई बड़े अभियान छेड़े और दो लाख रोहिंग्या लोगों को बांग्लादेश भागना पड़ा। वर्ष 1989 में बर्मा का नाम बदल कर म्याँमार कर दिया गया। वर्ष 1991 में ढाई लाख रोहिंग्या लोगों को म्याँमार छोड़कर भागना पड़ा । बाद में बांग्लादेश के साथ एक प्रत्यावर्तन समझौते के ज़रिये वर्ष 1992 से 1997 के बीच दो लाख से ज़्यादा रोहिंग्या रखाइन क्षेत्र में पहुँचे। यहाँ आने के बाद इनका रखाइन के बौद्धों से संघर्ष शुरू हो गया। चूँकि ये मुसलमान थे और बौद्धों के अधिकारों के सामने मुसीबत के रूप में थे। वर्ष 2012 तथा वर्ष 2016 में बौद्धों एवं रोहिंग्याओं के मध्य बड़ी मात्रा में रक्तपात की घटनाएँ होती रही हैं, जिसमें रोहिंग्या के विरुद्ध सैनिकों ने भी बदले की कार्रवाई की । उपर्युक्त घटनाक्रम के कारण रोहिंग्या शरणार्थी मुद्दा प्रायः चर्चा का विषय बना रहता है।

रोहिंग्या के प्रति भारतीय दृष्टिकोण

भारत के गृह मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग चालीस हज़ार रोहिंग्या शरणार्थी रहते हैं। ये बांग्लादेश से भारत पहुँचे हैं। भारत सभी रोहिंग्या शरणार्थियों को अवैध प्रवासी मानता है और इन्हें इनके मूल देश वापस भेजने के लिये प्रभावी प्रत्यावर्तन समझौते की तलाश में है। आज दक्षिण एशिया में शरणार्थी संकट बढ़ता जा रहा है। ऐसे में यदि भारत ने रोहिंग्या का साथ दिया तो किसी-न-किसी रूप में उस पर तमिलों, मधेसियों, चकमा लोगों को भी सुरक्षा देने का दबाव बढ़ेगा। ऐसे में भारत के राष्ट्रीय हित प्रभावित होंगे। इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संधि,1951 पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। भारत अपनी आंतरिक सुरक्षा के प्रति सजग है। भारत ने असम में बड़ी संख्या में बांग्लादेश से आए चकमा शरणार्थियों और उनके द्वारा पैदा की जाने वाली चुनौतियों को काफी झेला है। रोहिंग्या के संदर्भ में सुरक्षा संबंध का एक अलग और बड़ा आयाम है। इस संकट के कारण तीन राष्ट्रों के हित प्रभावित हैं और द्विपक्षीय संबंधों में तनाव न उभरने देने के लिये यह ज़रूरी है कि भारत रोहिंग्या के प्रत्यावर्तन पर ठोस कदम उठाए। सवाल है कि रोहिंग्या कब तक परदेश में रहेंगे। भारत सरकार ने अगले पाँच वर्षों में ढाई करोड़ डॉलर के निवेश की प्रतिबद्धता के साथ हाल ही में म्याँमार में रोहिंग्या लोगों को ढाई सौ घर भी दिये हैं। भारत इस समस्या का समाधान इसी प्रकार के तरीकों से करना चाहता है।

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संधि,1951 एवं शरणार्थियों की स्थिति पर प्रोटोकॉल, 1967

(The Refugee Convention, 1951 and its Protocol, 1967)

  • इस संधि (1951) एवं प्रोटोकॉल (1967) पर कुल 145 देशों ने हस्ताक्षर किये हैं, साथ ही यह संधि संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वाधान में की गई है।
  • द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् उपजे शरणार्थी संकट के समाधान तलाशने के क्रम में इस संधि को अंजाम दिया गया। इसमें शरणार्थी की परिभाषा, उनके अधिकार तथा हस्ताक्षर कर्त्ता देश की शरणार्थियों के प्रति ज़िम्मेदारियों का भी प्रावधान किया गया है।
  • यह संधि जाति, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी विशेष सामाजिक समूह से संबद्धता, या प्रथक राजनीतिक विचारों के कारण उत्पीड़न तथा अपना देश छोड़ने को मजबूर लोगों के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करती है। किंतु ऐसे लोगों, जो युद्ध अपराध से संबंधित हैं अथवा आतंकवाद से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं आदि, को शरणार्थी के रूप में मान्यता नहीं देती है।
  • वर्ष 1948 की मानवाधिकारों पर सार्वभौम घोषणा (UDHR) के अनुच्छेद 14 से यह संधि प्रेरित है। UDHR किसी अन्य देश में पीड़ित व्यक्ति को शरण मांगने का अधिकार प्रदान करती है।
  • वर्ष 1967 का प्रोटोकॉल सभी देशों के शरणार्थियों को शामिल करता है, इससे पूर्व वर्ष 1951 में की गई संधि सिर्फ यूरोप के शरणार्थियों को ही शामिल करती थी। वर्तमान में ये संधि एवं प्रोटोकॉल शरणार्थियों के अधिकारों के संरक्षण के लिये प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इनके प्रावधान मौजूदा समय में भी उतने ही प्रासंगिक है जितने इनके गठन के वक्त थे।

शरणार्थी एवं प्रवासी के मध्य अंतर

शरणार्थी अपने देश में उत्पीड़न अथवा उत्पीड़ित होने के भय से भागने को मज़बूर होते हैं। जबकि प्रवासी का अपने देश से पलायन विभिन्न कारणों जैसे-रोज़गार, परिवार, शिक्षा आदि के कारण भी हो सकता है किंतु इसमें उत्पीड़न शामिल नहीं है। इसके अतिरिक्त प्रवासी को (चाहे अपने देश में हो अथवा अन्य देश में) को स्वयं के देश द्वारा विभिन्न प्रकार के संरक्षण का लाभ प्राप्त होता रहता है।

भारत इस संधि में शामिल क्यों नहीं?

भारत ने संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी संधि, 1951 तथा इसके वर्ष 1967 के प्रोटोकॉल पर भी हस्ताक्षर नहीं किये हैं। मौजूदा समय में भारत में 2 लाख से भी अधिक शरणार्थी हैं। इस प्रकार भारत कुछ उन बड़े देशों में शामिल है, जो इस संधि में शामिल नहीं हैं। इस संधि में 140 देश शामिल हैं। भारत के इस संधि में शामिल न होने के कारणों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है-

दक्षिण एशिया की सीमाएँ प्रमुख रूप से विखंडित हैं तथा इनके नियंत्रण के लिये सक्षम व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। यदि इस क्षेत्र में किसी प्रकार का मानव संघर्ष अथवा संकट की स्थिति उत्पन्न होती है तो बड़ी संख्या में शरणार्थियों का भारत की ओर प्रस्थान होगा। इस प्रकार की स्थिति प्रमुख रूप से दो समस्याओं को जन्म दे सकती हैं। प्रथम, इस क्षेत्र के संसाधन तथा बुनियादी ढाँचा इतना मज़बूत नहीं है कि अचानक बड़ी संख्या में शरणार्थियों को शरण दे सके। दूसरा, यह भारत की जनसांख्यिकीय को भी प्रभावित करेगा। ध्यान देने योग्य है कि भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में अशांति के लिये प्रमुख रूप से जनसांख्यिकीय में आया बदलाव ज़िम्मेदार है तथा इसके समाधान के रूप में ही असम में NRC को लागू किया जा रहा है।

कुछ विश्लेषकों के अनुसार, भारत का UNHCR (शरणार्थियों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र का प्रमुख संगठन) के साथ अतीत का अनुभव अच्छा नहीं रहा है, इसलिये भारत इस संगठन की नीतियों को संदेह की दृष्टि से देखता है। वर्ष 1971 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के घटनाक्रम, जिसके पश्चात् बांग्लादेश का निर्माण हुआ, में UNHCR की भूमिका भारत के संदर्भ में अच्छी नहीं थी, इससे बड़ी संख्या में बांग्लादेशी शरणार्थी भारत में ही रह गए। अब ये शरणार्थी भारत के असम, त्रिपुरा आदि क्षेत्रों में विभिन्न समस्याओं के प्रमुख कारण समझे जाते हैं।

भारत में शरणार्थी

एशिया में दुनिया के कुल विस्थापित लोगों की एक-तिहाई यानी दो करोड़ आबादी है। शरणार्थियों की सुरक्षा के मामले में भारत का एक अच्छा रिकॉर्ड रहा है। हालाँकि भारत संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी संधि, 1951 और इसके प्रोटोकॉल का हिस्सा नहीं है और भारत की कोई औपचारिक शरणार्थी नीति भी नहीं है, फिर भी संयुक्त राष्ट्र के उच्चायोग के मुताबिक, भारत में कुल दो लाख शरणार्थी हैं। इसमें एक लाख चीन से आए तिब्बती और 60,000 श्रीलंका से आए तमिल हैं। इसी के साथ भारत राजनीतिक कारणों से भी शरणार्थियों को आने की इज़ाज़त देता रहा है। उदाहरण के लिये 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को भारत ने अपने यहाँ आने की इजाज़त दी। इस युद्ध में भारत ने मुक्तिवाहिनी लड़ाकों को ट्रेनिंग और समर्थन भी दिया था। इसी युद्ध के बाद बांग्लादेश का जन्म हुआ था।

निष्कर्ष

शरणार्थी संकट विश्व के समक्ष पिछली एक शताब्दी का सबसे ज्वलंत मुद्दा रहा है। विभिन्न प्राकृतिक एवं मानवीय आपदाएँ जैसे- भूकंप, बाढ़, युद्ध, जलवायु परिवर्तन आदि के कारण पिछली एक शताब्दी में लोगों के विस्थापन की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। इनसे निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न प्रयास किये जाते रहे हैं जिसमें UNHCR तथा संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संधि आदि प्रमुख प्रयासों के रूप में गिने जा सकते हैं। मौजूदा वक्त में भी मध्य-पूर्व की अशांति, लेटिन अमेरिका में उपजा मानवीय संकट, दक्षिण एशिया का शरणार्थी संकट और प्रमुख रूप से रोहिंग्या संकट उत्पन्न हुए हैं। उपर्युक्त शरणार्थी संकटों ने विभिन्न देशों को प्रभावित किया है जिसमें भारत भी शामिल है। भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र इसी प्रकार की समस्या से जूझ रहा है। यद्यपि विभिन्न देशों में इससे संकट उत्पन्न हुए हैं किंतु शरणार्थियों की समस्याओं से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। भारत भी समय-समय पर शरणार्थियों को शरण देता रहा है किंतु भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या तथा संसाधनों की सीमितता इसे शरणार्थियों के लिये स्वागत की नीति अपनाने से रोकती है, साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में इसके कारण आंतरिक संघर्ष एवं सुरक्षा के लिये भी संकट उत्पन्न हुआ है। अतः उपर्युक्त विचार के अलोक में भारत शरणार्थियों को शरण देने के स्थान पर अन्य विकल्पों जैसे- आर्थिक सहायता, संबंधित देशों की स्थिति में सुधार आदि पर विचार कर सकता है।

प्रश्न: पिछले एक दशक में विश्व में शरणार्थी संकट अधिक तीव्र हुआ है, इसके समाधान के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न प्रयास किये गए हैं। शरणार्थी संकट, विशेष रूप से रोहिंग्या के संदर्भ में भारत की नीति का मूल्यांकन कीजिये।


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow