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एडिटोरियल

  • 05 Aug, 2021
  • 11 min read
भारतीय राजनीति

सहकारिता मंत्रालय हेतु एजेंडा

यह एडिटोरियल दिनांक 04/08/2021 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित ‘‘An agenda for the ministry of cooperation’’ पर आधारित है। इसमें नवगठित सहकारिता मंत्रालय के समक्ष मौजूद चुनौतियों और उससे अपेक्षाओं की चर्चा की गई है।

यदि दक्षता से सहकारी संस्थाओं (Cooperative society) की पुनर्कल्पना और कार्यान्वयन किया जाए तो एक नैसर्गिक विचार तथा एक संगठनात्मक मंच के रूप में यह अत्यंत प्रासंगिक हैं।

सहकारिता के लिये एक अलग मंत्रालय के गठन की आवश्यकता को सहकारी क्षेत्र की अपार रूपांतरणकारी शक्ति के संदर्भ में समझा जाना चाहिये जिसे अब तक बेहतर तरीके से साकार नहीं किया गया है।  

नए मंत्रालय का उद्देश्य एक विधिक, प्रशासनिक और नीतिगत ढाँचे के निर्माण के साथ सहकारी संस्थाओं के लिये ‘कारोबार सुगमता’ (ease of doing business) की सुविधा प्रदान करना और ‘बहु-राज्य सहकारी संस्थाओं’ के विकास में सहायता करना है।     

बल इस बात पर दिया गया है कि सहकारी संस्थाओं को छोटे निकायों से बड़े उद्यमों में रूपांतरित किया जाए, जो समर्थकारी व्यवसायों से समर्थित होंगे ताकि प्रवेश और विकास बाधाओं की समस्या को संबोधित किया जा सके।

हालाँकि सहकारिता मंत्रालय को सहकारी संस्थाओं का अधिकाधिक लाभ उठा सकने के लिये अभी विभिन्न उपाय भी करने होंगे।

सहकारिता का महत्त्व

  • बाज़ार विकृतियों से कमज़ोर वर्गों की रक्षा: सहकारिता आवश्यक है क्योंकि बाज़ार कमज़ोर वर्गों की आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रख सकता है। सहकारी संस्थाओं को जहाँ भी सफलता मिली है, वहाँ उन्होंने बाज़ार विकृतियों (market distortions) को सफलतापूर्वक संबोधित किया है।  
    • इन संस्थाओं ने बिचौलियों/मध्यस्थों को हटाकर आपूर्ति श्रृंखला को सुगठित भी किया है, जहाँ उत्पादकों के लिये बेहतर मूल्य और उपभोक्ताओं के लिये प्रतिस्पर्द्धी दरें सुनिश्चित हुई हैं।
  • आपात बिक्री पर रोक: बुनियादी अवसंरचना और वित्तीय संसाधनों से लैस सहकारी समितियाँ आपात बिक्री को रोकती हैं और सौदेबाजी की शक्ति को संपुष्ट करती हैं। 
  • विकेंद्रीकृत विकास: उनमें विकेंद्रीकृत विकास के प्रतिमान को साकार करने की क्षमता होती है।  
    • जिस प्रकार पंचायती राज संस्थाएँ (PRI) विकेंद्रीकृत ग्रामीण विकास को आगे बढ़ाती हैं, उसी प्रकार सहकारी संस्थाएँ व्यावसायिक आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम बन सकती हैं।  
  • सफल व्यवसाय मॉडल: कम से कम दो क्षेत्रों—डेयरी और उर्वरक में सहकारी संस्थाएँ एक सफल व्यवसाय मॉडल की पुष्टि करती हैं।     
    • नैसर्गिक नेतृत्त्व, सदस्यों की भागीदारी, तकनीकी-प्रबंधकीय दक्षता, आकारिक मितव्ययिता, उत्पाद विविधीकरण, नवाचार की संस्कृति, ग्राहकों के प्रति प्रतिबद्धता और संवहनीय ब्रांड प्रचार ऐसे कुछ प्रमुख कारक हैं जो उनकी सफलता के लिये उत्तरदायी हैं।
    • इन अभ्यासों को अन्य क्षेत्रों में भी दोहराया जा सकता है।

सहकारी संस्थाओं के समक्ष विद्यमान चुनौतियाँ

  • कुप्रबंधन और हेरफेर: 
    • अधिक सदस्य संख्या वाली सहकारी संस्थाओं में यदि प्रबंधन के कुछ सुरक्षित उपायों को नियोजित नहीं किया जाता तो उनके कुप्रबधंन की समस्या उत्पन्न होती है।
    • शासी निकायों के चुनावों में धनबल इतना शक्तिशाली उपकरण बन गया है कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के शीर्ष पद आमतौर पर समृद्ध किसानों द्वारा हथिया लिये जाते हैं जो फिर अपने लाभ के लिये संगठन में हेरफेर करते हैं।
  • जागरुकता की कमी: 
    • लोगों में सहकारिता आंदोलन के उद्देश्यों, उसके नियमों-विनियमों के संबंध में जागरूकता की कमी है।
  • प्रतिबंधित दायरा: इनमें से अधिकांश समितियाँ सीमित सदस्यता रखती हैं और उनका परिचालन भी एक-दो गाँवों तक ही सीमित है।
  • कार्यात्मक अक्षमता: सहकारिता आंदोलन को प्रशिक्षित कर्मियों की अपर्याप्तता का सामना करना पड़ा है।

आगे की राह:

  • स्थानीय के साथ ही राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति करना: स्थानीय स्तर पर सहकारी समितियों को प्राथमिक क्षेत्र के सभी खंडों में अपने सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना जारी रखना चाहिये। 
    • इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें निजी क्षेत्र की अग्रणी कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने में सक्षम संगठनों के रूप में उभरने की आवश्यकता है।
  • आकारिक मितव्ययता: प्राथमिक क्षेत्र के विभिन्न खंडों को सफलतापूर्वक विकसित किया जा सकता है और इन्हें सहकारी संस्थाओं में रूपांतरित किया जा सकता है। इसके बाद द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों के विभिन्न खंडों को भी प्रोत्साहित किया जा सकता है। 
  • सहकारिता ब्रांडिंग को बढ़ावा देना: सहकारी समितियों के उत्पादों और सेवाओं की गुणवत्ता में उन्नयन और मूल्यवर्धन के माध्यम से उनकी ब्रांडिंग को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता होगी।  
    • इसके लिये उत्पादन, संचालन, वितरण और आकारिक मितव्ययिता का विस्तार करना होगा।
  • कारोबारी माहौल के साथ तालमेल रखने हेतु पर्याप्त लचीलापन: कारोबारी माहौल के साथ तालमेल रखने हेतु पर्याप्त लचीलापन प्रदान करने के लिये अधिनियम, नियमों और उपनियमों की आवश्यकता होगी।  
    • इसके अलावा, बहु-राज्य सहकारी समितियों के प्रबंधन को बाज़ार-प्रेरित प्रबंधकों के हाथों में निहित करना होगा जो दक्षता सुनिश्चित करने की योग्यता रखते हैं।
    • बहु-राज्य सहकारी समितियों के निदेशक मंडल की ज़िम्मेदारी होगी कि वे व्यावसायिक निर्णयों की निगरानी करें ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि नैतिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व में कोई चूक न हो।
  • अति-विनियमन से परहेज करना: सरकार और सहकारी समितियों के बीच नियंत्रण और स्वायत्तता के बीच का समीकरण दुविधापूर्ण है।    
    • अति-विनियमन से सहकारी समितियाँ अपने स्वायत्त चरित्र को खो देने का खतरा रखती हैं।
    • सरकार द्वारा सहकारी समितियों को अपना बचाव स्वयं करने के लिये छोड़ देने से ये समितियाँ कुप्रबंधन का शिकार हो सकती हैं। अतः यह यह वांछनीय है कि इस द्वंद्व को सुलझाया जाए।
  • पारदर्शिता: सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रक्रियाएँ पारदर्शी हों। प्रबंधन के साथ इन समितियों की अखंडता और उनकी परिचालन स्वायत्तता आवश्यक है। 
  • प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण: सहकारी विभागों को अभिकल्पना और प्रशिक्षण हस्तक्षेपों के साथ सहकारी समितियों की प्रशिक्षण आवश्यकताओं का मूल्यांकन करना होगा ताकि सुनिश्चित हो कि वे वर्तमान कारोबारी माहौल के पर्याप्त अनुकूल हैं। 

निष्कर्ष

सरकार, सहकारी विकास संस्थानों सहित सभी हितधारकों और संपूर्ण सहकारी आंदोलन को आपसी सहयोग की आवश्यकता होगी ताकि स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर आधुनिक व्यावसायिक अभ्यासों को शामिल करते हुए सामुदायिक और जन-केंद्रित विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।   

यह अपेक्षा है कि नया मंत्रालय व्यवस्था में आवश्यक सामंजस्य लाएगा और बल गुणक के रूप में कार्य करेगा।

अभ्यास प्रश्न: यदि दक्षता से सहकारी संस्थाओं की पुनर्कल्पना और कार्यान्वयन किया जाए तो एक नैसर्गिक विचार तथा एक संगठनात्मक मंच के रूप में यह अत्यंत प्रासंगिक हैं। चर्चा कीजिये।


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