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क्या अब शांत होगा मणिपुर?

  • 17 Mar 2017
  • 9 min read

मणिपुर में नेतृत्व परिवर्तन के साथ ही उम्मीद की जा रही है कि अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के लिये प्रसिद्ध इस राज्य को पिछले कई महीनों से जारी आर्थिक नाकेबंदी से मुक्ति मिल जाएगी। प्राकृतिक व सांस्कृतिक रूप से संपन्न मणिपुर में बिगड़ती स्थिति का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मैतेयी और नगा समुदायों के बीच तनाव बढ़ने के बाद मणिपुर में अनिश्चित काल के लिये कर्फ्यू लगा दिया गया था। चर्च पर कथित हमले की अफवाहों को फैलने से रोकने के लिये मोबाइल व इंटरनेट सेवाएँ बंद कर दी गई थीं। मणिपुर आर्थिक नाकेबंदी से जूझ रहा है। वस्तुतः आज जब केंद्र और राज्य दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार है तो इस समस्या के समाधान की उम्मीदें और बढ़ गईं हैं, लेकिन इससे पहले की केंद्र और राज्य के सम्भावित आगामी कदमों की चर्चा करें हमें यह देखना होगा कि मणिपुर की अशांति के कारण क्या हैं?

क्यों जारी है मणिपुर की आर्थिक नाकेबंदी

गौरतलब है कि दिसम्बर 2016 में मणिपुर सरकार ने राज्य में 7 नए ज़िले बनाने की घोषणा की थी। सरकार के इस फैसले के खिलाफ यह आर्थिक नाकेबंदी पहले नगा गुटों ने शुरू की और प्रतिउत्तर में कुकी और मैतेई समुदाय भी मणिपुर में जन-जीवन अस्त व्यस्त करने की इस मुहिम में शामिल हो गए। यूनाइटेड नगा काउंसिल राज्य में सात नए ज़िले बनाने का विरोध कर रही है। विदित हो कि ‘इनर लाइन परमिट’ भी मणिपुर की एक अन्य गंभीर समस्या है। मणिपुर की आर्थिक नाकेबंदी में सात नए ज़िलों के अतिरिक्त इनर लाइन परमिट मुद्दे की भी अहम् भूमिका है। मणिपुर में बाहरी लोगों की आबादी लगातार बढ़ रही है और इससे मैतेयी समुदाय को अपना वजूद खतरे में नज़र आ रहा है।

पृष्ठभूमि

मणिपुर वर्ष 1949 में भारत का हिस्सा बना और 1972 में इसे पूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिला। यहाँ राजाओं के शासनकाल के दौरान आईएलपी जैसी एक प्रणाली लागू थी, जिसके तहत कोई बाहरी व्यक्ति राज्य में न तो स्थायी नागरिक बन सकता था और न ही यहाँ जमीन या कोई दूसरी संपत्ति खरीद सकता था। लेकिन केंद्र ने वह प्रणाली खत्म कर दी थी। अब समय-समय पर उसी को लागू करने की मांग उठती रही है।

मणिपुर में पर्वतीय क्षेत्र और घाटी में रहने वाले लोगों के बीच तनाव का एक लंबा इतिहास है। मणिपुर के पहाड़ी हिस्से में ज़्यादातर नगा आबादी रहती है, जिसके प्रशासन के लिए स्वायत्त ज़िला परिषद (एडीसी) है। गौरतलब है कि राज्य सरकार इस परिषद की सहमति के बिना पहाड़ी इलाके के लिये कोई कानून नहीं बना सकती है।

नगाओं के अविश्वास के कारण

विदित हो कि मणिपुर में घाटी में रहने वाली आबादी पहाड़ी आबादी की तुलना में ज़्यादा है। नगा जनजातियाँ ईसाई धर्म को मानती हैं तो घाटी में रहने वाले अधिकतर लोग हिंदू हैं जो मैतेयी समुदाय के हैं। माना जाता है कि तनाव व टकराव की जड़ दोनों समुदायों के बीच लंबे समय से उपजे अविश्वास में छिपी है। सरकार, पुलिस और नौकरशाही में घाटी के हिंदुओं का बहुमत है। पहाड़ों पर रहने वाली नगा और दूसरी जनजातियों को लगता है कि सरकार उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा न कर ले या कोई ऐसा कानून न ले आए, जिससे उनकी स्वायत्तता और जीवन-शैली पर संकट आ जाए। इसी आशंका से उपजा अविश्वास कई बार हिंसा का रूप ले चुका है।

अनुच्छेद 371 (c) और पहाड़ी क्षेत्र समिति

उत्तर पूर्वी राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1971 के अनुच्छेद 371 (c) में पहाड़ी क्षेत्र से संबंधित हितों को सांविधिक सरंक्षण प्रदान किया गया है। इस अनुच्छेद के अनुसार राज्यों के पहाड़ी क्षेत्रों से संबंधित मुद्दों पर कानून निर्माण में राज्य विधायिका को पहाड़ी क्षेत्र समिति से विचार-विमर्श करना होगा। गौरतलब है कि पहाड़ी क्षेत्र समिति का निर्माण भारत के राष्ट्रपति की अनुमति से किया जा सकता है, जिसमें सदस्यों के तौर पर उन प्रतिनिधियों को शामिल करने का प्रावधान है जो कि उन पहाड़ी क्षेत्रों से चुनाव जीतकर राज्य विधायिका के सदस्य बने हैं। उल्लेखनीय है कि सात नए ज़िलों के निर्माण में इस अनुच्छेद का संज्ञान ही नहीं लिया गया है जिसको लेकर नगाओं में गहरा असंतोष व्याप्त है।

क्या हो आगे का रास्ता?

मणिपुर में आर्थिक नाकेबंदी समाप्त करने और जन-जीवन को पटरी पर लाने के लिये केंद्र को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। पहले स्थिति यह थी कि केंद्र में भाजपा की सरकार थी तो राज्य में कांग्रेस की, अतः राजनीतिक हितों को साधने की कवायद में मणिपुर की समस्या को सुलझाने में कोई अर्थपूर्ण कार्य नहीं किया जा सका, हालाँकि अब जब दोनों जगहों पर एक ही पार्टी की सरकार है तो इस समस्या के समाधान में किसी प्रकार के राजनैतिक व्यवधान की सम्भावना नहीं के बराबर है, लेकिन नई दिल्ली को सक्रिय भूमिका निभाते हुए संविधान के सातवें अनुसूची और अनुच्छेद 371 (c) के प्रावधानों का भी ख्याल रखना होगा।

‘संपत्ति के अधिकारों में संस्थागत कमियाँ’ और ‘मणिपुर की विविधता’ दो ऐसे कारक हैं जिन्होंने मणिपुर समस्या को उलझाकर रख दिया है। मणिपुर में संघर्ष का मुख्य कारण भूमि है, यहाँ सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्थाएँ भूमि और इससे संबंधित मुद्दों पर ही केंद्रित हैं। विशेषकर आदिवासियों के लिए ज़मीन, एकमात्र महत्त्वपूर्ण भौतिक सम्पत्ति है। गौरतलब है कि सांस्कृतिक और जातीय पहचान को आकार देने में किसी स्थान विशेष की भूमि की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके अलावा, आदिवासी समुदायों की भूमि और वनों के साथ एक सहजीवी संबंध हैं जिन पर उनकी आजीविका निर्भर करती है।

ऐसे में नगा, सात नए ज़िलों के निर्माण को अपने भूमि अधिकारों का अतिक्रमण मानते हैं। अतः मणिपुर में नगाओं की चिंताओं एवं उनके आंदोलन के कारणों को समझने की आवश्यकता है। मणिपुर में शांति और सद्भाव लाने के लिये केंद्र और राज्य सरकारों के लिये यह आवश्यक है कि वे इसमें शामिल मुद्दों की पहचान करते हुए समाधानकारी नीतियों की प्राथमिकताएँ तय करें।

निष्कर्ष

मणिपुर में बहुसंख्यक मैतेयी और यहाँ तक कि कुकी अल्पसंख्यकों ने भी सात नये जिलों के निर्माण का स्वागत किया है, वहीं नगाओं के नेतृत्व में वहाँ की जनजातियाँ इस कदम का विरोध कर रही हैं। अब यह मणिपुर सरकार का दायित्व है कि वह नगाओं की चिंताओं का संज्ञान ले, क्योंकि इसके बिना मणिपुर में शांति की उम्मीद करना बेमानी होगी।

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