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10 Jul 2025
सामान्य अध्ययन पेपर 2
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
दिवस 22: BRICS से लेकर शंघाई सहयोग संगठन (SCO) तक, भारत और चीन बहुपक्षीय मंचों पर प्रायः सहयोग तो करते हैं, परंतु द्विपक्षीय स्तर पर टकराते रहते हैं। इस विरोधाभास का परीक्षण कीजिये और क्षेत्रीय स्थिरता पर इसके प्रभावों की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत-चीन संबंधों की विरोधाभासी प्रकृति का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- विरोधाभास और क्षेत्रीय स्थिरता पर इसके प्रभाव का परीक्षण कीजिये।
- आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
एशिया की दो प्रमुख शक्तियाँ, भारत और चीन एक भू-राजनीतिक विरोधाभास का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो BRICS, शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और G20 जैसे बहुपक्षीय मंचों पर सहयोग तो करती हैं, किंतु मुख्यतः सीमा विवादों और रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण, द्विपक्षीय रूप से एक-दूसरे के विरोधी बनी हुई हैं। यह द्वैधता क्षेत्रीय स्थिरता, आर्थिक एकीकरण तथा एशियाई सुरक्षा संरचना के लिये गंभीर प्रभाव उत्पन्न करती है।
मुख्य भाग:
बहुपक्षीय सहयोग: वैश्विक हितों में समन्वय
- BRICS: दोनों देश बहुध्रुवीय विश्व के विचार का समर्थन करते हैं और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी वैश्विक संस्थाओं में सुधारों की वकालत करते हैं। BRICS के अंतर्गत न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) और आकस्मिक रिज़र्व व्यवस्था (CRA) की स्थापना एक वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्था की दिशा में प्रयासों को दर्शाती है।
- SCO: भारत और चीन संयुक्त रूप से "शांति मिशन" जैसे आतंकवाद-रोधी अभ्यासों में भाग लेते हैं, अफगानिस्तान में क्षेत्रीय स्थिरता पर सहयोग करते हैं, तथा चाबहार और आईएनएसटीसी के माध्यम से कनेक्टिविटी का समर्थन करते हैं, जबकि चीन बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को आगे बढ़ा रहा है।
- जलवायु परिवर्तन एवं व्यापार: दोनों ने COP शिखर सम्मेलनों और विश्व व्यापार संगठन में समन्वित रुख अपनाया है, तथा प्रायः विकसित देशों की संरक्षणवादी नीतियों का विरोध किया है।
- BRICS: दोनों देश बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का समर्थन करते हैं तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, विश्व बैंक और IMF जैसे वैश्विक संस्थानों में सुधार की अनुशंसा करते हैं। BRICS के अंतर्गत न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) तथा आकस्मिक आरक्षिति (रिज़र्व) व्यवस्था (CRA) की स्थापना वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्था की दिशा में उनके प्रयासों को दर्शाती है।
- SCO: भारत और चीन शांति मिशन जैसे आतंकवाद-रोधी सैन्य अभ्यासों में भाग लेते हैं, अफगानिस्तान में क्षेत्रीय स्थिरता पर सहयोग करते हैं तथा चाबहार और अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (INSTC) के माध्यम से कनेक्टिविटी का समर्थन करते हैं, जबकि चीन समानांतर रूप से बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को भी आगे बढ़ा रहा है।
- जलवायु परिवर्तन और व्यापार: दोनों देश COP सम्मेलनों और WTO में समन्वित रुख अपनाते हैं तथा विकसित देशों की संरक्षणवादी नीतियों का प्रायः विरोध करते हैं।
द्विपक्षीय संघर्ष: रणनीतिक और सुरक्षा संबंधी तनाव
- सीमा विवाद: वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) अब भी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है। डोकलाम गतिरोध (2017), गलवान घाटी संघर्ष (2020) जैसी घटनाएँ चार दशकों में सबसे घातक रहीं और पूर्वी लद्दाख में जारी तनाव ने विश्वास को कमज़ोर किया है।
- सामरिक प्रतिद्वंद्विता: भारत दक्षिण एशिया में चीन की विस्तारवादी स्थिति को (विशेष रूप से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) और नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश में बुनियादी अवसंरचना परियोजनाओं के माध्यम से) भारत की घेराबंदी के प्रयास के रूप में देखता है, जिसे प्रायः स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स रणनीति के रूप में संदर्भित किया जाता है।
- हिंद-प्रशांत क्षेत्र में मतभेद: अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड में भारत की भागीदारी को चीन अपनी नियंत्रण रणनीति का हिस्सा मानता है। इसके विपरीत, दक्षिण चीन सागर में चीन की आक्रामकता और उसका नौसैनिक विस्तार हिंद महासागर क्षेत्र में भारत के प्रभाव को चुनौती देता है।
- व्यापार असंतुलन: प्रमुख व्यापारिक साझेदार होने के बावजूद, वर्ष 2025 में द्विपक्षीय व्यापार 127 बिलियन डॉलर को पार कर जाने के बावजूद, भारत एक बड़े व्यापार घाटे (~ 99 बिलियन डॉलर) से ग्रस्त है, जो आर्थिक विषमता और निर्भरता को और बढ़ा रहा है।
- व्यापारिक असंतुलन: हालाँकि वर्ष 2025 में भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार $127 बिलियन से अधिक तक पहुँच चुका है, भारत को लगभग $99 बिलियन के व्यापार घाटे का सामना करना पड़ता है, जो आर्थिक विषमता एवं निर्भरता को और बढ़ाता है।
क्षेत्रीय स्थिरता पर प्रभाव
- सुरक्षा में अस्थिरता: सीमावर्ती तनाव, जैसे कि गलवान प्रकरण, सैन्य टकराव की आशंका बढ़ाते हैं और हिमालयी क्षेत्र में शांति को बाधित करते हैं, जिससे वैश्विक शक्तियों की संलिप्तता की संभावना भी बढ़ती है।
- ASEAN और दक्षिण एशिया के लिये द्वंद्व: छोटे राष्ट्र जैसे श्रीलंका (चीन के बंदरगाह परियोजनाओं को लेकर) और म्याँमार (भारत और चीन के बीच संतुलन साधने में) दोनों शक्तियों के बीच रणनीतिक संतुलन साधने का प्रयास करते हैं।
- क्षेत्रीय संस्थाओं की प्रभावशीलता में कमी: लंबे समय तक चला द्विपक्षीय अविश्वास SCO और BRICS जैसे मंचों की प्रभावशीलता को सीमित करता है, जो केवल प्रतीकात्मक सहयोग तक सीमित रह जाते हैं।
- आर्थिक एकीकरण को बाधित करना: भारत का RCEP से वर्ष 2020 में बाहर निकलना इस बात का प्रमाण है कि द्विपक्षीय तनाव व्यापक व्यापार वार्ताओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
आगे की राह
- संकट प्रबंधन तंत्र को सशक्त किया जाना चाहिये तथा सैन्य और राजनयिक 'हॉटलाइन' को सक्रिय रखा जाना चाहिये।
- जलवायु, स्वास्थ्य और आपदा प्रतिक्रिया जैसे मुद्दों पर बहुपक्षीय मंचों में मुद्दा-आधारित सहयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- आर्थिक संबंधों का सामान्यीकरण किया जाना चाहिये तथा व्यापारिक असंतुलन को कम करने के लिये ठोस उपाय किये जाने चाहिये।
- जन-जन संपर्क, शैक्षणिक समन्वय तथा सीमा पार विश्वास-निर्माण की पहल को बढ़ाया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
जैसा कि विदेश नीति विशेषज्ञ सी. राजा मोहन कहते हैं, "चीन के उदय को नियंत्रित करना उसे नियंत्रित करने के संदर्भ में नहीं, बल्कि उसके व्यवहार को आकार देने के संदर्भ में है।" भारत चीन विरोधाभास गहन रणनीतिक अविश्वास को दर्शाता है, फिर भी क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखने की ज़िम्मेदारी दोनों देशों की है। समाधान संघर्ष में नहीं, बल्कि स्थिर सह-अस्तित्व के माध्यम से प्रतिद्वंद्विता के विवेकपूर्ण प्रबंधन में निहित है।