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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

क्या जीएम फसलें प्रतिबंधित कर दी जानी चाहिये?

  • 07 Jul 2017
  • 16 min read

दुनिया के अनेक देशों में जेनेटिक इंजीनियरिंग के तहत अभिनव प्रयोग हो रहे हैं। जैसे जर्मनी में मकड़ी के जीन को बकरी के जीन में डालकर बकरी के दूध को गाढ़ा और रेशेदार बनाने की कोशिश हो रही है। वहाँ वैज्ञानिक इस विधि से दूध से यार्न निकाल कर रेशमी कपड़ा बनाने की कोशिश में हैं। दूसरी और चीन में जुगनू के जीन को पौधे में डालकर यह कोशिश की जा रही है कि फसल रात को जगमगा सके, ताकि कीड़ों का हमला कम हो। यह अचरज नहीं तो और क्या है?

लेकिन, अल्फ्रेड नोबेल से लेकर अल्बर्ट आइंस्टीन ने ‘विज्ञान के वरदान के साथ-साथ अभिशाप होने’ की भी बात की है। भले ही यह कहावत पुरानी हो गई हो, लेकिन प्रासंगिक आज भी है। क्या हो यदि आलू में कार्बोहाईड्रेट के बजाय प्रोटीन मिलने लगे या फिर सेब खाने से मोटापा बढ़ने लगे? आज वाद-प्रतिवाद और संवाद के माध्यम से हम भारत में जीएम फसलों की संभावनाओं, आलोचनाओं और निष्कर्षतः क्या होना चाहिये, इस पर बात करेंगे।

वाद

  • दरअसल नीति आयोग ने कृषि विकास के लिये जीएम बीजों के इस्तेमाल को हरी झंडी दे दी है और मामला अब कृषि मंत्रालय के पास है। खाद्य सुरक्षा की दलील पेश कर पहले भी देश में समय-समय पर जीएम फसलों के उपयोग की वकालत होती रही है।
  • विदित हो कि नीति आयोग ने हाल ही में तीन-वर्षीय (2017-2020) एक्शन एजेंडा जारी किया है, जिसमें  जीएम बीजों के संदर्भ में यह कहा गया है कि पिछले दो दशकों में यह एक नई शक्तिशाली तकनीक के रूप में उभरा है और इसने कृषि में उच्च उत्पादकता, बेहतर गुणवत्ता और उर्वरकों और कीटनाशकों के कम उपयोग का मार्ग प्रशस्त किया है।
  • उल्लेखनीय है कि जीएम फसलों की विश्वसनीयता न सिर्फ संदेह के घेरे में रही है, बल्कि समय-समय पर इसके दुष्परिणाम भी देखने को मिलते रहे हैं।
  • दरअसल, दुनिया के कई मुल्कों ने अपने यहाँ जेनेटिक रूप से संवर्द्धित फसलों की खेती पर ही पाबंदी लगा दी है। ऐसे में हमारे नीति निर्माताओं का जीएम फसलों की खेती पर बल देना तर्कसंगत प्रतीत नहीं हो रहा है।
  • जीएम फसलों को बढ़ावा देने वालों का मानना है कि इससे देश में खाद्यान्न की कमी और भुखमरी जैसी समस्याओं का समाधान हो जाएगा, जबकि यह एक दुष्प्रचार है कि जीएम फसलों से ही कृषि उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है।
  • विदित हो कि वर्ष 1951-52 के दौरान देश में मात्र 52 मिलियन टन अनाज का उत्पादन होता था, लेकिन आज बिना जीएम तकनीक के ही 270 मिलियन टन अनाज का उत्पादन हो रहा है। इस वर्ष केंद्र सरकार के अनुमानों के मुताबिक यह आँकड़ा 273 मिलियन टन रहने की उम्मीद है।
  • एक सच यह भी है कि करोड़ों डॉलर की लागत के बाद भी कोई ऐसा जीएम बीज नहीं है, जो स्वाभाविक रूप से फसल की उपज बढ़ाता हो।
  • दरअसल,  यह भी प्रमाणित नहीं है कि जीएम बीज, सूखे का सामना करने, उर्वरक प्रदूषण को कम करने या मिट्टी की गुणवत्ता को बचाने में किस हद तक सक्षम हैं।
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2011 में मोनसेंटो ने सूखा प्रतिरोधी जीएम मक्का अमेरिकी बाज़ारों में वितरण के लिये जारी किया था। हालाँकि थोड़े ही समय में अमेरिकी कृषि विभाग ने खुद स्वीकार किया कि यह गैर-जीएम के मौजूदा किस्मों से ज़्यादा प्रभावी नहीं है।
  • वास्तव में यदि हमें सूखा-प्रतिरोधी खेती को बढ़ावा देना है तो मिट्टी में बहुत सारे कार्बनिक पदार्थों को शामिल किया जाना चाहिये। इससे पानी को ज़्यादा अवशोषित कर फसलों को सूखे की मार से बचाया जा सकता है।
  • भारत में मोनसेंटो ने 1970 से खरपतवार नाशक रसायनों के उत्पादन के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई थी। आगे चलकर इसने ‘महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड कंपनी’ महिको के साथ समझौता कर अपने पाँव पसारे। अब महिको, मोनसेंटो का भारतीय चेहरा है।
  • लगभग दस वर्ष पूर्व बीटी कपास को भारतीय बाज़ार में इसी कंपनी ने उतारा था। बीटी कॉटन के बारे में महिको और मोनसेंटो के द्वारा किये गए दावे सच नहीं निकले। यह न तो कीट प्रतिरोधी साबित हुआ और न ही अधिक उत्पादन देने वाला।
  • पंजाब के कपास किसानों को बीटी कपास के कारण बेहद अहितकारी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।
  • यदि आँकड़ों की बात करें तो महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पंजाब में सबसे ज़्यादा बीटी कपास की खेती करने वाले किसानों ने ही आत्महत्याएँ की हैं, वहीं विदर्भ के किसान बीटी कॉटन उगाने के लिये मजबूर हैं, जबकि इसकी लागत ज़्यादा और मुनाफा कम है।
  • उल्लेखनीय है कि बीटी बैंगन को बाज़ार में उतारने की तैयारी भी मोनसेंटो ने लगभग पूरी कर ली थी, लेकिन नौ राज्यों की सरकारों, पर्यावरण विशेषज्ञों, कृषि वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों और किसानों के व्यापक विरोध के कारण सरकार को अपने कदम वापस लेने पड़े थे।
  • जीएम फसलें आम उपभोग और पर्यावरण के लिये अहितकर हैं। यह बात पिछले कई वर्षों से वैज्ञानिक, कृषक और पर्यावरणविद् कहते आ रहे हैं।
  • भारत सहित अधिकतर देशों में जीएम फसलों के आयात पर रोक है। इन फसलों के उपयोग से प्राकृतिक फसलों की बीजधारक क्षमता खत्म हो रही है।
  • कुछ रिपोर्टों पर विश्वास करें तो अमेरिका में गेहूं के ऑर्गेनिक सीड्स से उत्पन्न होने वाली फसलों में से आधी फसलें जीएम बीजों के ज़रिये संक्रमित हो चुकी हैं।
  • ऐसे में इन्हें अपने देश में इस्तेमाल की इज़ाज़त देना पूरे कृषि ढाँचे और खाद्य सुरक्षा के लिये खतरनाक साबित हो सकता है।
  • इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रत्येक नई तकनीक का विरोध नहीं किया जाना चाहिये, पर यदि यह तकनीक कृषि और किसानों के हितों के आड़े आ रही हो, तो उसका विरोध करना चाहिये।
  • नीति निर्धारकों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि उनका कोई भी प्रस्ताव किसानों और उपभोक्ताओं के हित में हो। इस तरह का कोई फैसला लेने से पहले देश में एक व्यापक सहमति बनाना भी बेहद आवश्यक है। 

क्या है जीएम तकनीक?
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक जीएम वह तकनीक है जिसमें जंतुओं एवं पादपों (पौधे, जानवर, सुक्ष्मजीवियों) के डीएनए को अप्राकृतिक तरीके से बदला जाता है।

कैसे बनता है जीएम उत्पाद?
सरल भाषा में जीएम टेक्नोलॉजी के तहत एक प्राणी या वनस्पति के जीन को निकालकर दूसरे असंबंधित प्राणी/वनस्पति में डाला जाता है। इसके तहत हाइब्रिड बनाने के लिये किसी जीव में नपुंसकता पैदा की जाती है, जैसे जीएम सरसों को प्रवर्धित करने के लिये सरसों के फूल में होने वाले स्व-परागण (सेल्फ पॉलिनेशन) को रोकने के लिये नर नपुंसकता पैदा की जाती है। फिर हवा, तितलियों, मधुमक्खियों और कीड़ों के ज़रिये परागण होने से एक हाइब्रिड तैयार होता है। इसी तरह बीटी बैंगन में प्रतिरोधकता के लिये ज़हरीला जीन डाला जाता है, ताकि बैंगन पर हमला करने वाला कीड़ा मर सके।

प्रतिवाद

  • कृषि विकास की राह में नई प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन मिलना चाहिये। दरअसल, जीएम बीजों के इस्तेमाल से कृषि फसलों को अधिक पैदावार में मदद मिलेगी।
  • विदित हो कि वर्ष 1992 से 2002 के बीच कपास की पैदावार तकरीबन 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी, जो 2013 के दौरान बढ़कर 488 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई थी और यह कमाल बीटी कॉटन के बिना असंभव था।
  • देश की आबादी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है और कृषि योग्य भूमि सिकुड़ती जा रही है। बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने की चुनौती हमारे सामने मुँह बाए खड़ी है। वर्ष 2030 तक हमारी जनसंख्या मौजूदा आबादी से 25 प्रतिशत ज़्यादा हो जाएगी, जबकि खेती के लिये उतनी ही ज़मीन उपलब्ध रहेगी।
  • पिछले कुछ दशकों से भारत में जोते जाने वाले खेतों का क्षेत्रफल 14 करोड़ हेक्टेयर पर लगभग स्थिर बना हुआ है।
  • इसका अर्थ है कि कृषि योग्य भूमि में वृद्धि की बेहद सीमित संभावना है। ज़ाहिर है कि मौजूदा उत्पादन प्रणालियों को ही प्रखर बनाना होगा, जो कि एकमात्र संभावना है।
  • परंतु, यह संभावना भी पानी और बिजली की कमी के चलते सीमित रहेगी। शहरीकरण और उद्योगीकरण की बढ़ती मांग के चलते ज़मीन, पानी और बिजली के लिये मुकाबला आने वाले समय में और कड़ा होने की उम्मीद है।
  • आने वाले समय में कीमतें बढ़ेंगी जिससे कृषि की लागत में भी इज़ाफा होगा और खेतों से होने वाले लाभ में कमी आएगी और किसानों को और अधिक नुकसान होगा। इसके साथ ही आने वाले समय में भारतीय बाज़ार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी दूसरे देशों की तुलना में अपेक्षाकृत कम प्रतिस्पर्द्धी हो जाएगा।
  • इसके अलावा हमें जलवायु परिवर्तन का भी सामना करना होगा, जो कृषि क्षेत्र के चिरस्थायी विकास के समक्ष विकट चुनौतियाँ पेश कर रहा है। दरअसल,  जीएम फसलों को लेकर लोग कई प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं।
  • जीएम टेक्नोलॉजी, जो किसानों के लिये इतनी लाभकारी है, फिर भी उसे नकारने की प्रवृत्ति देश के भीतर बढ़ती जा रही है, जो हमारे लिये चिंता का विषय होना चाहिये।
  • इस तरह की तमाम भ्रामक जानकारियाँ प्रतिष्ठित सूचना माध्यमों से भी फैलाने की कोशिश हो रही है, जिसके प्रति हमें सतर्क रहना होगा।
  • अमेरिका बायोटेक फसलों का अग्रणी उत्पादक देश है, जहाँ भूमि के एक बड़े हिस्से पर जीएम फसलों की खेती करता है। अगर इस टेक्नोलॉजी से लाभ नहीं होता है तो इतनी बड़ी तादात में वहाँ के किसान इसे क्यों अपनाते?
  • यदि बायोटेक से उनकी उपज नहीं बढ़ती, उनकी आमदनी नहीं बढ़ती तो फिर उसे इस्तेमाल करने की क्या ज़रूरत है? इस बात की कोई विश्वसनीय वैज्ञानिक रिपोर्ट नहीं है कि जीएम फसलों का पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य और मवेशियों पर कोई विपरीत असर पड़ता है।

संवाद

  • जीएम फसलों को लेकर जब इतने विवाद हैं और इतने अंतर्विरोधी दावे हैं तो ऐसे में क्या किया जाए? यह सबसे बड़ा सवाल है। क्या केवल भावी आशंकाओं को देखते हुए कृषि क्षेत्र में जैव-प्रौद्योगिकी और जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी आधुनिक तकनीकों से मुँह मोड़ लेना उचित है, जबकि दूसरे देश इन तकनीकों को न केवल अपना रहे हैं बल्कि उनसे फायदा भी कमा रहे हैं?
  • इस बाबत चीन का उदाहरण लिया जा सकता है, जहाँ वर्ष 1997 से बीटी कपास उगाई जा रही है और इससे किसानों के उत्पादन लागत में 28 प्रतिशत की कमी आई है।
  • वहीं वैज्ञानिक शोध पर आधारित वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि विकासशील देशों में जीएम तकनीक से अमूमन सभी फसलों का उत्पादन 25 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है।
  • पर्यावरणविदों और पर्यावरण बचाओ आंदोलन से जुड़े लोगों का सम्मान करते हुए इस बात को रेखांकित किया जाना ज़रूरी है कि विरोध केवल विरोध के लिए ही नहीं होना चाहिये।
  • सभी पहलुओं पर अच्छी तरह से विचार-विमर्श करने तथा वैज्ञानिक परीक्षणों के नतीजे आने के बाद ही जीएम फसलों के पक्ष या विपक्ष में कोई अंतिम राय कायम करनी चाहिए।
  • दरअसल, किसानों में भी जीएम फसलों को लेकर दो गुट बन गए हैं । जीएम बीजों का बहिष्कार करने वाले किसान वर्ग का कहना है कि स्वदेशी कंपनियाँ विश्व बाजार संगठन की व्यूह रचना के तहत भारतीय किसानों पर विदेशी बीज लादकर उन्हें इन पर निर्भर बनाना चाहती हैं।
  • वहीं एक अन्य कृषक वर्ग भी है, जो जीएम फसलों के लाभों से परिचित हैं और उन्हें अपनाना चाहता है।

निष्कर्ष

  • जीएम को लेकर चल रही बहस के बीच ये कहना बड़ा कठिन है कि आखिर लकीर कहाँ खींची जाए, लेकिन एक महत्त्वपूर्ण हल सुझाया जाता है कि पैकेज़िंग कानूनों को मज़बूत किया जाए और उन्हें सख्ती से लागू किया जाए।
  • यानी जीएम फूड को बेचते वक्त पैकेट पर लगे लेबल पर सभी जानकारियाँ साफ-साफ लिखी हों। इससे लोगों को पता चल सकेगा कि वह क्या खा रहे हैं। इस तरह जिन लोगों को जीएम फूड से दूर रहना हो वह इसका इस्तेमाल नहीं करेंगे।
  • आज बाज़ारों में परंपरागत खाद्य पदार्थों के साथ आर्गेनिक या कार्बनिक खाद्य पदार्थ की भी जमकर खपत हो रही है। अतः उन्हें खरीदने का विकल्प, उपभोक्ता पर छोड देना चाहिये।
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