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रोज़गार सृजन के मोर्चे पर तय करनी होंगी प्राथमिकताएँ

  • 19 Aug 2017
  • 8 min read

संदर्भ

रोज़गार सृजन किसी भी सरकार की  सर्वोच्च प्राथमिकता मानी जाती है, लेकिन आज रोज़गार सृजन के मोर्चे पर हम असफल प्रतीत हो रहे हैं।  भारत सरकार के श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय द्वारा मुहैया कराए गए सरकारी आँकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं। 2009-11 के बीच जब भारत की जीडीपी 8.5 प्रतिशत के औसत से बढ़ रही थी तब संगठित क्षेत्र में हर साल 9.5 लाख नई नौकरियां पैदा हो रही थीं। इसके बावजूद इस विकास को जॉबलेस ग्रोथ यानी रोज़गार विहीन संवृद्धि कहा गया। पिछले दो वर्षों में औसत नए रोज़गार की संख्या गिरकर 2 लाख नौकरियाँ प्रतिवर्ष तक आ गई है। यह 2011 से पहले वार्षिक रोज़गार के आँकड़ों से भी 25 प्रतिशत कम है। रोज़गार सृजन के लिये सरकार को आगे क्या करना चाहिये यह देखने से पहले  यह जानना  दिलचस्प होगा कि सरकार ने इस मोर्चे पर अब तक किया क्या है और उनके सम्भावित प्रभाव क्या हो सकते हैं?

रोज़गार सृजन के लिये सरकार के प्रयास

राजमार्ग निर्माण, ग्रामीण सड़क विकास में तेज़ी, अगले पाँच वर्षों में 8.5 लाख करोड़ रुपए का पूंजीगत व्यय तथा मेट्रो रेल परियोजनाओं आदि से रोज़गार को बढ़ावा मिलेगा।

खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में 100 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश से ग्रामीण भारत में रोज़गार के अवसर पैदा होंगे और प्रत्येक वर्ष 40,000 करोड़ रुपए मूल्य के फलों तथा सब्ज़ियों की बर्बादी को लम किया जा सकेगा।

मुद्रा योजना से कई करोड़ युवाओं को स्वरोज़गार की माध्यम से रोज़गार सुनिश्चित हुआ है। ग्रामीण भारत के युवा न केवल अपना रोज़गार पाते हैं बल्कि स्टार्टअप में दूसरे लोगों को भी रोज़गार दे रहे हैं।

बेहतर बुनियादी संरचना की मदद से अनेक औद्योगिक गलियारे बने हैं और ऐसे गलियारे तमिलनाडु के त्रिरुचुर, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद, पंजाब के लुधियाना, गुजरात के सूरत और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जैसे औद्योगिक क्लस्टरों का सृजन करेंगे।

अधिक मात्रा में कृषि उत्पाद वाले क्षेत्रों में खाद्य प्रसंस्करण पार्कों की स्थापना से ग्रामीण रोज़गार सुनिश्चित होगा और किसानों की आमदनी बढ़ेगी।

विमुद्रीकरण और वस्तु एवं सेवा कर लागू होने से अर्थव्यवस्था का डिजिटीकरण हुआ और इससे अधिक रोज़गार के अवसर पैदा होंगे।

प्रणालीबद्ध और ढाँचागत सुधारों के कारण अल्पकालिक अवधि में रोज़गार सृजन में भले ही बाधा आई हो लेकिन आने वाले वर्षों में अर्थव्यवस्था में तेज़ी आएगी और रोज़गार सृजन का आधार तैयार होगा।

चिंताजनक आँकड़े

सरकार के तमाम दावों एवं प्रयासों के बावजूद वर्तमान में हम पर्याप्त संख्या में रोज़गार सृजित नहीं कर पाए हैं। विदित हो कि कपड़ा, धातु, चमड़े, रत्न एवं आभूषण, आईटी एवं बीपीओ, ट्रांसपोर्ट, ऑटोमोबाइल्स और हथकरघा जैसे क्षेत्रों में रोज़गार सृजन का स्तर गिरकर अब तक के सबसे निचले स्तर 1.5 लाख पर आ गया।

इसे खतरे की घंटी समझकर सरकार ने आँकड़े इकट्ठा करने के तरीके की समीक्षा करने का फैसला लिया। इसने संगठित क्षेत्र का दायरा बढ़ाते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य और रेस्तरां जैसे कुछ अहम सेवा उद्योगों को इसमें शामिल कर लिया।

संगठित क्षेत्र में सेवा क्षेत्र को जोड़ने से सरकार को 2016 के लिये रोज़गार निर्माण में वृद्धि के थोड़े बेहतर आँकड़े पेश करने में मदद मिली है। 2015 में नई नौकरियों के निर्माण का आँकड़ा 1.55 लाख था, वहीं 2016 में यह बढ़कर 2.31 लाख हो गया।

आगे की राह

सरकार ने बड़े पैमाने पर लोगों को रोज़गार देने का वादा किया था लेकिन सरकार की कोशिशों का मामूली असर ही दिख रहा है। मोदी सरकार रोज़गार के नए अवसर नहीं पैदा कर पाई और कृत्रिम बुद्धिमत्ता एवं डिजिटल तकनीक के विस्तार ने उसकी चुनौतियाँ और भी बढ़ा दी हैं। इन परिस्थितयों में हमें नीतिगत बदलाव पर ध्यान देना होगा। रोज़गार के इच्छुक लोगों को उद्यमिता के अवसर प्रदान करने होंगे ताकि वे औरों को भी रोज़गार दे सकें।

स्टार्टअप इंडिया जैसे अभियानों को और अधिक प्रभावी बनाए जाने की ज़रूरत है, विदित हो कि इस योजना के तहत स्टार्टअप की परिभाषा में बदलाव समेत कई आवश्यक कदम सरकार ने उठाए हैं।

मुकम्मल भूमि सुधार, चौतरफा कृषि विकास और कृषि आधारित उद्यमों का जाल हमारी संपूर्ण अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवन की ज़रूरी  शर्त तो है ही, लेकिन रोज़गार की दृष्टि से भी इसका केंद्रीय महत्त्व है। लघु-कुटीर उद्योग न सिर्फ स्व-रोज़गार का एक बड़ा क्षेत्र है, बल्कि इसकी खुशहाली से बनने वाला घरेलू बाज़ार वैश्विक मंदी के दौर में हमारे औद्योगिक विनिर्माण क्षेत्र के पुनर्जीवन का आधार बन सकता है। ज़ाहिर है, बड़े पैमाने पर रोज़गार सृजन के लिये उक्त क्षेत्रों में भारी सार्वजनिक निवेश की नीति अपनानी पड़ेगी।

निर्णायक साबित हो सकते हैं कुटीर उद्योग

आज देश में पाँच करोड़ से अधिक मझौले और सूक्ष्म एवं लघु उद्योग हैं। ये उद्योग भारत के मैन्यूफैक्चरिंग में 40 प्रतिशत और निर्यात में 45 प्रतिशत का योगदान देते हैं।

छोटे उद्योग रोज़गार सृजन के लिये आवश्यक हैं, क्योंकि ऑटोमेशन और उच्च प्रौद्योगिकी का उपयोग करने वाले पूंजीगत भारी उद्योग रोज़गार प्रेरक नहीं हो सकते। निर्माण, अवसंरचना विकास, लॉजिस्टिक कारोबार, वस्त्र एवं हथकरघा क्षेत्र में रोज़गार सृजन असीम संभावनाएँ हैं।

दरअसल, छोटे तथा कुटीर उद्योगों में एक व्यक्ति के रोज़गार के लिये 1-1.5 लाख रुपए निवेश की आवश्यकता है, जबकि पूंजी वाले भारी उद्योगों में एक रोज़गार के लिये 5-6 लाख रुपए का निवेश करना पड़ता है।

निष्कर्ष

श्रमशक्ति को न सिर्फ रोज़गार के लायक बनाना होगा बल्कि वो अपना सर्वोतम दे सके इसके लिये मानव संसाधन के विकास हेतु किये जाने वाले निवेश में वृद्धि करनी होगी। चीन की आर्थिक प्रगति का राज़ शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास में उसके द्वारा किए गए भारी सार्वजनिक निवेश में छिपा है।

इसमें कोई शक नहीं है कि भारतीय अर्थव्यस्था लगातार प्रगति कर रही है लेकिन राह में अनेक चुनौतियाँ हैं और रोज़गार सृजन की समस्या उन्ही चुनौतियों में से एक है, वक्त है हम अपनी प्राथमिकताएँ तय करें और उनमें इसे पहले स्थान पर रखें।

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