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पार्किंसंस रोग के लिये बायोसेंसर

  • 01 Sep 2025
  • 18 min read

स्रोत: पी. आई. बी. 

मोहाली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ नैनो साइंस एंड टेक्नोलॉजी (Institute of Nano Science and Technology- INST) के वैज्ञानिकों ने पार्किंसंस रोग (Parkinson’s Disease) की प्रारंभिक पहचान के लिये नैनो प्रौद्योगिकी आधारित बायोसेंसर विकसित किया है। 

नैनो प्रौद्योगिकी आधारित बायोसेंसर 

  • क्रियाविधि: बायोसेंसर प्राकृतिक अमीनो एसिड से लेपित स्वर्ण नैनोक्लस्टर्स (AuNCs) का उपयोग करके काम करता है, जो चुनिंदा रूप से α-सिन्यूक्लिन प्रोटीन के विशिष्ट रूपों से जुड़ता है (सामान्य रूप से हानिरहित, लेकिन विषाक्त गुच्छों (एमाइलॉयड्स) में परिवर्तित हो सकता है, जिससे मस्तिष्क कोशिकाओं को नुकसान पहुँचता है)। 
  • महत्त्व: यह बायोसेंसर स्वस्थ और विषाक्त α-सिन्यूक्लिन के बीच अंतर करने में सक्षम बनाता है, जिससे लक्षण प्रकट होने से पहले ही पार्किंसंस रोग  का शीघ्र पता लगाया जा सकता है। 
    • यह कम लागत वाला, लेबल-मुक्त तथा पॉइंट-ऑफ-केयर परीक्षण के लिये उपयुक्त है, और इसमें अल्ज़ाइमर रोग एवं अन्य प्रोटीन मिसफोल्डिंग विकारों के लिये संभावित अनुप्रयोग हैं। 

पार्किंसंस रोग 

  • परिचय: पार्किंसंस रोग एक प्रगतिशील न्यूरोडीजेनेरेटिव विकार है, जो मोटर लक्षणों (कंपकंपी, कठोरता, आसन संबंधी अस्थिरता) और नॉन-मोटर लक्षणों (संज्ञानात्मक गिरावट, मानसिक संबंधी विकार) द्वारा चिह्नित होता है। 
  • कारण एवं व्यापकता: सब्सटैंशिया नाइग्रा (मध्य मस्तिष्क का क्षेत्र) में डोपामाइन उत्पादक न्यूरॉन्स की हानि के कारण गतिशीलता में कमी आती है। 
    • ऐसा माना जाता है कि यह आनुवंशिक उत्परिवर्तनों और कीटनाशकों तथा प्रदूषण जैसे पर्यावरणीय कारकों के संयोजन का परिणाम है। 
    • वर्ष 2019 में 8.5 मिलियन लोग प्रभावित हुए, भारत में लगभग 10% मामले (0.58 मिलियन) हैं। 
    • अनुमान है कि वर्ष 2050 तक भारत में मामले 168% बढ़कर 2.8 मिलियन हो जाएंगे, जबकि वैश्विक मामले 25.2 मिलियन तक पहुँच सकते हैं। 
  • उपचार एवं प्रबंधन: इसका कोई इलाज उपलब्ध नहीं है, प्रबंधन में दवाइयाँ (लेवोडोपा/कार्बिडोपा), सर्जरी तथा लक्षणों को कम करने के लिये पुनर्वास शामिल है। 
    • नेशनल पार्किंसंस नेटवर्क (NPN) की स्थापना वर्ष 2024 में मूवमेंट डिसऑर्डर सोसाइटी ऑफ इंडिया (MDSI) द्वारा की गई थी। 

Parkinson’s Disease

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