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बैंकरप्सी कोड में निहित समस्याएँ एवं उनका निदान

  • 12 Aug 2017
  • 9 min read

संदर्भ

  • बैंकरप्सी कोड 2015 को लागू करने का मुख्य उद्देश्य एनपीए की गंभीर होती समस्या का समाधान करना है। दरअसल, जब भी कोई प्रावधान बनाया जाता है या किसी कानून का निर्माण किया जाता है तो एक मुख्य उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही कानून निर्माण प्रक्रिया में आवश्यक कदम उठाए जाते हैं।
  • प्रथम दृष्टया ‘द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2015’ (दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता 2015) बनाने का उद्देश्य यह नज़र आता है कि ‘देश में ऋण न चुकाने वाले सभी प्रतिष्ठान देश के कमज़ोर दिवालियापन कानून ढाँचे का अनुचित फायदा उठाते हैं और उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिये हमें एक मज़बूत कानून लाना होगा’।
  • बैंकरप्सी कोड के कई अन्य उद्देश्य भी हैं, लेकिन उन्हें अधिक महत्त्व नहीं दिया जा रहा है।
  • वर्तमान में इस कानून के तहत कई कंपनियों पर कार्यवाही शुरू कर दी गई है। एक ओर जहाँ यह कानून बढ़ते एनपीए की समस्या पर लगाम लगाने के सार्थक उद्देश्यों से लैस है, वहीं यह कई समस्याओं को भी जन्म दे सकता है। समस्याओं पर गौर करने से पहले देखते हैं कि बैंकरप्सी कोड है क्या और इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी?

क्या है ‘द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2015’ ?

  • विदित हो कि विगत वर्ष केंद्र सरकार ने आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाते हुए एक नया दिवालियापन संहिता संबंधी विधेयक पारित किया था। यह नया कानून 1909 के 'प्रेसीडेंसी टाऊन इन्सॉल्वेंसी एक्ट’ और 'प्रोवेंशियल इन्सॉल्वेंसी एक्ट 1920 को रद्द करता है और कंपनी एक्ट, लिमिटेड लाइबिलिटी पार्टनरशिप एक्ट और 'सेक्यूटाईजेशन एक्ट' समेत कई कानूनों में संशोधन करता है।
  • दरअसल, कंपनी या साझेदारी फर्म व्यवसाय में नुकसान के चलते कभी भी दिवालिया हो सकते हैं। यदि कोई आर्थिक इकाई दिवालिया होती है तो इसका मतलब यह है कि वह अपने संसाधनों के आधार पर अपने ऋणों को चुका पाने में असमर्थ है।
  • ऐसी स्थिति में कानून में स्पष्टता न होने पर ऋणदाताओं को भी नुकसान होता है और स्वयं उस व्यक्ति या फर्म को भी तरह-तरह की मानसिक एवं अन्य प्रताड़नाओं से गुज़रना पड़ता है। देश में अभी तक दिवालियापन से संबंधित कम से कम 12 कानून थे, जिनमें से कुछ तो 100 साल से भी ज़्यादा पुराने हैं।

बैंकरप्सी कोड में निहित समस्याएँ

  • यदि कोई उद्यमी ऋण नहीं चुका पा रहा है तो यह कानून उसे दिवालिया घोषित कर उसकी परिसम्पतियों की जल्द से जल्द नीलामी सुनिश्चित करता है, ताकि बैंकों के खातों से एनपीए को कम या समाप्त किया जा सके। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि डिफाल्टरों के व्यवसायों को ही बंद कर दिया जाए, जो कि यह कोड कर सकता है।
  • इस कानून के तहत, दिवालिया होने वाली फर्मों के सम्पूर्ण व्यवसाय का प्रबन्धन उन बैंकों को दिया जा सकता है, जिनका ऋण संबंधित कंपनियों द्वारा नहीं चुकाया गया है। लेकिन इस प्रक्रिया में यह कोड कंपनी के अधिकारों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान नहीं करता है।
  • बैंकरप्सी कोड के तहत दिवालियापन प्रक्रियाओं को 180 दिनों के अंदर निपटाना होगा। यदि दिवालियेपन को सुलझाया नहीं जा सकता तो ऋणदाता (Creditors) का ऋण चुकाने के लिये उधारकर्ता (borrowers) की परिसंपत्तियों को बेचा जा सकता है। 
  • किसी फर्म को दिवालिया घोषित करने के लिये ‘प्रस्ताव प्रक्रिया’ (Resolution Processes) लाइसेंस प्राप्त ‘दिवाला पेशेवरों’ (Insolvency Professionals) द्वारा संचालित की जाएगी और ये ‘पेशेवर दिवाला एजेंसियों’ (Insolvency Professional Agencies) के सदस्य होंगे। विदित हो कि इस समूची प्रक्रिया में देनदारों को अपने पक्ष रखने के बहुत ही कम अवसर मिलते हैं।
  • देनदारों को अपनी बात रखने का मौका नहीं मिलना, संविधान के मूल्यों और वर्ष 1978 में ‘मेनका गाँधी बनाम भारत सरकार’ मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए  निर्णय के खिलाफ है।
  • इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सभी व्यक्तियों को अपना पक्ष रखने का अधिकार है। सरकार के किसी नियामक द्वारा कार्रवाई के दौरान यदि व्यक्ति का पक्ष सुने जाने को लेकर कोई कानूनी बाध्यता नहीं है, तो भी उस व्यक्ति को सुना जाना चाहिये।
  • दिवाला पेशेवरों की योग्यता और क्षमताओं के बारे में भी इस कोड में कुछ नहीं बताया गया है। साथ में दिवाला पेशेवरों द्वारा ऋणी व्यक्ति या फर्म के स्वामित्व संबंधी जानकारियाँ भी एकत्र की जाती हैं। यह चिंतनीय है कि ये जानकारियाँ कोई भी देख सकता है, जो कि अनुच्छेद 19 (1)(g) के तहत व्यापार करने की स्वतंत्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन है।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • दिवालियेपन से जुड़े कानून को कंपनी से जुड़े सभी लोगों के हितों का पूरी तरह ध्यान रखना चाहिये। किसी पर भी अधिक जोखिम नहीं डाला जाना चाहिये।
  • विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय कारपोरेशन ने बताया है कि भारत में दिवालियापन से जुड़ा कानून व्यवहार में प्रभावकारी सिद्ध नहीं हुआ है।
  • सच कहें तो अब तक दिवालियापन से जुड़े अधिकारी कोर्ट और ट्रिब्यूनल्स कारगर साबित नहीं हुए हैं। इस बात को लेकर स्थिति स्पष्ट होनी चाहिये कि कब और किन परिस्थितियों में किसी ऋण के बोझ से दबी कंपनी को पुनर्जीवित किया जाए या फिर उसके अस्तित्व को समाप्त होने दिया जाए।
  • किसी कंपनी के दिवालिया होने की स्थिति में उसके प्रबंधन की क्षमता पर भी विचार किया जाना चाहिये। उसे अपना पक्ष रखने और खुद का प्रतिनिधत्व करने का अवसर मिलना चाहिये।

निष्कर्ष

  • किसी कारोबारी द्वारा बैंकों का कर्ज़ चुकता न किये जाने से न सिर्फ बैंकों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था भी कमज़ोर होती है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के नुकसान की भरपाई अंततः सरकारी खज़ाने से करनी पड़ती है। यह खज़ाना देश की सामूहिक आय, नागरिकों द्वारा दिये गए कर और बचत की राशि से बनता है। अतः बैंकरप्सी कोड एनपीए समस्या के समाधान के लिये महत्त्वपूर्ण है। लेकिन हमें उपरोक्त सुधारों को भी ध्यान में रखना होगा।
  • बैंकरप्सी कोड केवल एनपीए समस्या का ही समाधान नहीं है, बल्कि भारत की पुरातन और अप्रचलित दिवालियापन कानूनों में सुधार करना भी इसका एक अहम उद्देश्य है। दरअसल, हम जिस सुधार की बात कर रहें है वह दो पक्षों से संबंधित है; डेटर (debtor) तथा क्रेडिटर (creditor) यानी लेनदार और देनदार। हमें दोनों ही  पक्षों का ध्यान रखते हुए बैंकरप्सी कोड में आपेक्षित सुधार करना होगा।
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