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12 Jul 2025
निबंध लेखन
निबंध
दिवस 24
प्रश्न 1. न्याय में विलंब, न केवल न्याय से वंचित करना है, बल्कि अन्याय को संस्थागत बनाना है। (1200 शब्द)
प्रश्न 2. विकास मानवीय क्षमताओं और वास्तविक स्वतंत्रताओं का विस्तार है, न कि केवल आर्थिक वृद्धि का। (1200 शब्द)1.
परिचय:
3 दिसंबर, 1984 की सुबह, भोपाल शहर यूनियन कार्बाइड संयंत्र से रिसने वाली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के घातक बादल की चपेट में आ गया। रातोंरात हज़ारों लोग मारे गए और लाखों लोग हमेशा के लिये विकलांग हो गए। इसके पश्चात त्वरित न्याय नहीं मिला, बल्कि एक लंबा और जटिल न्यायिक ठहराव प्रारंभ हुआ। यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमा 25 वर्षों से भी अधिक चला और अंततः वर्ष 2010 में बहुत ही मामूली सज़ा और मामूली मुआवज़े के साथ समाप्त हुआ।
भोपाल त्रासदी केवल औद्योगिक लापरवाही का नहीं, बल्कि यह इस बात का भी प्रतीक है कि जब न्याय में विलंब होता है, तो वह विलंब एक संस्थागत अन्याय में परिवर्तित हो जाती है।
मुख्य भाग:
ऐतिहासिक और दार्शनिक दृष्टिकोण
- कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कानून (दंड) के सख्त लेकिन निष्पक्ष प्रवर्तन का निर्देश दिया गया है, जिसमें दंड को प्रतिशोध के रूप में नहीं बल्कि धर्म (नैतिक कानून) द्वारा निर्देशित एक सुधारात्मक और निवारक उपाय के रूप में देखा गया है।
- उपयोगितावादी दार्शनिक जेरेमी बेन्थम ने कहा था: "विलंब स्वयं एक प्रकार का अन्याय है।"
- संविधान सभा की बहस के दौरान डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि संविधान में दिये गए अधिकारों की सुरक्षा के लिये समय पर न्याय प्रदान करना एक पूर्व शर्त है।
- वैश्विक स्तर पर, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणापत्र (अनुच्छेद 8) यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को सक्षम राष्ट्रीय न्यायाधिकरणों से प्रभावी उपाय प्राप्त करने का अधिकार है।
वर्तमान प्रासंगिकता
- चिंताजनक आँकड़े:
- मार्च 2024 तक, भारतीय न्यायालयों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं (राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड)।
- भारत के कारागारों में बंद 70% से अधिक कैदी विचाराधीन हैं (NCRB 2023)।
- भारत में औसत सिविल मामले में अंतिम निर्णय तक पहुँचने में 13 वर्ष से अधिक का समय लगता है (NITI आयोग)।
- प्रसिद्ध उदाहरण:
- अयोध्या भूमि स्वामित्व मामले को सुलझाने में लगभग 70 वर्ष लग गए, जिससे मामले का निपटारा और सामाजिक सौहार्द में विलंब हुआ।
- वर्ष 1984 के सिख-विरोधी दंगों के मामलों में भी बहुत से पीड़ितों को तीन दशक के बाद न्याय मिला।
संस्थागत विलंब के प्रभाव
- सामाजिक प्रभाव:
- निर्धन वर्गों के लिये न्याय अप्राप्य हो जाता है, क्योंकि वे लंबे कानूनी संघर्षों का व्यय नहीं उठा सकते।
- दलित उत्पीड़न, भूमि विवाद या जातीय हिंसा जैसे मामलों में न्यायिक विलंब के कारण वंचित समुदायों की असुरक्षा और बढ़ जाती है।
- आर्थिक प्रभाव:
- विश्व बैंक की एक रिपोर्ट (2019) के अनुसार, अनुबंध प्रवर्तन में विलंब से व्यापार लागत 30% से अधिक बढ़ जाती है।
- भूमि अधिग्रहण और अधोसंरचना परियोजनाएँ कानूनी उलझनों के कारण अटक जाती हैं, जिससे आर्थिक विकास बाधित होता है।
- मनोवैज्ञानिक प्रभाव:
- लंबी सुनवाई से पीड़ितों को मानसिक आघात पहुँचता है और कई बार अभियुक्तों को प्रायः मिलने वाली सजा से अधिक समय तक कारावास भुगतना (जितना दण्ड उसे अंततः मिलता) पड़ता है।
- मुंबई में वर्ष 2023 का एक मामला सामने आया, जिसमें एक व्यक्ति को 20 वर्ष बाद बरी किया गया, जबकि उसे 17 वर्ष का कारावास भुगतना पड़ा था।
- शासन और कानून का शासन:
- न्याय व्यवस्था में लगातार और गंभीर रूप से विलंब होने के कारण लोगों का कानून और न्यायपालिका पर से विश्वास उठने लगता है।
- राजनीतिक भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों (जैसे: चारा घोटाला, कोयला घोटाला) में विलंब सार्वजनिक उत्तरदायित्व को कमज़ोर करता है।
संस्थागत विलंब के पीछे के कारण
- न्यायिक रिक्तियाँ:
- भारत में प्रति दस लाख जनसंख्या पर मात्र 20 न्यायाधीश हैं (विधि आयोग), जबकि विकसित देशों में यह संख्या 50 से अधिक है।
- अधीनस्थ न्यायपालिका में 6,000 से अधिक पद रिक्त पड़े हैं।
- औपनिवेशिक कानूनी वास्तुकला:
- भारत की कानूनी प्रणाली लंबे समय से औपनिवेशिक विधिक संरचना के तहत संचालित होती रही है, जिसमें सिविल प्रक्रिया संहिता (1908) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (1872) जैसे प्रक्रियात्मक कानून दशकों तक पुराने और बोझिल बने रहे। भारत की न्यायिक प्रणाली लंबे समय से औपनिवेशिक विधिक संरचना पर आधारित है। सिविल प्रक्रिया संहिता (1908) तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम (1872) जैसे प्रक्रियात्मक कानून दशकों से पुराने और जटिल बने हुए हैं।
- हालाँकि, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रक्रियागत नवाचार किये गये हैं, लेकिन इनका सफल कार्यान्वयन संस्थागत तैयारी और प्रभावी निरीक्षण तंत्र पर निर्भर करेगा।
- स्थगन और रणनीति:
- वकील प्रायः बार-बार स्थगन की मांग करते हैं और विलंब की रणनीति के लिये कोई जवाबदेही नहीं है।
- बुनियादी अवसंरचना का अभाव:
- 25% न्यायालय कार्यात्मक शौचालयों, इंटरनेट कनेक्टिविटी या डिजिटल बुनियादी अवसंरचना के बिना संचालित होते हैं (इंडिया जस्टिस रिपोर्ट, 2022)।
- पुलिस और अभियोजन प्रणाली में लंबित कार्य:
- जाँच प्रक्रिया में विलंब का कारण पुलिस की अपर्याप्त प्रशिक्षण, अत्यधिक कार्यभार तथा राजनीतिक हस्तक्षेप है।
आगे की राह
- न्यायिक शक्ति और उत्पादकता में वृद्धि:
- प्रशिक्षित न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) की स्थापना की जानी चाहिये।
- न्यायिक रिक्तियों की समयबद्ध प्रक्रिया के तहत भर्ती की जानी चाहिये।
- डिजिटलीकरण और प्रौद्योगिकी:
- ई-कोर्ट्स परियोजना चरण-III का विस्तार किया जाना चाहिये।
- मामलों के प्रबंधन के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित सूचीकरण और पूर्वानुमान विश्लेषण का उपयोग किया जाना चाहिये।
- प्रक्रियागत सुधार:
- सख्त न्यायिक निगरानी के माध्यम से स्थगन को सीमित किया जाना चाहिये।
- साक्ष्य संकलन जैसी प्रक्रियाओं को तेज़ करने हेतु अप्रासंगिक कानूनी चरणों को हटाने के लिये विधिक प्रक्रिया में संशोधन किया जाना चाहिये।
- वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR):
- लोक अदालतों, ग्राम न्यायालयों और मध्यस्थता केंद्रों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- उदाहरण: वर्ष 2023 में राष्ट्रीय लोक अदालत ने एक ही दिन में 1.5 करोड़ मामलों का निपटारा किया।
- गवाह संरक्षण एवं फास्ट-ट्रैक न्यायालय:
- गवाह संरक्षण योजना (2018) को सुदृढ़ किया जाना चाहिये।
- महिलाओं और बच्चों से जुड़े अपराधों के लिये विशेष फास्ट-ट्रैक न्यायालयों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिये।
- कानूनी साक्षरता और विधिक सहायता:
- राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) की पहुँच को बढ़ाया जाना चाहिये।
- ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में विधिक जागरूकता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
जैसा कि मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने सही कहा है, "कहीं भी अन्याय, हर जगह न्याय के लिये खतरा है।" भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह खतरा केवल सैद्धांतिक नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष, दृष्टिगोचर और प्रणालीगत है। करोड़ों लंबित मुकदमे, कारावासों में सालों से बंद विचाराधीन कैदी और न्याय की प्रतीक्षा करते पीड़ित, ये सब हमारे न्यायिक तंत्र की कमज़ोर स्थिति को उजागर करते हैं।
जो न्याय बहुत देर से मिलता है, वह न्याय ही नहीं होता, बल्कि यह उन लोगों के साथ संस्थागत विश्वासघात बन जाता है, जिनकी रक्षा के लिये यह व्यवस्था बनाई गई थी। भारत का एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में विकास केवल विधि निर्माण की क्षमता पर नहीं, बल्कि उन कानूनों की निष्पक्ष, त्वरित और समता के साथ लागू करने की क्षमता पर अधिक निर्भर करता है।
आगे की राह, न्यायिक निष्क्रियता को संस्थागत संवेदनशीलता में बदलने में निहित है। तभी संविधान में निहित न्याय का वादा वास्तव में पूरा हो सकेगा।
2.
परिचय:
वर्ष 2019 में, भारत विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद, छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्र में एक आदिवासी महिला को अपने बच्चों के लिये शुद्ध पेय जल लाने के लिये रोज़ाना 10 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। उसके गाँव में बिजली के खंभे तो थे, लेकिन बिजली की आपूर्ति नहीं थी और पास में कोई माध्यमिक विद्यालय न होने के कारण उसकी बेटी को स्कूल की पढाई छोड़नी पड़ी। यह कहानी, लाखों में से एक होते हुए भी, एक कठोर सच्चाई को उजागर करती है: केवल आर्थिक विकास ही सार्थक विकास की गारंटी नहीं है।
पारंपरिक रूप से, विकास को सकल घरेलू उत्पाद (GDP), औद्योगिक उत्पादन, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) और बुनियादी अवसंरचना के विस्तार जैसी संख्यात्मक सूचनाओं से आँका जाता रहा है। हालाँकि, प्रगति का यह संकीर्ण दृष्टिकोण यह नहीं दर्शाता कि लोग वास्तव में स्वस्थ, शिक्षित और सशक्त जीवन जी रहे हैं या नहीं। अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘Development as Freedom’ में यह तर्क प्रस्तुत किया कि सच्चा विकास वही है, जो व्यक्ति की क्षमताओं और विकल्पों का विस्तार करे, क्योंकि केवल राष्ट्रीय आय को बढ़ाना ही पर्याप्त नहीं है।
मुख्य भाग:
- पारंपरिक विकास की अवधारणा
- पारंपरिक विकास का मापदंड मुख्यतः आर्थिक आँकड़ों पर आधारित होता है, जैसे: GDP वृद्धि, औद्योगीकरण, FDI का प्रवाह और सड़क-बिजली जैसी भौतिक संरचनाओं का विस्तार।
- उदाहरणस्वरूप, भारत ने वर्ष 2004 से 2008 के दौरान दो-अंकीय आर्थिक वृद्धि दर हासिल की थी, पर उसी दौरान देश में कुपोषण की दर भी बहुत ऊँची रही और सामाजिक असमानताएँ गहरी बनी रहीं।
- यह दर्शाता है कि केवल आर्थिक वृद्धि से ही सभी वर्गों का उत्थान नहीं होता। ऐसे मॉडल में समावेशिता और समानता की स्पष्ट कमी होती है।
- मानव विकास की अवधारणा
- अमर्त्य सेन के “विकास को स्वतंत्रता” ढांचे का उपयोग करें:
- पाँच स्वतंत्रताएँ: राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक अवसर, पारदर्शिता और सुरक्षात्मक सुरक्षा।
- UNDP के मानव विकास सूचकांक (HDI) - जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और जीवन स्तर का उल्लेख करें। इस सीमित दृष्टिकोण के स्थान पर, अमर्त्य सेन ने ‘Development as Freedom’ में विकास को ‘स्वतंत्रता के विस्तार’ के रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार, विकास का उद्देश्य लोगों की वास्तविक स्वतंत्रताओं को बढ़ाना होना चाहिये। उन्होंने पाँच प्रकार की स्वतंत्रताओं को रेखांकित किया, जो हैं: राजनीतिक स्वतंत्रता, आर्थिक सुविधाओं तक पहुँच, सामाजिक अवसरों की उपलब्धता, सूचना की पारदर्शिता, संरक्षणात्मक सुरक्षा
- इसी विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) ने मानव विकास सूचकांक (HDI) की अवधारणा प्रस्तावित की, जिसमें तीन मूल घटक शामिल हैं— जीवन प्रत्याशा, शिक्षा स्तर और जीवन-स्तर
मानव क्षमताओं और वास्तविक स्वतंत्रताओं के घटक
- स्वास्थ्य और शिक्षा:
- स्वास्थ्य व्यक्ति की उत्पादकता को बढ़ाता है, जबकि शिक्षा उसके सामने नए विकल्प खोलती है।
- उदाहरण: केरल मॉडल, जहाँ प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत कम है, परंतु साक्षरता, मातृ मृत्यु दर और जीवन प्रत्याशा जैसे संकेतक उच्चतम स्तर पर हैं।
- लैंगिक समानता और सामाजिक समावेशन:
- वास्तविक विकास तभी होगा, जब उसमें महिलाओं, अनुसूचित जातियों/जनजातियों (SC/ST) और दिव्यांगजनों (PwD) को भी समान अवसर मिलें।
- उदाहरण: बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना, ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम और दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम।
- पर्यावरणीय संधारणीयता:
- विकास ऐसा हो जो पर्यावरण को नष्ट न करे, क्योंकि प्रदूषण और विस्थापन भावी पीढ़ियों की स्वतंत्रताओं को सीमित कर देते हैं।
- उदाहरण: औद्योगिक परियोजनाओं से आदिवासियों/जनजातीय समुदायों का विस्थापन और शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण से जीवन-स्तर में गिरावट।
- भय और असुरक्षा से मुक्ति:
- विधि का शासन और सामाजिक सौहार्द ही किसी भी विकास की पूर्वापेक्षाएँ हैं।
- उदाहरण: मणिपुर में वर्ष 2023–24 के दौरान हुई हिंसा ने दर्शाया कि जब शांति नहीं होती, तब समग्र विकास योजनाएँ व्यर्थ हो जाती हैं।
केस स्टडीज़ / वैश्विक उदाहरण
- भूटान ने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के स्थान पर सकल राष्ट्रीय सुख (Gross National Happiness) को विकास का मापदंड बनाया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि समृद्धि केवल आय से नहीं बल्कि मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संतुलन से भी आँकी जानी चाहिये।
- नॉर्वे और फिनलैंड जैसे स्कैंडिनेवियाई देशों ने उच्च मानव विकास सूचकांक (HDI) हासिल किया है, जिसका आधार समावेशी कल्याण, सुलभ सार्वजनिक सेवाएँ एवं सामाजिक न्याय है।
- भारत का आकांक्षी ज़िला कार्यक्रम भी इसी सोच का परिचायक है, जो केवल आय नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल विकास को प्राथमिकता देता है।
इस उद्देश्य को साकार करने की चुनौतियाँ
- वर्तमान नीतियाँ अब भी मुख्यतः GDP जैसे आँकड़ों पर केंद्रित हैं, जिनमें व्यक्ति-केंद्रित प्रगति के संकेतकों की उपेक्षा होती है।
- ग्रामीण और शहरी भारत के बीच निरंतर विषमता बनी हुई है।
- स्वास्थ्य, शिक्षा और लैंगिक समानता जैसे सामाजिक सूचकांकों पर सटीक एवं सम्यक डेटा की कमी है।
- स्थानीय स्तर पर संस्थागत क्षमता और सुशासन की खामियाँ भी इस दृष्टिकोण के क्रियान्वयन में बाधा बनती हैं।
आगे की राह
- नीतिनिर्धारण में बहुआयामी सूचकांकों (जैसे: MPI, GNH, HDI) को शामिल किया जाना चाहिये।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य, डिजिटल शिक्षा और विकेंद्रीकृत योजना निर्माण को सुदृढ़ किया जाना चाहिये।
- पंचायती राज संस्थाओं और नागरिक समाज के सहयोग से स्थानीय सशक्तीकरण सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
- विकास की प्रक्रिया में महिलाओं, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों, आदिवासियों और दिव्यांग जनों की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिये।
- आधार-आधारित DBT जैसी तकनीकें अपनाई जानी चाहिये, परंतु इसके साथ अधिकार आधारित सुरक्षा उपाय भी अनिवार्य होने चाहिये।
निष्कर्ष:
केवल आर्थिक वृद्धि से राष्ट्र की समृद्धि का आकलन नहीं किया जा सकता; वास्तविक विकास तब ही संभव है जब व्यक्ति की गरिमा, विकल्पों और स्वतंत्रता का विस्तार हो।
जैसा कि मानव विकास सूचकांक के जनक महबूब उल हक ने कहा था —
"किसी राष्ट्र की असली संपत्ति उसके लोग हैं। विकास का उद्देश्य केवल राष्ट्रीय आय में वृद्धि नहीं, बल्कि मानव जीवन को समृद्ध करना है।"आज के समय में, जब जलवायु संकट और सामाजिक विषमता जैसे गंभीर संकट उत्पन्न हो रहे हैं, भारत को विकास-केंद्रित मॉडल से हटकर मानव -केंद्रित विकास मॉडल अपनाने की आवश्यकता है। इसका मतलब है ऐसी नीतियाँ जो केवल बाज़ार ही नहीं, बल्कि नागरिकों को भी सशक्त बनाएँ; और ऐसी संस्थाएँ जो केवल दक्षता ही नहीं, बल्कि स्वतंत्रता भी सुनिश्चित करें।
वास्तविक प्रगति का दावा तभी किया जा सकता है जब विकास प्रत्येक भारतीय के लिये वास्तविक अवसरों में तब्दील हो तथा आर्थिक समृद्धि मानव समृद्धि का लक्ष्य न होकर एक साधन बने।