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राइट टू रिकॉल: आवश्यक किन्तु उपेक्षित

  • 05 Apr 2017
  • 10 min read

सन्दर्भ
जेम्स मिल ने कहा है कि “यदि किसी व्यक्ति को शक्ति दी जाए तो प्राकृतिक तौर पर वह उन शक्तियों का उपयोग स्वयं के लाभ के लिये करेगा, जनप्रतिनिधि के तौर पर चुना गया व्यक्ति भी यदि संभव हुआ तो अपनी शक्तियों का इस्तेमाल अपने लाभ के लिये करेगा”। हमारे यहाँ चुनावों में राजनैतिक दलों द्वारा अनैतिक पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। लोग पैसों की इस बहती गंगा में, हाथ में अपना मत लेकर डुबकी लगाते हैं और बदले में इस गंगा से शराब, मुर्गा और मुद्रा निकाल लाते हैं, फिर अगले पाँच सालों तक इस महापर्व का बेसब्री से इंतज़ार करने लगते हैं। चुनाव दर चुनाव यही किस्सा दोहराया जाता है। यदि पद और गोपनीयता की शपथ लेने के बाद भी जनप्रतिनिधि, जनता की उम्मीदों के अनुरूप काम नहीं करते हैं तो क्या यह मान लिया जाए कि भारत की जनता हमेशा ही इस दुश्चक्र में फँसी रहेगी? क्या ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिससे कि जनता अपने प्रतिनिधियों को कार्यकाल पूरा होने से पहले ही वापस बुला ले? दरअसल, प्रावधान तो है लेकिन उस पर ध्यान नहीं दिया जाता है, और इस उपेक्षित प्रावधान का नाम है “ राईट टू रिकॉल” यानी वापस बुलाने का अधिकार।

क्या है राइट टू रिकॉल ?
निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार का इतिहास काफी पुराना है। प्राचीन काल में एंथेनियन लोकतंत्र से ही यह कानून चलन में था। बाद में कई देशों ने इस राईट टू रिकाल को अपने संविधान में शामिल कर लिया। बहुसंख्यक विद्वानों का मानना है कि इस कानून की उत्पत्ति स्विटजरलैंड में हुई हालाँकि इसका चलन सर्वप्रथम अमेरिकी राज्यों में देखा गया। वर्ष 1903 में अमेरिका के लास एंजिल्स की म्यूनिसपैलिटी, 1908 में मिशिगन और ओरेगान में पहली बार राइट टू रिकाल राज्य के अधिकारियों के लिये लागू किया गया था।

वहीं यदि भारतीय परिपेक्ष्य में राइट टू रिकॉल की बात करें तो सर्वप्रथम लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने चार नवंबर 1974 को संपूर्ण क्रांति के दौरान राइट टू रिकॉल का नारा दिया था। तब से लेकर अब तक राइट टू रिकॉल सिर्फ घोषणाओं तक ही सीमित रहा है। इस बाबत किसी भी तरह के ठोस कानून बनाने को लेकर किसी भी राजनीतिक दल ने कोई पहल नहीं की है। इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है कि राइट टू रिकॉल वर्तमान स्थिति में सबसे महत्त्वपूर्ण व्यवस्था है जिसके माध्यम से लोगों को सशक्त किया जा सकता है और लोकतंत्र को मज़बूत बनाया जा सकता है।

क्या है रिकॉल चुनाव ?
आज के आधुनिक समय में रिकॉल चुनाव, जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार की प्रक्रिया का प्रतिरूप है। यह आम तौर पर एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके जरिये मतदाता चुने हुए प्रतिनिधियों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले प्रत्यक्ष मतदान के जरिये हटा सकते हैं। कनाडा की ब्रिटिश कोलंबिया विधानसभा ने 1995 से रिकॉल चुनाव को मान्यता दी है, जिसके जरिये मतदाता अपने संसदीय प्रतिनिधि को पद से हटाने के लिये अर्ज़ी दे सकते हैं। रिकॉल चुनाव अमेरिका में प्रत्यक्ष लोकतंत्र का एक सशक्त उपकरण है-अलास्का, जॉर्जिया, कंसास, मिनेसोटा, मोंटाना, रोड आईलैंड और वाशिंगटन जैसे प्रांत धोखाधड़ी और दुराचार के आरोप पर रिकॉल चुनाव की अनुमति देते हैं।

वर्तमान परिस्थियाँ
गौरतलब है कि भारत के सुप्रसिद्ध मानवाधिकारवादी एम एन रॉय ने वर्ष 1944 में विकेंद्रीकृत और शासन के विकसित स्वरूप को प्रस्तावित किया था, जो जनप्रतिनिधियों को चुनने और उन्हें वापस बुलाने की अनुमति देता है। 1974 में जयप्रकाश नारायण ने भी राइट टु रिकॉल के बारे में काफी कुछ कहा। वर्ष 2008 में छत्तीसगढ़ नगरपालिका अधिनियम,1961 के तहत लोगों ने तीन निर्वाचित स्थानीय निकाय के प्रमुखों का निर्वाचन रद्द कर दिया। मध्य प्रदेश और बिहार में भी राइट टु रिकॉल स्थानीय निकाय स्तर पर अस्तित्व में है। 2008 में लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी राइट टू रिकॉल का समर्थन किया था। गुजरात के राज्य निर्वाचन आयोग ने राज्य सरकार को नगरपालिका, ज़िले, ताल्लुका और ग्राम पंचायतों में निर्वाचित सदस्यों को वापस बुलाने के लिये कानून में ज़रूरी संशोधन की सलाह दी थी।

जिन नगर निकायों में राइट टू रिकॉल का प्रावधान लागू है वहाँ संबंधित वार्ड के पचास फीसदी से अधिक मतदाताओं को एक हस्ताक्षरित आवेदन नगर विकास विभाग को देना होता है। विभाग उस हस्ताक्षरित आवेदन पर विचार करता है और देखता है कि यह आवेदन कार्यवाही योग्य है या नहीं। यदि विभाग इस बात से सहमत है कि संबंधित वार्ड काउंसिलर ने दो तिहाई मतदाताओं का विश्वास खो दिया है तो वह उक्त कांउसिलर को पदच्युत कर सकता है।

क्यों आवश्यक है रिकॉल चुनाव ?
एक सच्चे लोकतंत्र में एक ऐसी सरकार की परिकल्पना की गई है, जो लोगों की, लोगों के लिये और लोगों द्वारा चुनी गई हो। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई बार बहुमत की चुनाव प्रणाली में हर निर्वाचित जनप्रतिनिधि को लोगों का सच्चा जनादेश प्राप्त नहीं होता है। तर्क और न्याय का तकाज़ा है कि अगर लोगों को अपना जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, तो उन्हें जनप्रतिनिधियों के कर्तव्यपालन में विफल रहने या कदाचार में लिप्त होने पर हटाने का भी अधिकार मिलना चाहिये। विदित हो कि जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 केवल कुछ अपराधों के मामले में जनप्रतिनिधियों को हटाने की मंजूरी देता है और जनप्रतिनिधियों की सामान्य अक्षमता और मतदाताओं की नाराजगी को उन्हें हटाने का कारण नहीं मानता।

क्यों व्यावहारिक नहीं है रिकॉल चुनाव ?
रिकॉल चुनाव के साथ समस्या यह है कि यदि जनता ने एक-एक करके प्रत्येक निर्वाचित उम्मीदवार को खारिज़ करना शुरू कर दिया तो हमें बार-बार चुनाव कराना होगा। भारत में चुनाव एक खर्चीली प्रक्रिया है जहाँ सरकार का पैसा तो खर्च होता ही है साथ ही उम्मीदवारों द्वारा भी तय सीमा से अधिक खर्च किया जाता है, यदि बार-बार चुनाव हुए तो आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक समस्याएँ भी खड़ी हो सकती हैं।

क्या हो आगे का रास्ता ?
इसमें कोई शक नहीं है कि ‘राइट टू रिकॉल' भारतीय लोकतंत्र के लिये एक क्रन्तिकारी कदम होगा, लेकिन इसके लिये ‘रिकॉल चुनाव’ से बचा जा सकता है। होना यह चाहिये कि लोक सभा और राज्य विधानसभाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने संबंधी याचिकाओं पर किसी निर्वाचन क्षेत्र के कम से कम एक चौथाई लोगों के हस्ताक्षर हों और इसके लिये जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 में महत्त्वपूर्ण संशोधन करना होगा। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि राइट टू रिकॉल जनप्रतिनिधियों के उत्पीड़न का स्रोत न बन जाए। इसलिये रिकॉल प्रक्रिया में कई सुरक्षा उपायों को शामिल किया जाना चाहिये। रिकॉल की प्रक्रिया का आरम्भ याचिका के माध्यम से शुरू की जाए, उसके बाद इस याचिका की पहली समीक्षा संबंधित सदन के अध्यक्ष द्वारा की जाए और फिर अंत में इलेक्ट्रॉनिक मतदान से अंतिम परिणाम निर्धारित किया जाए।

निष्कर्ष
एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव देश के नागरिकों का अधिकार है। लोकतंत्र की मज़बूती के लिये मताधिकार के साथ ही वापस बुलाने का अधिकार भी सुनिश्चित किया जाना चाहिये। अतः यह आवश्यक है कि जिस तरह से जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनाव के माध्यम से तय करती है ठीक वैसे ही एक चुनाव उन्हें वापस बुलाने के लिये भी किया जाए, आखिर लोकतंत्र में मालिकाना हक़ तो जनता का ही है।

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