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विशेष: जीएम (GM) बीजों का अमेरिकी पेटेंट भारत में लागू नहीं

  • 16 Apr 2018
  • 23 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने जीन संवर्द्धित (Genetically Modified-GM) बीज पर दिये अपने एक फैसले में कहा कि कपास का जीएम बीज उपलब्ध कराने वाली अमेरिकी कंपनी मॉनसैंटो को अपने बीज पर भारत में रॉयल्टी वसूलने का अधिकार नहीं है। 

  • न्यायालय ने भारत में अमेरिका आधारित कंपनी मॉनसैंटो की बीटी कपास के बीज पर पेटेंट लागू करने की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि भारत में बीज पेटेंट के दायरे में नहीं आते और अमेरिकी पेटेंट कानून भारत में लागू नहीं होते। 
  • न्यायालय ने उन तीन भारतीय बीज कंपनियों के दावों को स्वीकृति प्रदान की, जिनमें कहा गया था कि मॉनसैंटो कंपनी के बीटी कपास के बीजों के लिये भारत में पेटेंट नहीं है। 
  • न्यायालय ने मॉनसैंटो से भारतीय कानूनों के तहत ब्रीडर के अधिकारों के लिये आवेदन करने को कहा।

एकल न्यायाधीश के फैसले पर रोक: न्यायालय ने तीन भारतीय कंपनियों नुजिविडू सीड्स लिमिटेड, प्रभात एग्री बायोटेक लिमिटेड और प्रवर्धन सीड्स प्राइवेट लिमिटेड को राहत देते हुए मॉनसैंटो को इन तीन कंपनियों से उप-लाइसेंस के तहत देय फीस के मुद्दे पर एकल न्यायाधीश के भी फैसले पर रोक लगा दी। विदित हो कि एकल न्यायाधीश ने इन तीन भारतीय कंपनियों को सरकार की निर्धारित दरों के अनुसार मॉनसैंटो को विशेष फीस का भुगतान करने का आदेश दिया था। दरअसल, मॉनसैंटो कंपनी अपनी बीज तकनीकी के उपयोग को लेकर भारतीय कंपनियों से उप-लाइसेंस के तहत विशेष फीस की उच्च दर वसूलना चाह रही थी। भारतीय कंपनियों ने एकल न्यायाधीश द्वारा अपने दावे की अस्वीकृति को चुनौती दी थी कि अमेरिका आधारित कृषि कंपनी मॉनसैंटो ने बीटी कपास के बीजों के लिये गलत तरीके से पेटेंट दे दिया था।

क्या है जीएम तकनीक?
इसके लिये टिश्यू कल्चर, म्युटेशन यानी उत्परिवर्तन और नए सूक्ष्मजीवों की मदद से पौधों में नए जीनों का प्रवेश कराया जाता है। इस तरह की एक बहुत ही समान्य प्रक्रिया में पौधे को एग्रोबेक्टेरियम ट्यूमेफेशियंस (Agrobacterium Tumefaciens) नामक सूक्ष्मजीव से सक्रंमित 
कराया जाता है। इस सूक्ष्मजीव को टी-डीएनए (Transfer-DNA) नामक एक विशिष्ट जीन  से सक्रंमित करके पौधे में डीएनए का प्रवेश कराया जाता है। इस एग्रोबेक्टेरियम ट्यूमेफेशियंस के टी-डीएनए को वांछित जीन से सावधानीपूर्वक प्रतिस्थापित किया जाता है, जो कीट प्रतिरोधक होता है। इस प्रकार पौधे के जीनोम में बदलाव लाकर मनचाहे गुणों की जीनांतरित फसल प्राप्त की जाती है। 

क्या है जीएम फसल?

  • जेनेटिक इजीनियरिंग के ज़रिये किसी भी जीव या पौधे के जीन को अन्य पौधों में डालकर एक नई फसल प्रजाति विकसित की जाती है। 
  • जीएम फसल उन फसलों को कहा जाता है जिनके जीन को वैज्ञानिक तरीके से रूपांतरित किया जाता है।
  • 1982 में तंबाकू के पौधे में इसका पहला प्रयोग किया गया था, जबकि फ्राँस और अमेरिका में 1986 में पहली बार इसका फील्ड परीक्षण किया गया था। 
  • जीएम फसलों के जीन में बायो-टेक्नोलॉजी और बायो-इंजीनियरिंग के द्वारा परिवर्तन किया जाता है। 
  • इस प्रक्रिया में पौधे में नए जीन यानी डीएनए को डालकर उसमें ऐसे मनचाहे गुणों का समावेश किया जाता है जो प्राकृतिक रूप से उस पौधे में नहीं होते। 
  • इस तकनीक के ज़रिये तैयार किये गए पौधे कीटों, सूखे जैसी पर्यावरण परिस्थिति और बीमारियों के प्रति अधिक प्रतिरोधी होते हैं। 
  • जीनांतरित फसलों से उत्पादन क्षमता और पोषक क्षमता को बढ़ाया जा सकता है।

जीएम बीजों के लाभ 

  • जीएम बीज यानी कृत्रिम तरीके से बनाया गया फसल बीज। जीएम फसलों के समर्थक मानते हैं कि यह बीज साधारण बीज से कहीं अधिक उत्पादकता प्रदान करता है। 
  • इससे कृषि क्षेत्र की कई समस्याएँ दूर हो जाएंगी और फसल उत्पादन का स्तर सुधरेगा। 
  • जीएम फसलें सूखा-रोधी और बाढ़-रोधी होने के साथ कीट प्रतिरोधी भी होती हैं। 
  • जीएम फसलों की यह विशेषता होती है कि अधिक उर्वर होने के साथ ही इनमें अधिक कीटनाशकों की जरूरत नहीं होती। 

जीएम बीजों के नुकसान

  • भारत में इन फसलों का विरोध करने के कई कारण हैं...
  • जीएम फसलों की लागत अधिक पड़ती है, क्योंकि इसके लिये हर बार नया बीज खरीदना पड़ता है। 
  • बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकार के कारण किसानों को महँगे बीज और कीटनाशक उनसे खरीदने पड़ते हैं।
  • इस समय हाइब्रिड बीजों पर ज़ोर दिया जा रहा है और अधिकांश हाइब्रिड बीज, चाहे जीएम हों अथवा नहीं, या तो दोबारा इस्तेमाल लायक नहीं होते; और अगर होते भी हैं तो पहली बार के बाद उनका प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं होता। 
  • इसे स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा जैव विविधता के लिये हानिकारक माना जाता है। 
  • भारत में इस प्रौद्योगिकी का विरोध करने वालों का कहना है कि हमारे देश में कृषि में इतनी जैव-विविधता है, जो जीएम प्रौद्योगिकी को अपनाने से खत्म हो जाएगी। 
  • इसके अलावा इसका विरोध करने वाले कहते हैं कि जीएम खाद्य का मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता है। एक तो उसे खाने से, दूसरा उन पशुओं के दूध और माँस के ज़रिये जो जीएम चारे पर पले हों। 

भारत में केवल बीटी कॉटन की फसल लेने की अनुमति है। देश के कपास उत्पादक किसानों पर क्या प्रभाव पड़ा, इसको लेकर संसद की कृषि मामलों की स्थायी समिति ने पिछले वर्ष अपनी  ‘कल्टीवेशन ऑफ जेनेटिक मोडिफाइड फूड क्रॉप-संभावना और प्रभाव’नामक 37वीं रिपोर्ट में बताया था कि बीटी कपास की व्यावसायिक खेती करने से कपास उत्पादक किसानों की आर्थिक हालत सुधरने के बजाय बिगड़ गई। बीटी कपास में कीटनाशकों का अधिक प्रयोग करना पड़ा।

(टीम दृष्टि इनपुट)

अमेरिकी कंपनी मॉनसैंटो

  • अमेरिकी कंपनी मॉनसैंटो आनुवंशिक रूप से सुधारे हुए (Genetically Modified) बीज बेचती है। कंपनी ने कपास किसानों को जीएम बीज बेचकर यह दावा किया था कि इन बीजों के इस्तेमाल से उनकी फसल में रोग नहीं लगेंगे और फसल अच्छी होगी। गौरतलब है कि पिछले वर्ष कई भारतीय बीज कंपनियों ने मॉनसैंटो के खिलाफ बौद्धिक संपदा अधिकार (Intellectual Property Rights-IPR) मामले में मॉनसैंटो के साथ सुलह कर ली थी, लेकिन उपरोक्त तीनों कंपनियों ने ऐसा नहीं किया था।

मॉनसैंटो का पक्ष 
इससे पहले इस वर्ष मार्च में सरकार ने पिछले दो वर्षों के दौरान दूसरी बार जीएम कपास बीजों के लिये कंपनी को दी जाने वाली रॉयल्टी में कटौती कर दी थी। सरकार ने घरेलू बीज कंपनियों द्वारा मॉनसैंटो को दी जाने वाली रॉयल्टी में और 20.4% की कटौती की। पहली बार वर्ष 2016 में जब सरकार ने रॉयल्टी में 70% तक कटौती की थी, तब मॉनसैंटो ने भारत छोड़ने की धमकी दी थी। दूसरी बार कटौती होने पर मॉनसैंटो ने कहा था कि घरेलू बीज कंपनियों द्वारा दी जाने वाली रॉयल्टी कुल फसल लागत का केवल 0.5% रह गई है, जबकि हमारी तकनीक से किसानों की आय में बराबर इज़ाफा हो रहा है।

अब न्यायालय के इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए मॉनसैंटो ने कहा कि इससे भारत में हर क्षेत्र में जैव-प्रौद्योगिकी आधारित नवोन्मेष (Innovation) प्रभावित होगा। यह फैसला उन अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों के भी खिलाफ है, जहाँ कृषि क्षेत्र में नवोन्मेष संबंधी गतिविधियाँ परवान चढ़ी हैं। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में देश के कुल कपास उत्पादन की 90% से ज़्यादा फसल जीन संवर्द्धित अर्थात् जीएम है। 

क्या है जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति?

  • इसका कार्य पर्यावरण की दृष्टि से अनुसंधान एवं औद्योगिक उत्पादन में खतरनाक सूक्ष्मजीवों और आनुवंशिक सामग्री के टुकड़ों के बड़े पैमाने पर उपयोग संबंधी गतिविधियों की मंज़ूरी के मामलों पर गौर करना है।
  • यह क्षेत्र परीक्षण प्रयोगों सहित पर्यावरण में आनुवंशिक रूप से संवर्द्धित किये गए जीवों और उत्पादों को जारी करने संबंधी प्रस्तावों की मंज़ूरी के लिये भी उत्तरदायी है।
  • इसका कार्य आनुवंशिक रूप से संशोधित सूक्ष्म-जीवों और उत्पादों के कृषि में उपयोग को स्वीकृति प्रदान करना है।
  • पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय के अधीन जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों के लिये स्थापित भारत की सर्वोच्च नियामक है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

जीएम बीजों के विकास पर एकाधिकार का दावा

  • मॉनसैंटो ने अगली पीढ़ी का जीन संवर्द्धित कपास का बीज भारत में लाने के लिये 2007 में आवेदन किया था, लेकिन सरकार द्वारा कड़ी शर्तें लगा देने के बाद इसे वापस ले लिया। 
  • विदित हो कि अमेरिका के बाद भारत मॉनसैंटो का सबसे बड़ा बाजार है और यह अमेरिकी कंपनी अपने भारतीय साझीदार महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड्स की मदद से बीज बेचती है। 
  • भारत सरकार ने अगली पीढ़ी के जीन संवर्द्धित बीज बेचने की अनुमति देने से पहले मॉनसैंटो से कहा कि स्थानीय बीज कंपनियों के साथ तकनीक साझा करे। तब मॉनसैंटो ने भारत के 'कारोबार में अनिश्चितता और नियामक माहौल' को कारण बताते हुए आवेदन वापस ले लिया, क्योंकि उसके अनुसार इससे उसे  बड़ा नुकसान होगा।
  • भारत ने 2002 में पहली बार मॉनसैंटो को देश में जीन संवर्द्धित कपास का बीज बोलगार्ड-1 बेचने की अनुमति दी थी। 2006 में इसे बोलगार्ड-2 बेचने की अनुमति  मिली, जिसकी मदद से भारत का कपास निर्यात चार गुना बढ़ा। 
  • वक्त बीतने के साथ बोलगार्ड-2 बीज बेकार साबित होने लगा और बॉलवर्म नामक कीड़े का सामना करने में असफल रहा। 
  • महँगे और बेकार साबित होते जीन संवर्द्धित बीज खरीदने से छोटे किसानों की आर्थिक हालत खस्ता हो गई तथा इसके बाद  महाराष्ट्र के हज़ारों किसानों की  आत्महत्या के मामले भी सामने आए। 
  • इसके बावजूद भारत में 2015 में जीन संवर्द्धित कपास के बीज के 4.10 करोड़ पैकेट बिके और इस बिक्री से मॉनसैंटो को 9.7 करोड़ डॉलर की रॉयल्टी मिली।

मॉनसैंटो के जवाब में स्वदेशी किस्मों का विकास

  • मॉनसैंटो की बोलगार्ड-2 किस्म को चुनौती देने के लिये देश में आठ साल के शोध के बाद कपास की नई देसी किस्में तैयार की जा रही हैं।  
  • ज़्यादा उपज देने वाले इन बीजों की लागत कम पड़ेगी और इनसे तैयार होने वाली फसल पर व्हाइट फ्लाई, पिंक बॉलवर्म और लीफ कर्ल वायरस जैसी बीमारियों और कीटाणुओं का असर नहीं होगा। 
  • देसी किस्मों में व्हाइट फ्लाई के खिलाफ ज़्यादा प्रतिरोधक क्षमता है और इन पर कॉटन लीफ कर्ल वायरस का असर नहीं होता, जो हरियाणा, राजस्थान और पंजाब सहित उत्तर भारत में प्रमुख समस्या है। इन इलाकों में 15 लाख हेक्टेयर से ज़्यादा एरिया में कपास की खेती होती है। 
  • कपास की नई देसी किस्म और कम समय में तैयार होने वाली अमेरिकन किस्मों का परीक्षण विभिन्न एग्री-इको जोन के 15 केंद्रों पर किया जा चुका है और इन्हें बुवाई के लिये उपयुक्त पाया गया है। 
  • बीटी कॉटन हाइब्रिड से उत्पादन लागत अभी 30,000 से 35,000 रुपए प्रति हेक्टेयर है। इन देसी किस्मों के उपयोग से यह लागत आधी रह जाएगी और प्रति हेक्टेयर उपज कमोबेश बीटी कॉटन हाइब्रिड जितनी या उससे ज़्यादा होगी। 
  • बीटी कॉटन हाइब्रिड की प्रति हेक्टेयर उपज 20-25 क्विंटल है। इन किस्मों से मिलने वाले कपास की फाइबर क्वॉलिटी बीटी कॉटन हाइब्रिड जैसी ही होगी और इनके बीज का दाम भी 200-250 रुपए किलो से अधिक नहीं होगा। बीटी कॉटन के बीज इससे 200 गुना तक अधिक कीमत पर बेचे जाते हैं। 

उल्लेखनीय है कि अभी तक देश में केवल लंबी अवधि वाली संकर किस्में ही उपयोग की जा रही थीं, जिनसे फसल तैयार होने में 210-240 दिन लगते हैं। वे कपास की बुआई क्षेत्र के 50 से 60% हिस्से के लिये उपयुक्त नहीं थीं, जो मुख्य तौर पर वर्षा पर निर्भर इलाके हैं। इसीलिये 150-160 दिनों में तैयार होने वाली किस्मों के उपयोग वाली गहन बुआई का वैश्विक नज़रिया अपनाया गया।

(टीम दृष्टि इनपुट)

क्या है भारत सहित वैश्विक स्थिति?

  • भारत में केवल बीटी कॉटन को सरकारी स्वीकृति मिली हुई है, भारत में इस तकनीक का प्रवेश 1996 में हुआ था तथा 2002 में बीटी कॉटन की फसल को मंज़ूरी मिली। तब से अब तक बीटी कॉटन देश में ली जाने वाली एकमात्र जीएम फसल है। इसके तहत देश के 10 राज्यों में 11.6 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में कपास की फसल ली जाती है। आज दुनिया के कुल कपास उत्पादन का 26% भारत में होता है और कुल कपास उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी लगभग 90% है। देश में प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन लगभग 510 किग्रा. है, जबकि वैश्विक औसत 700 किग्रा.  से अधिक है।
  • अमेरिका में मक्का, सोयाबीन, कपास, कनोला, चुकंदर, पपीता, आलू; कनाडा में कनोला, सोयाबीन, चुकंदर; चीन में कपास, पपीता और पॉप्लर; अर्जेटीना में सोयाबीन, मक्का, कपास; ब्राज़ील में सोयाबीन, मक्का, कपास और बांग्लादेश में बैंगन की जीएम खेती आधिकारिक रूप से होती है। अफ्रीका सहित कुछ अन्य देश हैं जो केवल मक्का और कपास की जीएम खेती करते हैं। 
  • फ्रांस और जर्मनी सहित यूरोपीय संघ के उन्नीस देशों में जीएम खेती पर पूर्ण प्रतिबंध है। यूरोपीय संघ के देशों में विदेशों से आयातित खाद्य सामग्री पर यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि यह जीएम है या सामान्य, जबकि अमेरिका में ऐसा करना अनिवार्य नहीं है। 

इसके अलावा 2014 में जर्मनी की गोटिंजेन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने पूरे विश्व में किये गए अपने कृषि सर्वेक्षणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि जीएम प्रौद्योगिकी से फसलों की पैदावार में 22% की वृद्धि होती है, कीटनाशक 37% कम डालने पड़ते हैं और किसानों की आय 68% बढ़ जाती है तथा यह प्रौद्योगिकी विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों के लिये अधिक लाभकारी है। 

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी का पेट भरने के लिये आज से 70% ज़्यादा खाद्य की ज़रूरत होगी। इसलिये पैदावार बढ़ाने के लिये खेती में नए प्रयोगों को महत्त्व देना होगा। भारत जैसे देश के लिये तो यह और भी आवश्यक है क्योंकि तब तक वह विश्व में सर्वाधिक आबादी वाला देश बन चुका होगा। भारत के कृषि विज्ञानी एम.एस. स्वामीनाथन कह चुके हैं कि यदि यह प्रौद्योगिकी (जीएम) अपना भी ली जाए तो कृषि में जैव-विविधता बचाए रखने के लिये  इससे जुड़े विशेष क्षेत्रों को इस प्रौद्योगिकी से अलग रखा जा सकता है।

बीटी (BT) क्या है?
बेसिलस थुरिनजेनेसिस (Bacillus Thuringiensis-BT) एक जीवाणु है जो प्राकृतिक रूप से क्रिस्टल प्रोटीन उत्पन्न करता है। यह प्रोटीन कीटों के लिये हानिकारक होता है। इसके नाम पर ही बीटी फसलों का नाम रखा गया है। बीटी फसलें ऐसी फसलें होती हैं जो बेसिलस थुरिनजेनेसिस नामक जीवाणु के समान ही विषाक्त पदार्थ को उत्पन्न करती हैं ताकि फसल का कीटों से बचाव किया जा सके।

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: जीएम तकनीक जीन में बदलाव लाने वाली इंजीनियरिंग का महज़ एक पहलू है। चार दशक पहले हुई हरित क्रांति के जनक प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन का कहना है कि पौधों में जलवायु परिवर्तन के कारण आर्द्रता और तापमान में  होने वाले बदलाव सहने की क्षमता बढ़ाना, उनका इस्तेमाल करने वाले लोगों और जानवरों को पोषण देना आदि तमाम वांछित परिणाम हासिल करना संभव है...और यह ज़रूरी नहीं है कि ये सारे गुण हाइब्रिड नस्लों से ही हासिल किये जा सकें, लेकिन इनको पारंपरिक विधियों से भी हासिल नहीं किया जा सकता। यहीं पर डीएनए तकनीक की जरूरत महसूस होती है, जिसके माध्यम से जीन में बेहद जरूरी बदलाव लाकर मनोवांछित परिणाम हासिल किये जा सकते हैं।

फिलहाल, भारत के कुछ राज्यों में चावल, मक्का, सरसों, बैंगन, काबुली चना और कपास की जीएम खेती पर परीक्षण चल रहे हैं। लेकिन किसी भी प्रकार की जीएम फसल को मंज़ूरी देने से पहले इनके उपभोक्ताओं के लिये सुरक्षित, किसानों के लिये दीर्घकाल तक लाभप्रद और पर्यावरण के अनुकूल होने के संबंध में किसी स्वतंत्र वैज्ञानिक संस्था द्वारा व्यापक शोध और अध्ययन किये जाने की ज़रूरत है। 

किसी भी देश में जीएम फसलों को मंज़ूरी उनके सामाजिक-आर्थिक प्रभाव के मूल्यांकन के बाद ही दी जा सकती है। जीएम फसलों पर अभी तक संशय बरकरार है। इसके पक्ष और विपक्ष के अपने-अपने मान्य तर्क हैं, इसलिये इस मुद्दे पर सरकार को बिना जल्दबाजी किये गंभीरतापूर्वक निर्णय लेना होगा। सरकार को किसी भी प्रकार की जीएम व्यवसायिक फसल को मंज़ूरी देने से पहले दुनियाभर के देशों में जीएम फसलों की खेती और उसके विभिन्न पक्षों-प्रभावों का भी अध्ययन करना चाहिये।

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