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सामाजिक बहिष्कार रोकने के लिये कड़ा कानून; महाराष्ट्र में गंभीर अपराध की श्रेणी में

  • 20 Jul 2017
  • 12 min read

संदर्भ और मुद्दा
भारत जैसे बहुधर्मी और विविधतापूर्ण देश में समाज में कई प्रकार की विषमताएँ और भ्रांतियाँ मौजूद हैं, जिनमें से प्रमुख है सामाजिक बहिष्कार। सामाजिक और जातिगत स्तर पर सक्रिय पंचायतों द्वारा सामाजिक बहिष्कार के मामले लगातार सामने आते रहते हैं। ग्रामीण अंचल में ऐसी घटनाएँ बहुतायत से होती हैं, जिसमें जाति व समाज से बाहर विवाह करने, समाज के मुखिया का कहना न मानने, पंचायतों के मनमाने फरमान व फैसलों का सिर झुकाकर न पालन करने पर किसी व्यक्ति या उसके पूरे परिवार को समाज व जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है व उसका समाज में हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता है। इस कुरीति से निपटने के लिये महाराष्ट्र सरकार ने 2016 में महाराष्ट्र सामाजिक बहिष्कार प्रतिबंधक कानून-2015 पारित किया था, जिसे हाल ही में राष्ट्रपति ने अपनी मंज़ूरी दे दी।  अब इस कानून के लागू होने का रास्ता साफ हो गया है।

आइये, प्रश्नोत्तर के माध्यम से यह जानने-समझने का प्रयास करते हैं कि महाराष्ट्र का नया सामाजिक बहिष्कार कानून क्या है? क्यों इसे लाया गया और यह कानून क्या करेगा? 

1. इस नए कानून के तहत सामाजिक बहिष्कार की श्रेणी में क्या-क्या शामिल है?

यह नया कानून जाति, समुदाय, धर्म, अनुष्ठान या रीति-रिवाजों के नाम पर सामाजिक बहिष्कार की अनुमति नहीं देता। यदि कोई व्यक्ति या समूह किसी दूसरे सदस्य या समूह को किसी भी सामाजिक या धार्मिक रीति-रिवाज़ या समारोह को देखने से रोकने या रोकने का प्रयास करता है, या सामाजिक, धार्मिक या सामुदायिक समारोहों, लोगों के जमावड़े, मण्डली, बैठक या जुलूस में भाग लेने से रोकता है तो इसे सामाजिक बहिष्कार की श्रेणी में माना जाएगा। इसी प्रकार जाति पंचायतों, धर्म, रीति-रिवाजों के नाम पर व्यक्तियों की स्वतंत्रता को चुनौती देना या उन्हें अपनी पसंद का कार्य करने से रोकना/इसका अधिकार न देना आदि को भी सामाजिक बहिष्कार माना जाएगा। इस मामले में ‘स्वतंत्रता’ की परिभाषा में विजातीय विवाह, किसी भी धर्मस्थल में जाने की छूट, अपनी पसंद के वस्त्र पहनना और किसी भी भाषा का उपयोग करना आदि शामिल हैं।  नैतिकता, राजनीतिक झुकाव या लैंगिक आधार पर भेदभाव भी सामाजिक बहिष्कार ही माना गया है। इसी प्रकार दुर्भावनापूर्ण इरादों के साथ किसी विशेष स्थान पर बच्चों को खेलने से रोकना, श्मशान/कब्रिस्तान, सामुदायिक भवनों या शिक्षण संस्थानों  में जाने से रोकना भी सामाजिक बहिष्कार माना गया है।

2. इस कानून के तहत सामाजिक बहिष्कार को किस प्रकार रोका जाएगा?

यदि कलेक्टर या ज़िला मजिस्ट्रेट को ऐसा लगता है या जानकारी मिलती है कि सामाजिक बहिष्कार करने के लिये लोग गैर-कानूनी तरीके से लोग एकत्र हो रहे हैं या ऐसा होने की संभावना है तो वह अपने आदेश द्वारा लोगों के एकत्र होने पर प्रतिबंध लगा सकता है। सामाजिक बहिष्कार का अपराध साबित हो जाने पर तीन साल तक जेल की सज़ा या एक लाख रुपए तक का दंड या दोनों लगाया जा सकता है। किसी एक व्यक्ति या समूह द्वारा इसके लिये उकसाने पर इसी सज़ा का प्रावधान रहेगा। सामाजिक बहिष्कार का अपराध संज्ञेय और जमानती माना गया है तथा इसकी सुनवाई मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में होगी। त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिये आरोप-पत्र (Charge sheet) दायर करने के 6 महीने के भीतर सुनवाई पूरी करनी होगी। 

3. महाराष्ट्र में ऐसे कानून की आवश्यकता क्यों महसूस की गई?

महाराष्ट्र में इस कानून का जन्म जाति पंचायतों द्वारा अतिरिक्त न्यायिक शक्तियों का प्रयोग कर  लोगों पर होने वाले अत्याचारों की बढ़ती घटनाओं के दबावों की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ। राज्य के रायगढ़, रत्नागिरि और नासिक ज़िलों में ऐसे सबसे ज़्यादा मामले सामने आए तथा सामाजिक बहिष्कार के मामलों में सर्वाधिक संख्या अंतरजातीय विवाह से जुड़े मामलों की थी। 2013-14 में रायगढ़ में 38 ऐसे मामले सामने आए थे। छोटे से कस्बे रोहा में 2010 के बाद से सामाजिक बहिष्कार के 22 मामले सामने आ चुके हैं।

प्रचलित कानूनों को अक्सर अदालतों में चुनौती दी जाती है या सज़ा से बचने के उपाय खोज लिये जाते हैं। यदि सामाजिक बहिष्कार के आरोप को साबित करने के ठोस प्रमाण हैं तो इस नए कानून में भारतीय दंड संहिता धारा 34, 120-ए, 120-बी, 149, 153-ए, 383 से 389 और 511 के तहत आरोप दर्ज किये जा सकते हैं।

यह कानून बनाने से पहले राज्य में विभिन्न राजनीतिक दलों में सर्वसम्मति बनाई गई। इस कानून को बनाने के पीछे तर्क यह दिया गया कि महाराष्ट्र एक प्रगतिशील राज्य है और यहाँ सामाजिक सुधारों की परंपरा रही है। ऐसे में सामाजिक बहिष्कार जैसी कुरीति को जारी रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती थी। यह कानून लाना इसलिये भी ज़रूरी हो गया था क्योंकि राज्य में परंपरा, जाति और समुदाय के नाम पर लोगों पर अत्याचारों के मामले काफी बढ़ गए थे। अब सामाजिक बहिष्कार से कड़ाई से निपटा जाएगा। जाति और सामुदायिक परंपराओं का हवाला देते हुए जाति पंचायत या समूह के नाम पर मुट्ठीभर लोगों द्वारा किये गए अत्याचार यदि मनुष्य की गरिमा पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं तो उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा। 

4. मूलतः समाज सुधार से संबद्ध इस कानून को पारित करने में सामाजिक संगठनों की क्या भूमिका रही?

लगभग चार वर्ष पहले राज्य में एक हृदयविदारक घटना हुई थी, जिसने समाज के लगभग प्रत्येक वर्ग को हिलाकर रख दिया था। घुमंतू (Nomadic) जनजाति से संबंध रखने वाली एक 22 वर्षीय युवती प्रमिला कुंभारकर ने अनुसूचित जाति के दीपक कांबले से विवाह लिया था। जब वह 9 माह की गर्भवती थी तो उसके पिता ने कथित रूप से उसकी हत्या कर दी, जिसे ‘ऑनर किलिंग’ बताया गया। इसके बाद चलाए गए  सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ अभियान को भारी जनसमर्थन मिला। प्रख्यात बुद्धिजीवी नरेंद्र दाभोलकर ने अपनी हत्या होने से कुछ माह पूर्व सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ एक बड़ा अभियान शुरू किया था। इससे पूर्व माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली पुणे की एक टीम के सदस्य रहे 30 वर्षीय राहुल येलांगे को 2012 में रायगढ़ जिले में स्थित अपने गाँव बुदरुक में केवल इसलिये सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा था क्योंकि उनकी पत्नी ने जींस पहन ली थी। 

5. सामाजिक बहिष्कार  के दुष्परिणामों का संक्षिप्त वर्णन करें? 

सामाजिक बहिष्कार होने से दंडित व्यक्ति व उसका परिवार गाँव में बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। पूरे गाँव-समाज में कोई भी व्यक्ति बहिष्कृत परिवार से न ही कोई बातचीत करता है और न ही उससे किसी प्रकार का व्यवहार रखता है। उस बहिष्कृत परिवार को कुएँ या हैंडपम्प से पानी लेने, तालाब में नहाने, सार्वजनिक कार्यक्रमों में शामिल होने, पंगत में साथ बैठने की मनाही हो जाती है। यहाँ तक उसे गाँव में किराना दुकान में सामान खरीदने, मज़दूरी करने, नाई, शादी-ब्याह जैसे सामाजिक व सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी शामिल होने से वंचित कर दिया जाता है, जिसके कारण वह परिवार गाँव में अत्यंत अपमानजनक स्थिति में पहुँच जाता है तथा गाँव में रहना मुश्किल हो जाता है। सामाजिक पंचायतें कभी-कभी सामाजिक बहिष्कार हटाने के लिये भारी जुर्माना, अनाज दंड, शारीरिक दंड व गाँव छोड़ने जैसे फरमान जारी कर देती हैं। सामाजिक बहिष्कार के कारण विभिन्न स्थानों से आत्महत्या, हत्या, प्रताड़ना व पलायन की खबरें लगातार समाचार-पत्रों में आती रहती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा की खाप जाति पंचायतों के सामाजिक बहिष्कार के अमानवीय फैसले समय-असमय समाचार-पत्रों में रहते हैं। भारत में सामाजिक बहिष्कार का सर्वाधिक शिकार अनुसूचित जाति, जनजाति के लोग अधिक होते हैं। इस संबंध में अब तक कोई सक्षम कानून नहीं था, लेकिन महाराष्ट्र ने यह कानून बनाकर अन्य राज्यों के लिये अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। 

6. महाराष्ट्र सामाजिक बहिष्कार प्रतिबंधक कानून-2015 के कुछ अन्य प्रावधानों की चर्चा करें।

  • यह विधेयक 13 अप्रैल, 2016 को महाराष्ट्र विधानमंडल के दोनों सदनों में पारित कर केंद्र की मंज़ूरी के लिये भेजा गया था। 
  • राज्य में सामाजिक बहिष्कार की कुछ घटनाओं के बाद अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति ने यह मसला सरकार के समक्ष रखा था। इस कानून से जातीय भेदभाव दूर करने में मदद मिलेगी और जाति पंचायतों पर भी रोक लग सकेगी।
  • कोई भी संगठन यदि जाति के आधार पर कोई फतवा जारी करता है, पीड़ित पर जुर्माना लगाता है तो उससे जुर्माने की राशि वसूल कर पीड़ित को मुआवज़ा देने का प्रावधान है।
  • सामाजिक बहिष्कार के मामलों को देखने के लिये अधिकारी नियुक्ति किये जाएंगे।
  • यदि किसी व्यक्ति को स्कूल, क्लब व मेडिकल सुविधाएँ हासिल करने से रोका जाता है तो इसे भी सामाजिक बहिष्कार की श्रेणी में माना जाएगा।
  • जाति पंचायत के फैसले का समर्थन करने वाले भी दोषी माने जाएंगे।
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