लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



संसद टीवी संवाद

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

स्वास्थ्य सेवाएँ निजी क्षेत्र के हाथ में

  • 28 Jul 2017
  • 12 min read

संदर्भ

  • हाल ही में नीति आयोग ने सुझाव दिया है कि ‘अर्बन हेल्थ केयर’ को अब निजी हाथों में दे देना चाहिये। इस दायरे में टियर-1 और टियर-2 श्रेणी के शहरों के ज़िला अस्पताल लाए जाएंगे।
  • दरअसल, भारत में गैर-संचारी रोगों के इलाज के लिये एक मॉडल अनुबंध का प्रस्ताव नीति आयोग और केंद्रीय स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण मंत्रालय ने किया है, जिसमें निजी अस्पतालों की भूमिका भी तय की जायेगी।
  • विदित हो कि जहाँ एक तबका इसके समर्थन में खड़ा दिख रहा हैं, वहीं दूसरा वर्ग इस प्रस्ताव का विरोध कर रहा है। आज वाद, प्रतिवाद और संवाद में हम देखेंगे कि यह कदम कितना उचित है?

वाद

  • नीति आयोग के इस प्रस्ताव में यह कहा गया है कि कैंसर, हृदय रोगों और श्वसन तंत्र संबंधी बीमारियों के इलाज के लिये ज़िला अस्पतालों में सार्वजनिक सुविधाएँ निजी प्रदाताओं को आउटसोर्स कर दी जाएंगी।
  • निजी अस्पतालों को यह स्वतंत्रता दी जाएगी कि वे सरकारी योजनाओं (जैसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना) द्वारा कवर नहीं किये गए मरीजों से पूरी उपचार लागत वसूल कर सकें। जिन लोगों का इलाज़ मुफ्त में होगा, उनके एवज़ में वह पैसा सरकार देगी।
  • इससे समस्या यह होगी कि निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता केवल उन्ही ज़िलों में सेवा देने को इच्छुक होंगे, जहाँ मरीज़ अधिक भुगतान करने में सक्षम होगा। इस प्रस्ताव का अर्थ है कि अधिकांश रोगियों को सार्वजनिक सुविधाओं के लिये भी भुगतान करना होगा।
  • दरअसल, हाल ही में किये गए सर्वेक्षणों से पता चला है कि सिर्फ 12-13% लोगों को सार्वजनिक वित्त पोषित बीमा द्वारा कवर किया जाता है। इस प्रस्ताव के तहत सरकार केवल उन्ही लोगों के इलाज का खर्च उठाएगी जो बीमा योजनाओं के अंतर्गत आते हैं।
  • यह प्रस्ताव स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच के मामले में पहले से ही व्याप्त असमानता को और बढ़ावा देगा। निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता केवल उन्ही ज़िलों पर ध्यान केन्द्रित करेंगे, जो तुलनात्मक रूप से संपन्न हैं और जहाँ के लोग समृद्ध हैं।
  • निजी क्षेत्र के सेवा प्रदाताओं का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना है और आने वाले समय में वे अपने शुल्क में इज़ाफा भी करेंगे और सरकार से अधिक अनुदान की माँग भी करेंगे।

प्रतिवाद

  • हाल ही में स्वास्थ्य सेवाओं के संबंध में नीति आयोग ने जो दस्तावेज़ पेश किया है, उसके बारे में यह अनुमान लगाना कि सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल की अपनी भूमिका से पीछे हट रही है, जो पूरी तरह से गलत है।
  • राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में स्पष्ट रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत बनाने की प्राथमिकता दी गई है तथा साथ ही यह भी  कहा गया है कि उन महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में जहाँ वर्तमान में सेवा प्रदान करने वाला कोई प्रदाता नहीं हैं या कुछ प्रदाता ही हैं, उन क्षेत्रों और उन सेवाओं के लिये रणनीतिक तैयारियाँ की जाएंगी।
  • दरअसल, हमारे यहाँ ज़िला अस्पतालों में कैंसर, हृदय-रोग और फेफड़े से संबंधित रोगों जैसी जटिल बीमारियों के इलाज़ के लिये आवश्यक सुविधाओं का अभाव है, ऐसे में प्रायः लोग निजी अस्पतालों की ही ओर रुख करते हैं। अतः इन अस्पतालों में निजी क्षेत्र के सेवा प्रदाताओं को आउटसोर्स करना व्यावहारिक कदम है।
  • एम्स जैसे अस्पताओं में इलाज के लिये महीनों पहले नंबर लगाना पड़ता है कभी-कभी तो मरीजों को अपनी बारी आने का इंतज़ार एक साल तक करना पड़ता है।
  • विदित हो कि गैर-संचारी रोग तेजी से फैल रहे हैं। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के लिये हार्वर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा 2014 के एक अध्ययन से पता चलता है कि अकेले हृदय रोग के कारण भारत को 2012 से 2030 के दौरान लगभग 2.17 खरब डॉलर का अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ेगा।
  • बीपीएल परिवारों और सरकारी बीमा योजनाओं के लाभार्थियों को ही इलाज के लिये सरकार द्वारा धन मुहैया कराया जाएगा, साथ ही अन्य लोगों के लिये भी इलाज़ का खर्च तुलनात्मक रूप से कम रखा जाएगा।

संवाद

  • ज़िला अस्पतालों में निजी क्षेत्र के निवेश को आमंत्रित करने का प्रस्ताव कुछ मुख्य अवधारणाओं पर आधारित है:

1. ज़िला अस्पतालों को अच्छी गुणवत्ता स्वास्थ्य सेवाओं के उन्नयन की आवश्यकता है।
2. चिकित्सा महाविद्यालय अस्पतालों और कॉरपोरेट अस्पतालों पर निर्भरता को कम करने की ज़रूरत है।
3. गैर-संचारी रोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।
4. कैंसर जैसे रोगों के इलाज के लिये आवश्यक सुविधाओं का अभाव है।
5. प्रस्तावित पीपीपी मॉडल साझा सुविधाओं और एक दोहरी भुगतान प्रणाली के साथ आसानी से कार्य कर सकता है।

  • नीति आयोग का प्रस्तावी दस्तावेज़ जिन अवधारणाओं पर आधारित है, वे बेशक काबिल-ए-तारीफ है, लेकिन हमें यह सोचना होगा क्या हम ज़िला अस्पतालों या अन्य स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति में सुधार केवल निजी निवेश के ज़रिये ही कर सकते हैं?
  • दरअसल, पीपीपी मॉडल के समर्थकों का तर्क है कि सार्वजनिक क्षेत्र की क्षमता के स्वीकार्य स्तर तक पहुँचने के लिये अभी समय लगेगा, लेकिन गैर-संचारी रोगों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है ऐसे में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के लिये यह मॉडल कितना कारगर होगा, इसमें संशय है।
  • एक ही अस्पताल में दो अलग-अलग सेवा प्रदाताओं का होना कितना व्यावहारिक है? क्या उनके बीच टकराव नहीं होगा? जबकि निजी क्षेत्र को सार्वजनिक क्षेत्र के संसाधनों के प्रयोग की इज़ाज़त होगी।
  • इस मॉडल को व्यवहार में लाते ही दो तरह के मरीजों का एक समूह बन जाएगा। एक वे जो सेवाओं के बदले भुगतान स्वयं की जेब से करेंगे और दूसरे वे जिनके एवज में सरकार भुगतान करेगी। क्या होगा यदि स्वयं भुगतान करने वालों से ही अस्पताल के सभी बेड भर जाएं। 
  • इन सभी बातों का ध्यान रखे बिना यह मॉडल शायद उतना कारगर न प्रमाणित हो पाए।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • निजी क्षेत्र के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतरी लाने का विचार तो ठीक है, लेकिन हमारा सार्वजनिक क्षेत्र स्वयं स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च के मामले में कंजूस प्रमाणित हुआ है। हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में सबसे कम खर्च करने वाले देशों की सूची में बहुत ऊपर हैं।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों के अनुसार किसी भी देश को अपने सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का कम से कम 5 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिये लेकिन भारत में पिछले कई दशकों से यह लगातार 1 प्रतिशत के आसपास बना हुआ है। हालाँकि नई स्वास्थ्य नीति में यह लक्ष्य 3 प्रतिशत रखा गया है।
  • यह एक प्रचलित धारणा है कि सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र की तुलना में कम कुशल होते हैं, जो कि सत्य नहीं है। सरकार को इस प्रचलित धारणा से प्रभावित होने की बिलकुल भी ज़रूरत नहीं है। सार्वजनिक निवेश के माध्यम से स्वास्थ्य क्षेत्र को बेहतर बनाने के प्रयास किये जाने चाहिये।

निष्कर्ष

  • भारतीय संविधान अपने नागरिकों को “जीवन की रक्षा का अधिकार” देता है, राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में भी “पोषाहार स्तर, जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्‍थ्‍य में सुधार करने को लेकर राज्‍य का कर्तव्य” की बात की गई है।
  • लेकिन ज़मीनी हकीकत ठीक इसके विपरीत है। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाएँ भयावह रूप से लचर हैं। सरकारों को चाहिये कि वे लोक स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी से स्वयं को अलग न करे।
  • आज हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाएँ काफी खर्चीली और आम आदमी की पहुँच से काफी दूर हो गई हैं। प्राइवेट अस्पतालों को अंतिम विकल्प बना दिया गया है।
  • विदित हो कि स्वास्थ्य सेवाओं में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के भागीदारियों को लेकर विश्व के तमाम देशों में तीन प्रकार के मॉडल देखे जाते हैं।
  • पहले मॉडल में स्वास्थ्य सेवाओं में केवल राज्य की ही भूमिका होती है, जबकि दूसरे मॉडल में स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के माध्यम से चिकित्सीय खर्चों का वहन किया जाता है और तीसरे मॉडल में केवल निजी क्षेत्र ही स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करता है।
  • यह जानकार दुखद आश्चर्य होता है कि भारत इन तीनों में से किसी भी मॉडल का पूर्णरूपेण अनुपालन नहीं करता और शायद यही कारण है कि निजी क्षेत्र मनमाने तरीके से बढ़ता जा रहा है।
  • भारत में स्वास्थ्य जैसे महत्त्वपूर्ण विषय के लिये एक विजन और स्पष्ट नीति होने चाहिये। पीपीपी मॉडल यानी ‘पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल में पब्लिक यानी सार्वजनिक क्षेत्र की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। हमें ख्याल रखना होगा कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप कहीं ‘प्योर प्राइवेट पार्टनरशिप’ मॉडल न बन जाए।
close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2