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  • 09 Mar, 2020
  • 16 min read
भारतीय समाज

सांप्रदायिक हिंसा: कारण और समाधान

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में सांप्रदायिकता की अवधारणा और सांप्रदायिक हिंसा के कारणों तथा समाधान पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

भारत मूलतः विविधताओं का देश है, विविधताओं में एकता ही यहाँ की सामासिक संस्कृति की स्वर्णिम गरिमा को आधार प्रदान करती है। वैदिक काल से ही सामासिक संस्कृति में अंतर और बाह्य विचारों का अंतर्वेशन ही यहाँ की विशेषता रही है, इसलिये किसी भी सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात करना भारत में सुलभ और संप्राप्य है। इसी परिप्रेक्ष्य में धार्मिक सहचार्यता भी इन्हीं विशेषताओं में से एक रही है, इसका अप्रतिम उदाहरण सूफीवाद में देखा जा सकता है जहाँ पर इस्लामिक एकेश्वरवाद और भारतीय धर्मों की कुछ विशेषताओं का स्वर्णिम संयोजन हुआ तथा परिणामस्वरूप एक संश्लेषित धार्मिक वैचारिकता का सफल अनुगमन हुआ किंतु हाल के वर्षों में भारत की सांस्कृतिक विविधता- सांस्कृतिक विषमता में अंतरित हो रही है जिससे लोगों के मध्य सद्भाव में ह्रास के साथ ही सांस्कृतिक विशेषता पर भी नकारात्मक प्रभाव भी पड़ रहा है।

सांप्रदायिकता का अर्थ

  • व्यापक अर्थ में सांप्रदायिकता का अर्थ एक व्यक्ति का अपने समुदाय के प्रति मज़बूत लगाव से होता है। सांप्रदायिकता एक विचारधारा है जिसके अनुसार कोई समाज भिन्न-भिन्न हितों से युक्त विभिन्न धार्मिक समुदायों में विभाजित होता है।
  • सरल शब्दों में कहें तो सांप्रदायिकता का तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृत्ति से है, जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर संपूर्ण समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरुद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्त्व देती है।
  • विद्वानों का मत है कि सांप्रदायिकता भारत के राष्ट्रीय एकीकरण की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है, क्योंकि यह विचारधारा अन्य समुदायों के विरुद्ध अपने समुदाय की आवश्यक एकता पर ज़ोर देती है।
  • इस प्रकार सांप्रदायिकता रूढ़िवादी सिद्धांतों में विश्वास, असहिष्णुता और अन्य धर्मों के प्रति नफरत को बढ़ावा देती है, जो कि समाज को विभाजन की ओर अग्रसर करता है।

भारत में सांप्रदायिकता

  • एक राजनीतिक दर्शन के रूप में सांप्रदायिकता की जड़ें भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता में मौजूद हैं।
  • भारत में सांप्रदायिकता का प्रयोग सदैव ही धार्मिक और जातीय पहचान के आधार पर समुदायों के बीच सांप्रदायिक घृणा और हिंसा के आधार पर विभाजन, मतभेद और तनाव पैदा करने के लिये एक राजनीतिक प्रचार उपकरण के रूप में किया गया है।
  • प्राचीन भारतीय समाज में विभिन्न धर्मों के लोग शांतिपूर्वक एक साथ रहते थे। बुद्ध संभवतः पहले भारतीय थे जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा प्रस्तुत की।
  • इस बीच अशोक जैसे राजाओं ने शांति और धार्मिक सहिष्णुता की नीति का पालन किया।
  • मध्यकालीन भारत में इस्लाम के आगमन के साथ ही महमूद गज़नवी द्वारा हिंदू मंदिरों के विनाश जैसी घटनाएँ सामने आने लगीं।
  • हालाँकि उस समय धर्म लोगों के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा था, किंतु कोई सांप्रदायिक विचारधारा या सांप्रदायिक राजनीति नहीं थी।
  • अकबर और शेरशाह सूरी जैसे शासकों ने देश भर में प्रचलित विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं के प्रति सहिष्णु धार्मिक नीति का पालन किया। हालाँकि औरंगज़ेब जैसे शासक कुछ संप्रदायों व अन्य धार्मिक प्रथाओं के प्रति कम सहिष्णु थे।

भारत में सांप्रदायिक हिंसा की प्रमुख घटनाएँ

  • सांप्रदायिक हिंसा एक ऐसी घटना है जिसमें दो अलग-अलग धार्मिक समुदायों के लोग नफरत और दुश्मनी की भावना से लामबंद होते हैं और एक-दूसरे पर हमला करते हैं।
  • वर्ष 1949 में भारत के विभाजन ने बड़े पैमाने पर रक्तपात और हिंसा देखी। इसके पश्चात् वर्ष 1961 तक देश में कोई बड़ी सांप्रदायिक घटना नहीं हुई, किंतु वर्ष 1961 में ही जबलपुर दंगे हुए जो कि देश के लिये एक बड़ा सांप्रदायिक झटका था।
  • 1960 के दशक में विशेष रूप से भारत के पूर्वी भाग - राउरकेला (वर्ष 1964), जमशेदपुर (वर्ष 1965) और रांची (वर्ष 1967) में सांप्रदायिक दंगों की एक श्रृंखला शुरू हुई, जिनमें तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों को बसाया जा रहा था।
  • सितंबर 1969 में अहमदाबाद में हुए दंगों ने राष्ट्र की अंतरात्मा को हिलाकर रख दिया। इन दंगों का स्पष्ट कारण यह था कि जनसंघ, ​​इंदिरा गांधी के वामपंथी ज़ोर का विरोध करने के लिये मुसलमानों के भारतीयकरण पर एक प्रस्ताव पारित कर रहा था।
  • अप्रैल 1974 में मुंबई के वर्ली इलाके में जब मुंबई पुलिस ने दलित पैंथर्स की एक रैली को रोकने की कोशिश की तो वहाँ हिंसा शुरू हो गई, जिसने समय के साथ भीषण रूप धारण कर लिया।
  • अक्तूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात् सिख विरोधी दंगे भड़क उठे, जिसमें दिल्ली, उत्तर प्रदेश और भारत के अन्य हिस्सों में तकरीबन 4000 से अधिक सिख मारे गए।
  • 1985 में शाह बानो विवाद और बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद 80 के दशक में सांप्रदायिकता को तीव्र करने के लिये शक्तिशाली उपकरण बन गए।
  • दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद को दक्षिणपंथी दलों द्वारा ध्वस्त किये जाने के पश्चात् देश में सांप्रदायिक दंगे अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गए।
  • वर्ष 2002 में गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे में लगी आग में कई कार सेवकों की मौत हो गई, जिसके कारण देश में गुजरात दंगों की शुरुआत हुई और लगभग 1000 से अधिक लोग मारे गए।
  • सितंबर 2013 में उत्तर प्रदेश में हाल के इतिहास की सबसे भयानक हिंसक घटनाएँ दर्ज की गईं, जब मुज़फ्फरनगर ज़िले में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच मतभेद ने सांप्रदायिकता का रूप ले लिया।
  • वर्ष 2015 से देश में माॅब लिंचिंग (Mob Lynching) की घटनाएँ काफी तेज़ी से बढ़ी हैं और आँकड़ों के अनुसार इसके कारण अब तक 90 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है।
  • दिल्ली में हुए हालिया सांप्रदायिक दंगों ने एक बार पुनः देश में विभिन्न धर्मों के बीच गहराती जा रही खाई को उजागर किया है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के केंद्रबिंदु में हुए दंगों में 50 से अधिक लोग मारे गए हैं।

सांप्रदायिकता के कारण

  • सोशल मीडिया का प्रभाव
    देश में फेक न्यूज़ के तीव्र प्रसार से सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। सोशल मीडिया हिंसा के माध्यम से दंगों और हिंसा के ऑडियो-विज़ुअल का प्रसार काफी सुगम और तेज़ हो गया है। हिंसा से संबंधित ये अमानवीयता ग्राफिक चित्रण आम जनता में अन्य समुदायों के प्रति घृणा को और बढ़ा देते हैं।
  • मुख्यधारा की मीडिया की भूमिका
    पत्रकारिता की नैतिकता और तटस्थता का पालन करने के स्थान पर देश के अधिकांश मीडिया हाउस विशेष रूप से किसी-न-किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति झुके हुए दिखाई देते हैं, जो बदले में सामाजिक दरार को चौड़ा करता है।
  • राजनीतिक कारण
    वर्तमान समय में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अपने राजनीतिक लाभों की पूर्ति के लिये सांप्रदायिकता का सहारा लिया जाता है। एक प्रक्रिया के रूप में राजनीति का सांप्रदायीकरण भारत में सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ देश में सांप्रदायिक हिंसा की तीव्रता को बढ़ाता है।
  • मूल्य-आधारित शिक्षा का अभाव
    भारतीय लोगों में आमतौर पर मूल्य-आधारित शिक्षा का अभाव देखा जाता है, जिसके कारण वे बिना सोचे-समझे किसी की भी बातों में आ जाते हैं और अंधानुकरण करते हैं।
  • आर्थिक कारण
    विकास का असमान स्तर, वर्ग विभाजन, गरीबी और बेरोज़गारी आदि कारक सामान्य लोगों में असुरक्षा का भाव उत्पन्न करते हैं। असुरक्षा की भावना के चलते लोगों का सरकार पर विश्वास कम हो जाता है, परिणामस्वरूप अपनी ज़रूरतों/हितों को पूरा करने के लिये लोगों द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों, जिनका गठन सांप्रदायिक आधार पर हुआ है, का सहारा लिया जाता है।
  • मनोवैज्ञानिक कारण
    दो समुदायों के बीच विश्वास और आपसी समझ की कमी या एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के सदस्यों का उत्पीड़न आदि के कारण उनमें भय, शंका और खतरे का भाव उत्पन्न होता है। इस मनोवैज्ञानिक भय के कारण लोगों के बीच विवाद, एक-दूसरे के प्रति नफरत, क्रोध और भय का माहौल पैदा होता है।

सांप्रदायिक हिंसा का प्रभाव

  • सांप्रदायिक हिंसा के दौरान निर्दोष लोग अनियंत्रित परिस्थितियों में फँस जाते हैं, जिसके कारण व्यापक स्तर पर मानवाधिकारों का हनन होता है।
  • सांप्रदायिक हिंसा के कारण जानमाल का काफी अधिक नुकसान होता है।
  • सांप्रदायिक हिंसा वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है और सामाजिक सामंजस्य प्रभावित होता है। यह दीर्घावधि में सांप्रदायिक सद्भाव को गंभीर नुकसान पहुँचाती है।
  • सांप्रदायिक हिंसा धर्मनिरपेक्षता और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों को प्रभावित करती है।
  • सांप्रदायिक हिंसा में पीड़ित परिवारों को इसका सबसे अधिक खामियाज़ा भुगतना पड़ता है, उन्हें अपना घर, प्रियजनों यहाँ तक कि जीविका के साधनों से भी हाथ धोना पड़ता है।
  • सांप्रदायिकता देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये भी चुनौती प्रस्तुत करती है क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने वाले एवं उससे पीड़ित होने वाले दोनों ही पक्षों में देश के ही नागरिक शामिल होते हैं।

आगे की राह

  • सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये पुलिस को अच्छी तरह से सुसज्जित होने की आवश्यकता है। इस तरह की घटनाओं को रोकने हेतु स्थानीय खुफिया नेटवर्क को मज़बूत किया जा सकता है।
  • सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये शांति समितियों की स्थापना की जा सकती है जिसमें विभिन्न धार्मिक समुदायों से संबंधित व्यक्ति सद्भावना फैलाने और दंगा प्रभावित क्षेत्रों में भय तथा घृणा की भावनाओं को दूर करने के लिये एक साथ कार्य कर सकते हैं।
    • यह न केवल सांप्रदायिक तनाव बल्कि सांप्रदायिक दंगों को रोकने में भी मददगार साबित होगा।
  • देश के आम लोगों को मूल्य आधारित शिक्षा दी जानी चाहिये, ताकि वे आसानी से किसी की बातों में न आ सकें।
  • शांति, अहिंसा, करुणा, धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद के मूल्यों के साथ-साथ वैज्ञानिकता (एक मौलिक कर्त्तव्य के रूप में निहित) और तर्कसंगतता के आधार पर स्कूलों और कॉलेजों/विश्वविद्यालयों में बच्चों के उत्कृष्ट मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करने, मूल्य-उन्मुख शिक्षा पर ज़ोर देने की आवश्यकता है जो सांप्रदायिक भावनाओं को रोकने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।
  • मौजूदा आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार कर शीघ्र परीक्षणों और पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिये।
  • भारत सरकार द्वारा सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये वैश्विक स्तर पर मलेशिया जैसे देशों में प्रचलित अभ्यासों (Practices) का अनुसरण किया जा सकता है।
  • सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये मज़बूत कानून की आवश्यकता होती है। अत: सांप्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक, 2005 को मज़बूती के साथ लागू करने की आवश्यकता है।

प्रश्न: ‘सांप्रदायिकता भारत के राष्ट्रीय एकीकरण की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है।’ सांप्रदायिकता के कारणों पर चर्चा करते हुए कथन की विवेचना कीजिये।


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