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जैव विविधता और पर्यावरण

अस्तित्व: एनजीटी की हालत और पर्यावरण का भविष्य

  • 31 May 2018
  • 15 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (National Green Tribunal-NGT) की स्थापना 18 अक्तूबर 2010 को एनजीटी अधिनियम, 2010 के तहत पर्यावरण संरक्षण, वन संरक्षण, प्राकृतिक संसाधनों सहित पर्यावरण से संबंधित किसी भी कानूनी अधिकार के प्रवर्तन, दुष्प्रभावित व्यक्ति अथवा संपत्ति के लिये अनुतोष और क्षतिपूर्ति प्रदान करने एवं इससे जुडे़ हुए मामलों के प्रभावशाली और त्वरित निपटारे के लिये की गई थी।

  • सरल भाषा में इसे 'पर्यावरण अदालत' कहा जा सकता है, जिसे हाई कोर्ट के समान शक्तियां प्राप्त हैं।
  • अंतर केवल यह है कि हाई कोर्ट को शक्तियाँ संविधान से प्राप्त हैं और एनजीटी को इसके लिये बनाए गए अधिनियम से, इसीलिये इनकी शक्तियों में अंतर है।
  • 18 अक्तूबर 2010 को जस्टिस लोकेश्वर सिंह पंटा को इसका पहला अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।
  • आजकल इस महत्त्वपूर्ण अधिकरण में सदस्यों की कमी चिंता का विषय बनी हुई है, जिसकी वज़ह से इसका कामकाज बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
  • 6 महीने से इसका कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है, जब दिसंबर 2017 में अपना पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने के बाद इसके अध्यक्ष जस्टिस स्वतंत्र कुमार सेवानिवृत्त हुए थे।
  • उनके बाद कार्यवाहक अध्यक्ष के तौर पर जस्टिस यू.डी. साल्वी की नियुक्ति की गई थी और वे भी फरवरी 2018 में सेवानिवृत्त हो गए।
  • उनके बाद जस्टिस जावेद रहीम कार्यवाहक अध्यक्ष के तौर पर ज़िम्मेदारियों का निर्वहन कर रहे हैं।

एनजीटी की संरचना

  • एनजीटी अधिनियम की धारा 4 में प्रावधान है कि एनजीटी में एक पूर्णकालिक अध्यक्ष, कम-से- कम 10 न्यायिक सदस्य और 10 विशेषज्ञ सदस्य होने चाहिये, लेकिन यह संख्या 20 पूर्णकालिक न्यायिक और विशेषज्ञ सदस्यों से अधिक नहीं होनी चाहिये। अधिकरण की प्रमुख पीठ नई दिल्ली में स्थित है, जबकि भोपाल, पुणे, कोलकाता और चेन्नई में इसकी क्षेत्रीय पीठें हैं। इसकी सर्किट पीठें शिमला, शिलॉन्ग, जोधपुर और कोच्चि में हैं।

एनजीटी के प्रमुख उद्देश्य 

  • एनजीटी का उद्देश्य पर्यावरण के मामलों को द्रुत गति से निपटाना तथा उच्च न्यायालयों के मुकदमों के भार को कम करने में मदद करना है।
  • यह एक विशिष्ट निकाय है, जो पर्यावरण संबंधीविवादों एवं बहु-अनुशासनिक मामलों को सुविज्ञता से संचालित करने के लिये सभी आवश्यक तंत्रों से सुसज्जित है।
  • एनजीटी, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत निर्धारित प्रक्रिया द्वारा बाध्य नहीं है, लेकिन इसे नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित किया जाता है।
  • अधिकरण आवेदनों या अपीलों के प्राप्त होने के 6 महीने के अंदर उनके निपटान का प्रयास करता है।

क्यों ज़रूरत पड़ी एनजीटी की?

  • देश में न्यायिक और प्रशासनिक क्रियाकलापों से यदि पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है, तो उसके निवारण और पीड़ित पक्षों को त्वरित समुचित राहत और मुआवज़ा प्रदान करने के उद्देश्य से एनजीटी की स्थापना की गई।
  • एनजीटी को ऐसे अधिकार दिये गए हैं, जिनके द्वारा पर्यावरण से जुड़े विवादों का हल तो जल्दी होता ही है, साथ ही अन्य न्यायालयों का कार्यभार भी कम होता है, क्योंकि एनजीटी में किसी भी विवाद को 6 महीने के भीतर सुलझाने का प्रयास किया जाता है।
  • इस अधिकरण के पास वनों की सुरक्षा और संरक्षण सुनिश्चित करना, प्राकृतिक स्रोतों का संरक्षण, पर्यावरण से जुड़े कानूनी अधिकारों की रक्षा के साथ किसी नागरिक के अधिकारों के हनन पर उन्हें आर्थिक सहायता उपलब्ध कराना आदि मुद्दे आते हैं।
  • विदित हो कि न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया के बाद भारत विश्व के उन गिने-चुने देशों में शामिल है जहाँ पर्यावरण से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिये अलग से विशेष अधिकरण की स्थापना की गई है।

कौन जा सकता है एनजीटी में?

  • क्या आप अपने घर या ऑफिस के पास या कहीं और पर्यावरण संबंधी किसी बड़ी समस्या से परेशान हैं?
  • क्या आप पर्यावरण संबंधी किसी सरकारी आदेश या न्यायिक फैसले का उल्लंघन होते देख रहे हैं और उसके खिलाफ शिकायत करना चाहते हैं?
  • क्या प्रदूषण और पर्यावरण क्षति से आपको शारीरिक या मानसिक क्षति पहुँची है?

यदि इन सवालों का या ऐसे ही किन्हीं अन्य सवालों का जवाब 'हाँ' में है तो आपके लिये एनजीटी में जाने के रास्ते खुले हैं, जहाँ आपकी समस्या का समाधान हो सकता है।

यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है कि एनजीटी के फैसले से असंतुष्ट होने की स्थिति में 90 दिनों के भीतर इसके फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

अधिकांश पद खाली पड़े हैं एनजीटी में

  • पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े मामलों पर सुनवाई करने तथा  सरकारी एजेंसियों को सचेत और आम जनता को जागरूक करने के लिये कई ऐतिहासिक फैसले देने वाला एनजीटी वर्तमान में सदस्यों की कमी से जूझ रहा है।
  • इसके न्यायिक और एक्सपर्ट मेंबर एक-एक कर रिटायर हो चुके हैं, और खाली हुए पद लंबे समय से रिक्त ही पड़े हैं।
  • दिल्ली स्थित मुख्य बेंच का हाल यह है कि सदस्यों की कमी की वज़ह से संयुक्त बेंच से काम चलाना पड़ रहा है, क्योंकि अलग-अलग कोर्ट चलाने के लिये पर्याप्त सदस्य ही नहीं हैं।
  • सदस्यों की कमी के चलते तब बेहद अटपटी स्थिति उत्पन्न हो गई, जब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (प्रैक्टिस एंड प्रोसीजर) संशोधित नियम 2017 में हुए फेरबदल के तहत यह व्यवस्था की गई कि संशोधित नियमों के तहत एक सदस्यीय बेंच भी मामलों की सुनवाई कर सकती है। 
  • इससे पहले के नियम के तहत एनजीटी की बेंच में कम-से-कम दो न्यायिक अधिकारियों का होना अनिवार्य था।
  • एनजीटी बार एसोसिएशन ने इन संशोधित नियमों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है कि इन्हें खारिज किया जाए।
  • उल्लेखनीय है कि कई प्रमुख पद खाली होने की वज़ह से एनजीटी की कार्यवाही पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और मुकदमों की सुनवाई भी प्रभावित हुई है।

संविधान में है 'पर्यावरण संरक्षण' का उल्लेख

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 323-B संसद को श्रम विवाद, पर्यावरण इत्यादि के संबंध में अधिकरण (Tribunal) बनाने के लिये विधि निर्माण की शक्ति प्रदान करता है। इसी के तहत  पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण कानून, 2010 के माध्यम से एनजीटी की स्थापना की गई थी।

  • भारत के संविधान में ‘पर्यावरण संरक्षण’ का स्पष्ट उल्लेख 1977 में किया गया।
  • संविधान लागू होने के 28 साल बाद संसद ने 1977 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा केंद्र तथा राज्य सरकारों के लिये पर्यावरण को संरक्षण तथा बढ़ावा देना अनिवार्य कर दिया।
  • राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में अनुच्छेद 48ए जोड़ा गया। इस अनुच्छेद के अनुसार, ‘‘राज्य पर्यावरण के संरक्षण एवं सुधार और देश के वनों तथा वन्यजीवों की सुरक्षा के लिये प्रयास करेगा।’’
  • इसी संशोधन के तहत संविधान में अनुच्छेद 51ए(जी) भी जोड़ा गया जिसमें कहा गया है कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह ‘‘प्राकृतिक वातावरण के संरक्षण तथा सुधार के लिये कार्य करे तथा जीवित प्राणियों के प्रति दया भाव रखे, जिनमें वन, झील, नदियाँ तथा वन्यजीव शामिल हैं।’’

सुप्रीम कोर्ट ने दिया था पर्यावरण को जीने के मौलिक अधिकार के समान दर्जा

1974 में संसद ने जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण अधिनियम पारित किया था। इस अधिनियम के तहत जनसरोकार के पहले मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने 1991 में फैसला सुनाया था। यह मामला सुभाष कुमार बनाम बिहार सरकार का था, जिसमें शिकायतकर्त्ता ने बोकारो नदी में कोयले की राख फेंके जाने पर चिंता जताई थी।

  • तब अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत पर्यावरण को जीने के मौलिक अधिकार के बराबर रखते हुए कहा कि कोई भी सत्ताधारी दल सामान्य संशोधनों द्वारा इसमें परिवर्तन नहीं कर सकता।

इसके साथ ही पर्यावरणीय मामलों पर जन सरोकार के कानूनों के दुरुपयोग की संभावनाओं को देखते हुए अदालत ने व्यवस्था दी कि ‘‘संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत ‘जीने का अधिकार मौलिक अधिकार’ है तथा इसमें जीवन का आनंद उठाने के लिये प्रदूषण रहित पानी तथा हवा का लाभ शामिल है। यदि कानून का उल्लंघन कर जीवन की इस गुणवत्ता को नुकसान पहुँचाने का प्रयास किया जाता है तो नागरिकों को अनुच्छेद 32 के तहत यह अधिकार है कि वे पानी अथवा हवा को प्रदूषण मुक्त करने की मांग करें जो उनके जीवन की गुणवत्ता के मार्ग में बाधक हैं।’’ 

अनुच्छेद 32 के तहत प्रभावित व्यक्तियों या सामाजिक कार्यकर्त्ताओं अथवा पत्रकारों द्वारा सामूहिक रूप से याचिका दायर की जा सकती है। इस अनुच्छेद के तहत मामला तभी दायर किया जाना चाहिये जब ‘‘समाज के संरक्षण की दृष्टि से ऐसा किया जाना ज़रूरी हो।’’

(टीम दृष्टि इनपुट)

पर्यावरणीय मामलों में एनजीटी की बढ़ती सक्रियता इस बात का संकेत है कि पर्यावरण संरक्षण के मुद्दों को अब हल्के में नहीं लिया जा सकता। एनजीटी लगातार सार्वजनिक संस्थाओं और निजी क्षेत्र के साथ-साथ आम नागरिकों को पर्यावरणीय संरक्षण के लिये संवेदनशील बनाने की दिशा में प्रयास करता रहा है। एनजीटी द्वारा बार-बार इस बात पर बल दिया जाता है कि शासन-प्रशासन के विभिन्न अंगों द्वारा देश के विकास के लिये योजनाएँ एवं नीतियाँ बनाने और उन्हें लागू करने के समय इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि पर्यावरण की कीमत पर अंधाधुंध तरीके से आर्थिक संवृद्धि की राह पर चलना पर्यावरण व मानव समाज दोनों के लिये समान रूप से घातक हो सकता है।

निष्कर्ष: पर्यावरण संरक्षण का काम अकेले किसी सरकार, किसी न्यायालय, किसी अधिकरण या कुछ एनजीओ के बस का नहीं है, इसके लिये सक्रिय जनसहयोग बेहद आवश्यक है, जिसके बिना यह कार्य पूरा हो ही नहीं सकता। प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ते जनसंख्या दबाव और ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में संपोषणीय रहन-सहन की चिंता करना समय की मांग है; और इसका इसका एकमात्र विकल्प है पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों, उत्पादों और स्वच्छ पर्यावरणीय ऊर्जा को अपनाना।

पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के समाधान के लिये इस न्यायाधिकरण की स्थापना पर्यावरण सुरक्षा एवं वनों व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण तथा पर्यावरण से संबंधित किसी कानूनी अधिकार के प्रवर्तन और व्यक्तियों व परिसंपत्तियों को क्षति पहुँचाने के लिये सहायता प्रदान करने एवं क्षतिपूर्ति देने के मामलों को प्रभावी रूप से तथा तेज़ी से निपटाने के लिये की गई थी, जिसमें यह काफी हद तक सफल भी रहा है।

1992 में रियो डि जेनेरियो में हुए पर्यावरण और विकास से संबंधित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में विभिन्न राष्ट्रों ने, जिनमें भारत भी शामिल था, यह निर्णय लिया था कि न्यायिक और प्रशासनिक कार्यवाहियों से यदि पर्यावरण को क्षति पहुँच रही है, तो उसका निराकरण कर पीड़ित पक्षों को समुचित राहत और मुआवज़ा प्रदान किया जाए। एनजीटी न केवल पर्यावरण लोकतंत्र को लागू करने की दिशा में कदम है, बल्कि रियो में लिये गए निर्णय को भी पूरा करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहा है।

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