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शासन व्यवस्था

देश देशांतर : सांसद निधि और चुनौतियाँ

  • 07 Sep 2018
  • 23 min read

संदर्भ

सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना यानी ‘एमपीलैड’ की शुरुआत 1993 में हुई थी। एमपीलैड का बेहतर और पूरा इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिये 30 अगस्त को 21वीं अखिल भारतीय समीक्षा हुई। लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों ने अप्रैल 2014 से अब तक कुल 4 लाख 67 हज़ार से अधिक कामों की सिफारिश की जिसमें से 4 लाख 11 हज़ार 612 कामों को मंज़ूरी मिली और इनमें से 3 लाख 84 हज़ार 260 काम 31 जुलाई, 2018 तक पूरे किये गए। समीक्षा बैठक में सांसद को कार्यकाल के दौरान मिलने वाली सांसद निधि का उपयोग करने में उसके समक्ष आने वाली रुकावटों को दूर करने पर चर्चा हुई।

पृष्ठभूमि 

  • एमपीलैड योजना 23 दिसंबर, 1993 को पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा शुरू की गई थी ताकि सांसदों को ऐसा तंत्र उपलब्ध कराया जा सके जिससे वे स्थानीय लोगों की ज़रूरतों के अनुसार स्थायी सामुदायिक परिसंपत्तियों के निर्माण और सामुदायिक बुनियादी ढाँचा सहित उन्हें बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने के लिये विकासकारी कार्यों की सफ़ारिश कर सकें।
  • यह योजना ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा फरवरी 1994 में पहली बार जारी किये गए दिशा-निर्देशों के अनुसार संचालित की जाती है।
  • ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा इस योजना को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय को हस्तांतरित करने के बाद दिसंबर 1994 में संशोधित दिशा-निर्देश जारी किये गए।
  • इन दिशा-निर्देशों में फरवरी 1997, सितंबर 1999, अप्रैल 2002, नवंबर 2005, अगस्त 2012 और मई 2014 में पुनः संशोधन किये गए।
  • दिशा-निर्देशों को संशोधित करते समय सांसदों, सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना से संबंधित राज्यसभा और लोकसभा की समितियों, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक तथा तत्कालीन योजना आयोग (अब नीति आयोग) के कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन, सभी हितधारकों के सुझावों और विगत वर्ष के कार्य अनुभवों को ध्यान में रखा गया है।

क्या है एमपीलैड?

  • सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास प्रभाग को सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (MPLAD) के कार्यान्वयन का दायित्व सौंपा गया है। योजना के तहत प्रत्येक सांसद को अपने निर्वाचन क्षेत्र में 5 करोड़ रुपए तक की लागत के कार्यों के बारे में ज़िला कलेक्टर को सुझाव देने का विकल्प दिया गया है।
  • राज्यसभा सांसद उस राज्य के किसी एक अथवा अधिक ज़िलों में कार्यों की सिफारिश कर सकता है, जहाँ से वह निर्वाचित हुआ है।
  • लोकसभा तथा राज्यसभा के नामित सदस्य इस योजना के तहत देश के किसी भी राज्य में अपनी पसंद के एक या अधिक ज़िलों का चुनाव कर कार्य कर सकते हैं।
  • राष्ट्रीय प्राथमिकताओं अर्थात् पेयजल, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता और सड़कों  जैसी स्थायी परिसंपत्तियों के सृजन हेतु कुछ कार्यों का चयन कर सकते हैं।
  • बाढ़, चक्रवात, सुनामी, भूकंप, तूफान और अकाल जैसी आपदाओं से ग्रसित क्षेत्रों में कार्यों को कार्यान्वित किया जा सकता है। उक्त आपदाग्रस्त राज्य के सुरक्षित क्षेत्रों के लोकसभा सांसद राज्य के प्रभावित क्षेत्रों में अधिकतम 10 लाख रुपए प्रतिवर्ष तक के अनुमेय कार्यों की अनुशंसा कर सकते हैं।
  • देश में विकराल प्राकृतिक आपदा आने पर सांसद प्रभावित ज़िले के लिये अधिकतम एक करोड़ रुपए के कार्यों की अनुशंसा कर सकते हैं। आपदा, विकराल है या नहीं यह भारत सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
  • यदि कोई निर्वाचित संसद सदस्य  उस राज्य/केंद्रशासित क्षेत्र  जिससे वह चुना गया है, की शिक्षा एवं संस्कृति का प्रचार दूसरे राज्य/केंद्रशासित क्षेत्र में करना चाहता है, तो वह इन दिशा-निर्देशों के अधीन एक वित्त वर्ष में अधिकतम 10 लाख रुपए तक के उन कार्यों जो दिशा-निर्देशों में प्रतिबंधित नहीं हैं, का चयन कर सकते हैं।
  • यदि किसी कार्य की अनुमानित राशि, संसद सदस्य द्वारा कार्य के लिये इंगित राशि से अधिक है तो स्वीकृति देने से पूर्व संसद सदस्य की सहमति आवश्यक है।
  • सांसद द्वारा अनुशंसित योजनाओं में दो लाख रुपए तक की योजना का कार्यान्वयन लाभुक समिति तथा दो लाख रुपए से अधिक 15 लाख रुपए तक की योजनाओं का कार्यान्वयन विभागीय एवं 15 लाख से अधिक की योजनाओं का कार्यान्वयन निविदा के माध्यम से किया जाता है।

सांसद निधि और चुनौतियाँ?

  • 1993 में जब इस योजना की शुरुआत हुई थी तब तत्कालीन सांसदों का मानना था की उनको एक राष्ट्रीय राशि मिलनी चाहिये क्योंकि वे सांसद होने की वजह से जहाँ कहीं भी जाते हैं आमतौर पर लोग अपने गाँव या शहर की सड़कें, स्वास्थ्य केंद्र या विद्यालयों की बदहाल स्थिति में सुधार की मांग करते हैं।
  • लेकिन समय के साथ इसका फायदा कम नुकसान अधिक हुआ। नुकसान इसलिये हुआ क्योंकि लोगों की अपेक्षाएँ बढ़ती गईं।
  • लोग सांसद से यह उम्मीद करने लगे कि गाँव की सड़क, नाली, स्कूल भी वही बनवाएगा जबकि देश में त्रिस्तरीय व्यवस्था है, पंचायती राज, विधानसभा तथा लोकसभा और इन तीनों की अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ हैं।
  • विधायकों के लिये भी विधायक निधि की व्यवस्था की गई जिससे वे अपने हिसाब से काम करने लगे जिससे पंचायती राज की भूमिका कम हो गई और सांसदों की भूमिका ज़्यादा बढ़ गई और इसके कारण सांसदों पर दबाव ज़्यादा बढ़ गया। 
  • लोगों की आशाएँ, अपेक्षाएँ सांसदों से ज़्यादा जुड़ गईं जिसे सांसद पूरा नहीं कर पा रहे हैं।
  • सांसद निधि के तहत दी गई राशि भी बहुत सीमित है। इस संबंध में लोकसभा के पूर्व उपसभापति एम थम्बीदुरई की अध्यक्षता में एक कमेटी भी बनाई गई। कमेटी ने सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद सांसद निधि की रकम को 5 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 25 करोड़ रुपए किये जाने का सुझाव दिया।
  • लोकसभा में रिपोर्ट पेश करते समय थंबीदुरई ने कहा था कि सांसद निधि के तहत प्रतिवर्ष 5 करोड़ रुपए बेहद कम हैं। संसदीय क्षेत्र का आकार काफी बड़ा होने के कारण यह रकम सांसदों के लिये समस्या बनती जा रही है।
  • आज हर चीज़ की कीमत बढ़ती जा रही है ऐसे में पाँच करोड़ रुपए की राशि पर्याप्त नहीं है।

सांसद और विधायक निधि के औचित्य पर सवाल

  • पिछले कई वर्षों से सांसद निधि को लेकर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की शिकायतें आती रही हैं। 2009 में प्रशासनिक सुधार आयोग ने कहा था कि सांसद निधि और विधायक निधि में जिस पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है तथा जिस तरह जनता के पैसे का दुरुपयोग हो रहा है, उसे देखते हुए इन निधियों की व्यवस्था तत्काल बंद कर देनी चाहिये। 
  • 2008 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी सदन में कहा था कि यह योजना तुरंत बंद कर दी जानी चाहिये।
  • भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने भी 2010-11 की अपनी रिपोर्ट में इसके क्रियान्वयन में व्याप्त भ्रष्टाचार का उल्लेख किया था।
  • एक तरफ सांसदों को जन-लोकपाल के दायरे में लाने की मांग देश भर में चल रही है, वहीँ अनेक सांसदों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले लंबित हैं।
  • संसद में आपराधिक छवि वाले सांसदों की संख्या 33 प्रतिशत से ज़्यादा है। वैसे भी यह आम धारणा बन चुकी है कि सांसद निधि भ्रष्टाचार का पोषण करती है।
  • कुछ अर्सा पहले एक स्टिंग के ज़रिये कुछ सांसदों को ठेके के लिये कमीशनबाज़ी करते रंगे-हाथों पकड़ा जा चुका है।
  • ज़मीनी स्तर पर विकास किये जाने के लिये आवंटित सांसद निधि की रकम आमतौर पर राजनीतिक लाभ के लिये खर्च की जाती है या फिर राजनेताओं के अपने काम में खर्च होती है।
  • भारत का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) सांसद निधि के इस्तेमाल में ठेका-प्रथा और कमीशनखोरी पर अपनी आपत्ति दर्ज करा चुका है।  
  • कैग की रिपोर्ट बताती है कि 11 राज्यों में सांसद निधि से प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री राहत कोष को सात करोड़ 37 लाख रुपए किस तरह नियम विरुद्ध दिये गए।
  • 14 राज्यों में सांसदों ने एयरकंडीशनर, फर्नीचर खरीदने के अलावा ट्रस्ट के अस्पतालों एवं स्कूलों को किस तरह छह करोड़ रुपए दे दिये। 6 राज्यों में सांसद निधि से सात करोड़ रुपए खर्च कर कुछ गिने-चुने लोगों के नाम पर निर्माण कार्य कराए गए।
  • आमतौर पर चुनावी वर्ष में यह निधि दिल खोलकर खर्च की जाती है। जाहिर है, इस निधि का इस्तेमाल राजनीतिक प्रयोजन के लिये अधिक हो  रहा है।
  • प्रशासनिक आयोग भी सांसद निधि समाप्त करने की सिफारिश कर चुका है। आयोग का तर्क है कि सांसदों का काम प्रशासनिक खर्च पर नज़र रखना है, न कि स्थानीय निकायों के काम करना। 
  • प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद निधि पर निगरानी रखने के लिये थर्ड पार्टी द्वारा निगरानी रखने का फैसला किया था। लेकिन उसके बाद भी सरकार का आकलन है कि सांसद निधि के इस्तेमाल में पारदर्शिता नहीं है।
  • ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक देश के 200 सांसद अपनी विकास निधि का 12 हज़ार करोड़ रुपए नहीं खर्च कर पाए हैं। जिसमें से ज़्यादातर राशि ज़िला एजेंसी या प्राधिकारियों के खाते में पड़ी है।

क्या सांसद निधि में बड़े बदलाव की ज़रुरत है?

  • सांसद निधि बजट का हिस्सा होती है जिसे सांसद ही पारित करते हैं। उसी तरह राज्य सरकार का बजट विधायक पारित करते हैं। सांसदों को कुछ अतिरिक्त अधिकार देने के लिये सांसद या विधायक निधि की शुरुआत की गई।
  • सभी राज्यों में विधायक निधि बनने के बाद यह एक तरह से राजनीतिक मामला हो गया।
  • इन निधियों में विभाजन की ज़रूरत है और यह स्पष्ट किये जाने की ज़रूरत है कि स्थानीय निकायों और पंचायतों की क्या ज़िम्मेदारियाँ होंगी? ज़िला स्तर के लोगों तथा विधायक निधि की ज़िम्मेदारियाँ क्या होंगी? उसी तरह सांसद निधि की ज़िम्मेदारियाँ भी परिभाषित की जानी चाहिये।
  • क्योंकि अगर सांसद निधि से हैंडपंप और नाली का निर्माण होगा, जबकि वही काम विधायक भी करा सकता है, तो सांसद निधि का महत्त्व कम हो जाएगा।
  • जैसा कि पहले भी सांसद निधि पर आरोप लगते रहे हैं कि इसका राजनीतीकरण हो गया है। प्रायः ऐसा कहा जाता है कि उन स्थानों पर सांसद निधि से अधिक काम किये जाते हैं जहाँ उनके समर्थक ज़्यादा होते हैं। अतः कार्यों का समान वितरण होना चाहिये।
  • एमपीलैड के आँकड़ों के अनुसार, इसके क्रियान्वयन, सर्टिफिकेशन, मासिक रिपोर्ट, प्रगति रिपोर्ट की ज़िम्मेदारी ज़िला प्रशासन की है जिसका क्रियान्वयन होने में काफी देरी होती है। ऐसे में उस सांसद का क्या दोष है जिसने उस फंड को जारी करने के लिये अपनी स्वीकृति दी थी।
  • ऐसे में उस ज़िला प्रशासन की ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिये जिसे सर्टिफिकेट मुहैया कराने हैं तथा निगरानी करने की ज़िम्मेदारी दी गई है। 
  • सांसद निधि के प्रोजेक्ट पर कौन-सी कार्यदायी संस्था काम करेगी इसमें भी मतभेद उजागर होने से कार्य प्रभावित होते देखा गया है। जब तक राज्य प्रशासन और ज़िला प्रशासन में बेहतर तालमेल नहीं होगा कठिनाइयाँ आती रहेंगी।
  • किस प्रोजेक्ट पर काम करना है, इसके लिये पहले से एक सूची तैयार होनी चाहिये। सूची में दी गई परियोजनाओं का चुनाव सांसदों को करना चाहिये और फिर उस प्रोजेक्ट को ज़िला परियोजना या राज्य परियोजना में शामिल कर केंद्र की अनुमति के साथ क्रियान्वित किया जाए तो उसकी निगरानी बेहतर तरीके से हो सकती है।
  • प्रधानमंत्री सांसद आदर्श ग्राम योजना के अंतर्गत आदर्श ग्राम पंचायत बनाने की बात कही गई है, जबकि इसके लिये किसी फंड का आवंटन नहीं किया गया गया है जिसके कारण यह योजना विफल हो रही है। ऐसे में इसके लिये फंड का आवंटन किया जाना ज़रूरी है।
  • सांसद निधि के अंतर्गत जारी होने धन का उपयोग होने के बाद उसका अगला भाग जारी किया जाता है। इस प्रक्रिया में भी बदलाव की ज़रूरत है।
  • राज्य की क्रियान्वयन एजेंसी को विकास के प्रति संवेदनशील होना भी एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

ज़िला प्रशासन में पारदर्शिता की ज़रूरत 

  • सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (एमपीलैड) की 21वीं अखिल भारतीय समीक्षा बैठक में यह राय व्यक्त की गई है कि ज़िला स्तर पर इस योजना के क्रियान्वयन में सबसे बड़ी बाधा ऑडिट प्रमाण पत्र, निधि के इस्तेमाल का प्रमाण पत्र, निधि के इस्तेमाल का अंतरिम प्रमाण पत्र, मासिक प्रगति रिपोर्ट, बैंक की ओर से दिया गया विवरण और मासिक आनलाइन प्रगति रिपोर्ट जैसे आवश्यक दस्तावेज़ों को मंत्रालय में समय पर जमा नहीं किया जाना है।
  • सांसद निधि का खर्च करने का वीटो पॉवर ज़िला स्तर पर है और ऐसे में ज़िम्मेदारी सिर्फ सांसद पर डाल देना कि पैसा खर्च नहीं हुआ या सही तरीके से इस्तेमाल नहीं हुआ, ठीक नहीं होगा।
  • सांसद निधि के अंतर्गत कार्यों की निगरानी ज़िला प्रशासन के द्वारा की जाती है इसमें पारदर्शिता लाए जाने की आवश्यकता है ताकि इन कार्यों का श्रेय संबंधित सांसद को भी मिल सके।
  • कभी-कभी राजनीतिक कारणों से भी इन परियोजनाओं को रोकने की कोशिश की जाती है, खासकर ऐसे राज्यों में जहाँ केंद्र और राज्यों में एक ही दल की सरकारें नहीं होती हैं।
  • किसी योजना का प्राक्कलन बनाने से लेकर उसके कार्यान्वयन तक की सारी ज़िम्मेदारी ज़िला प्रशासन की होती है। अगर ज़िला प्रशासन सहयोग नहीं देगा तो समय पर किसी भी प्रोजेक्ट का क्रियान्वयन नहीं हो सकता।
  • योजना के क्रियान्वयन में व्यावहारिक त्रुटियों को दूर करते हुए यह तय करना होगा कि MPLAD के माध्यम से किन-किन मदों में धन खर्च होगा, विधायक निधि किन मदों में खर्च की जाएगी तथा पंचायती राज व स्थानीय निकाय की क्या ज़िम्मेदारियाँ होंगी। जब तक इसे परिभाषित नहीं किया जाएगा ओवरलैपिंग होती रहेगी।
  • सांसद, विधायक, स्थानीय निकाय और ग्राम पंचायतों के एक ही काम करने की व्यवस्था को बदलने की ज़रूरत है। 
  • राजनीतिक दबाव के चलते प्रशासन की नकारात्मक मानसिकता बदलने की ज़रुरत है।
  • सही बात यह है कि इसमें जितनी पेचिदगियाँ हैं, इन सब की ज़िम्मेदारी ज़िला प्रशासन पर आकर ख़त्म हो जाती है जिसकी वजह से कभी-कभी काम में विलंब होता है और बदनामी सांसद की होती है।

एमपीलैड के अंतर्गत किये जाने वाले कार्य 

  • लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों द्वारा अप्रैल 2014 से अब तक कुल 4,67,144 कामों की सिफारिश की गई जिसमें से 4,11,612 कामों को  मंज़ूरी दी गई और इनमें से 3,84,260 काम 31 जुलाई, 2018 तक पूरे कर दिये गए।
  • एमपीलैड कार्यक्रम के शुरू होने के बाद 31.07.2018 तक इसके लिये कुल 47,922.75 करोड़ रुपए जारी किये जा चुके हैं जिसमें से 45604.94 करोड़ रुपए इस्तेमाल किये जा चुके हैं जो कि जारी की गई राशि का करीब 95 प्रतिशत है।

योजना का प्रभाव 

  • सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना का उद्देश्य जनप्रतिनिधियों को स्थानीय क्षेत्र के लोगों की बुनियादी दुविधाओं से जुड़ी ज़रूरतों को सीधे तौर पर पूरा करने की सामर्थ्य प्रदान करना है।
  • संसद सदस्यों द्वारा अनुसंशित कार्यों की जाँच-पड़ताल की जाती है और पात्र कार्यों को ज़िला प्राधिकारियों द्वारा निष्पादित किया जाता है।
  • योजना के तहत शुरुआत से ही विभिन्न क्षेत्रों जैसे- पेयजल आपूर्ति, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, बिजली, सामुदायिक केंद्र, रेलवे, सड़क, रास्ते और पुल, सिंचाई, गैर-परंपरागत ऊर्जा, बस-स्टैंड/पड़ाव जैसी टिकाऊ परिसंपत्तियों का निर्माण कर स्थानीय निवासियों को लाभ पहुँचाया गया है। 

निष्कर्ष 

समय-समय पर यह मांग उठती रही है कि सांसद निधि का कम-से-कम आधा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले नवयुवकों के कौशल विकास पर खर्च होना चाहिये, ताकि वे शहरों में नौकरी प्राप्त कर सकें या स्वरोज़गार स्थापित कर सकें। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इनमें से किसी भी मांग पर ध्यान नहीं दिया गया और न ही सरकार की नीतियों में कोई बदलाव ही आया है। कुल मिलाकर सांसद निधि की वर्षों पुरानी व्यवस्था पुराने ढर्रे पर ही चलती नज़र आ रही है। यहाँ यह कहना भी गलत नहीं होगा कि सांसद निधि के उपयोग में पिछले अनेक वषों से गंभीर अनियमितताएँ पाई गई हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस निधि पर फिर से विचार किया जाए क्योंकि यह जनता की गाढ़ी कमाई है। सरकार ने सांसद निधि के स्वरूप में समानता रखते हुए क्षेत्रों की भौगोलिक विभिन्नता की भी अनदेखी की है। पठार वाले क्षेत्र और मैदानी इलाकों की योजना-जरूरतों में फर्क है, इसे सुधारने की कोशिश नहीं की गई है जो कि एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। उनका यह रवैया बेमेल और विभेदकारी विकास को बढ़ावा देता है। वहीं, ऐसे सांसदों की भी तादाद कम नहीं है जो इस राशि को छूते तक नहीं। सवाल यह है कि क्या राजनैतिक नफे-नुकसान के लिये सांसदों को उपकृत करना ही सरकार की प्राथमिकता है। आज यह जानने की ज़रूरत है कि सांसद निधि का आखिर औचित्य क्या है? क्या वाकई इससे जनता के विकास का सरकारी वादा पूरा होता है? इमानदारी से इन सवालों के जवाब खोजना देश के लिये ज़रूरी है।

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