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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

अमेरिका की पश्चिम एशिया नीति से प्रभावित होता एशिया

  • 28 May 2019
  • 14 min read

यह लेख इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित आलेख ‘By destabilising regions that supply oil and gas, US is keeping Rising Asia off-balance’ का भावानुवाद है। इस लेख में इस मुद्दे पर विचार किया गया है कि यदि अमेरिका भारत की चिंताओं के प्रति असंवेदनशील बना रहता है तो भारत को अपने विदेश नीति विकल्पों पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है।

संदर्भ

भारत सहित कुछ देशों को ईरान से कच्चा तेल खरीदने की अमेरिकी प्रतिबंधों से मिली छूट की अवधि 2 मई को समाप्त हो गई। इसके बाद भारत ने अमेरिकी दबाव में आकर इरान से कच्चा तेल खरीदना बंद कर दिया और आज स्थिति यह है कि भारत को ईरान से होने वाला कच्चे तेल का निर्यात शून्य हो गया है, जबकि प्रतिबंधों से पहले भारत को कच्चा तेल सप्लाई करने वालों में ईरान तीसरे नंबर पर था। ईरान से सबसे ज़्यादा कच्चा तेल खरीदने वालों में चीन के बाद भारत दूसरे नंबर पर था।

अमेरिका की इस पाबंदी का भारत पर सीधा असर होगा, क्योंकि ईरान से भारत को कच्चा तेल अन्य देशों की अपेक्षा कम कीमत पर मिलता था तथा उसके भुगतान के लिये भी भारत को कई तरह की सुविधाएँ ईरान देता रहा है। भारत की रिफाइनरीज़ को विशेष रूप से ईरानी कच्चे तेल का शोधन करने में आसानी रहती है।

तेल पर केंद्रित एशिया का भूगोल

  • अकूत तेल के भंडार मिलने के बाद पिछली एक सदी से पश्चिम एशिया का भूगोल, राजनीति, सुरक्षा और स्थिरता तेल पर ही केंद्रित रही है। तेल के मुद्दे पर ही राष्ट्रों का निर्माण हुआ, सत्ता परिवर्तन हुए और युद्ध लड़े गए।
  • प्रथम विश्व युद्ध से लेकर द्वितीय खाड़ी युद्ध तक का इतिहास पश्चिमी शक्तियों द्वारा पश्चिम एशिया क्षेत्र में तेल तक पहुँच को सुरक्षित रखने पर ही केंद्रित रहा है।
  • पिछले एक दशक में जब से ऊर्जा के मामले में अमेरिका की आत्मनिर्भरता बढ़ी है, तब से अमेरिकी नीति केवल तेल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के बजाय आपूर्ति के स्रोत पर नियंत्रण की दिशा में काम करने लगी है।
  • अब यह एक सामान्य स्थिति बन गई है, लेकिन इसके साथ ही इस सामान्यता की पुनरावृत्ति भी हो रही है। पश्चिम एशिया क्षेत्र में फिर से उत्पन्न तनाव ईरान-प्रायोजित आतंकवाद पर केंद्रित नहीं है, बल्कि इसका मंतव्य ईरान द्वारा उत्पादित तेल पर नियंत्रण करना है।

तेल के मामले में अमेरिका की आत्मनिर्भरता

  • ऊर्जा बाज़ार में संरचनात्मक परिवर्तन ने विशेष रूप से आयातित तेल पर अमेरिकी निर्भरता और सामान्य रूप से हाइड्रोकार्बन पर पश्चिमी निर्भरता में कमी की है।
  • ट्रांस-अटलांटिक देश (विशेष रूप से अमेरिका) अब खाड़ी के तेल पर निर्भर नहीं रह गए हैं।
  • दूसरी तरफ, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और भारत सहित अन्य एशियाई अर्थव्यवस्थाएँ अब भी खाड़ी के तेल उत्पादन पर हे निर्भर हैं।
  • जहाँ तक भारत का प्रश्न है, तो आयातित तेल पर हमारी निर्भरता में पिछले दशक से काफी वृद्धि हुई है और अब घरेलू खपत का लगभग 90% से अधिक कच्चा तेल भारत आयात करता है।
  • ऐसे में तेल और गैस की आपूर्ति करने वाले विश्व के सबसे बड़े क्षेत्र को अस्थिर कर अमेरिका एशियाई आर्थिक विकास की राह में हर तरह की बाधा उत्पन्न कर रहा है ताकि ‘राइजिंग एशिया’ को असंतुलित कर सके।

वेनेज़ुएला तथा ईरान और अमेरिकी नीति

  • इस तथ्य पर गौर करें कि वेनेज़ुएला और ईरान के प्रति अमेरिका की शत्रुता के कारण कच्चे तेल की वैश्विक आपूर्ति में ऐसे समय बाधाएँ उत्पन्न होंगी जब तेल बाज़ार एक विक्रय बाज़ार से क्रय बाज़ार में परिवर्तित हो रहा है।
  • तेल उपभोग में कमी और अक्षय ऊर्जा के बढ़ते उपयोग ने कच्चे तेल की मांग को कमज़ोर करना शुरू किया ही था कि भू-राजनीतिक हस्तक्षेप से तेल बाज़ार पुनः अस्थिर हो रहा है। इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव भारत, चीन एवं अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है।
  • सुन्नी मुस्लिमों का रहनुमा और अगुआ माने जाने वाले सऊदी अरब को अपने प्रभाव में लेने के बाद अमेरिका अब शिया इस्लामी विश्व (इराक, ईरान, सीरिया) पर नियंत्रण का प्रयास कर रहा है।
  • सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, इराक, ईरान और कुवैत पश्चिम एशिया में प्रमुख तेल निर्यातक देश हैं जो चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और आसियान सहित विभिन्न एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को अपना कच्चा तेल बेचते हैं। 
  • वेनेजुएला की राजनीतिक अस्थिरता भी वैश्विक तेल आपूर्ति को प्रभावित कर रही है।
  • अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार, अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते अप्रैल के महीने में कच्चे तेल की वैश्विक आपूर्ति में कमी देखी गई।
  • पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन ओपेक एवं अन्य तेल उत्पादक देशों के समझौते के अनुरूप कच्चे तेल का उत्पादन न किये जाने से कच्चे तेल की आपूर्ति में कमी आई है तथा तेल बाज़ार का संतुलन गड़बड़ा गया है।
  • भू-राजनीतिक हालात और तेल उद्योग से जुड़े व्यवधान पूरे परिदृश्य को प्रभावित कर रहे हैं।

चीन पर लगाम कसने की अमेरिकी नीति
The Logic of Strategy in the Grammar of Commerce

चीन के बढ़ते वैश्विक आर्थिक दबदबे के मद्देनज़र यह किसी से छिपा नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप चीन के भू-आर्थिक घेराव का हर संभव प्रयास करने में लगे हैं। 2012 में हुए The Rise of China vs The Logic of Strategy नामक महत्त्वपूर्ण अध्ययन में हार्वर्ड के विद्वान एडवर्ड लुट्टवाक (Edward Luttwak) ने मज़बूत तर्कों के साथ यह बताया था कि उभरते चीन से निपटने के लिये अमेरिका के पास एकमात्र उपाय यही हो सकता था कि ‘वाणिज्य के व्याकरण में रणनीति के तर्क’ (The logic of strategy in the grammar of commerce) का इस्तेमाल कर अमेरिकी बाज़ार में चीनी निर्यात को न्यूनतम किया जाए। इसके अलावा जहाँ तक संभव हो सके चीन को होने वाली कच्चे माल की आपूर्ति में व्यवधान डालकर उसके उत्पादन को प्रभावित करने की नीति पर भी अमेरिका काम कर रहा है। साथ ही भविष्य के लिये चीन को अभी भी जिन प्रौद्योगिकियों की आवश्यकता है, उन पर रोक लगाकर चीन को विवश करने की नीति भी अमेरिका आज़मा रहा है। निश्चित तौर पर अमेरिकी नीति का लक्ष्य चीन के आर्थिक विकास को धीमा करना है, जिससे प्रतिकूल घरेलू और राजनीतिक परिणाम सामने आएंगे जो चीन के नेतृत्व पर दबाव बनाएंगे कि वह एक बार फिर पश्चिमी हितों के अनुरूप काम करे।

हार्वर्ड के एक अन्य विद्वान के मतानुसार, ईरान पर सैन्य कार्रवाई की अमेरिकी धमकी उसकी भू-आर्थिक नियंत्रण नीति का एक अंग हो सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति यह मानते हैं कि धमकी, समर्पण, सत्ता परिवर्तन अथवा युद्ध... किसी भी प्रकार से ईरान को अपने अनुरूप धारा में लाना आवश्यक है।

‘ट्रंप सिद्धांत’ यह है कि अमेरिका तेल की कीमतों व आपूर्ति पर अपना नियंत्रण कायम कर चीन की आर्थिक विकास की गति को नियंत्रित करने में सक्षम हो सके। दरअसल, उभरती अर्थव्यवस्थाओं को आगे बढ़ने से रोकने की रणनीति में एक नव-साम्राज्यवादी उपकरण के रूप में कच्चे तेल तक पहुँच का उपयोग एक ऐसा तर्क है जिसे लंबे समय से आजमाया जाता रहा है और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर भी इसका इस्तेमाल होता रहा है।

ऐसे में भारत क्या करे?

  • भारत सहित कई देश चीन के विरुद्ध अमेरिकी व्यापार नीति को अपने अनुकूल मान सकते हैं क्योंकि ये सभी देश चीन के साथ अपने व्यापार में लगातार बढ़ रहे असंतुलन से चिंतित हैं।
  • लेकिन इसके लिये कच्चे तेल को हथियार बनाना अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं को स्वीकार नहीं होगा, विशेष रूप से भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं को जिनकी निर्भरता खाड़ी से आयातित तेल पर लगातार बढ़ती जा रही है।
  • इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीन के भू-आर्थिक घेराव की अमेरिकी नीति का दुष्प्रभाव भारत पर भी पड़ सकता है।
  • चीन के घेराव की ऐसी किसी नीति का समर्थन करने का जोखिम भारत नहीं उठा सकता जो अंततः भारत के लिये भी प्रतिकूल सिद्ध हो।
  • हाइड्रोकार्बन हो या परमाणु, ऊर्जा के नए स्रोतों तक पहुँच में कोई भी बाधा अथवा ऊर्जा की लागत में किसी भी तरह की वृद्धि से भारत की विकास संभावनाएँ भी उतनी ही प्रभावित हो सकती हैं जितना चीन की ।
  • भारतीय कूटनीति को यह सुनिश्चित करना होगा कि चीन को लक्षित कर की गई किसी भी अमेरिकी आर्थिक कार्रवाई से भारत को कोई हानि नहीं पहुँचनी चाहिये।
  • हमें यह समझना होगा कि पश्चिम एशिया क्षेत्र में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने में भारत भी एक हितधारक है।

तेल आयात स्रोतों में विविधता का विकल्प

  • जब तक अमेरिकी प्रतिबंध बने रहते हैं तब तक भारत अपने तेल आयात स्रोतों में विविधता लाकर ईरानी तेल पर निर्भरता को कम कर सकता है और ऐसा उसने पहले किया भी है, लेकिन तेल की कीमतों में बढ़ोतरी की समस्या तब भी बनी रहेगी।
  • यह पहले भी कई बार देखने में आया है कि पश्चिम एशिया क्षेत्र की अस्थिरता से तेल आपूर्ति बाद में प्रभावित होती है, लेकिन तेल की कीमतों में वृद्धि पहले ही होने लगती है।
  • वर्तमान में भी ऐसा होना शुरू हो चुका है। ऐसे में यदि अमेरिका भारतीय चिंताओं के प्रति असंवेदनशील बना रहता है तो हमें अपने विदेश नीति विकल्पों पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है क्योंकि निम्न मुद्रास्फीति के साथ उच्च आर्थिक विकास दर को बनाए रखना मौलिक विकासात्मक प्राथमिकता और एक प्रमुख रणनीतिक उद्देश्य है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पश्चिम एशिया की अस्थिरता भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगी। यदि अमेरिका भारत की ऊर्जा चिंताओं की अनदेखी करता है तो हमें अन्य नीति विकल्पों पर विचार से संकोच नहीं करना चाहिये। पूर्व में जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई तब भारत सरकार के तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने इसे कार्बन साम्राज्यवाद का नाम दिया था, जो जलवायु परिवर्तन के नाम पर कोयले और अन्य हाइड्रोकार्बन तक पहुँच से वंचित करने की रणनीति है, जिससे विकासशील देशों की विकास संभावनाओं पर असर पड़ता है।

अभ्यास प्रश्न:  अमेरिकी प्रतिबंधों के मद्देनज़र भारत को अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कौन-से कदम उठाने चाहिये? ठोस तर्कों सहित अपने विचार प्रकट कीजिये।

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