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जैव विविधता और पर्यावरण

21वीं शताब्दी में प्राकृतिक पूंजी

  • 24 May 2018
  • 14 min read

संदर्भ

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक कुछ साल पहले भारत को वायु प्रदूषण के कारण 550 अरब डॉलर (सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 8.5%) का नुकसान उठाना पड़ा था, जल प्रदूषण और भूमि क्षरण जैसे बाहरी कारकों से होने वाला नुकसान तो इससे भी कहीं अधिक था। भौतिक पूंजी प्राप्त करने हेतु हम बहुत प्रभावी ढंग से कमोडिटी निर्यात (commodity exports) के ज़रिये प्राकृतिक पूंजी (Natural Capital) को अपने व्यापारिक भागीदारों को स्थानांतरित कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप मरुस्थलीकरण का खतरा बढ़ जाता है और ज़मीन की गुणवत्ता के स्तर में काफी गिरावट आती है।

  • यदि इन प्रवृत्तियों को जारी रखा जाता है तो एक शताब्दी के भीतर हमारे खाद्य उत्पादन में तकरीबन 10 से 40% की कमी देखी जा सकती है। इसलिये जब हम सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के बारे में बात करते हैं, तो हमें अपने राष्ट्रीय खातों में प्राकृतिक पूंजी में आने वाली गिरावट के विषय में भी विचार करना चाहिये, ताकि भावी पीढ़ी को इस संकट से बचाया जा सके।

प्राकृतिक पूंजी अनुमान एक चुनौतीपूर्ण कार्य है

  • विश्व की अधिकतर बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक वर्ष से अधिक की समयावधि के लिये राष्ट्रीय खाता (National Account) तैयार किया जाता है। 
  • ये राष्ट्रीय खाते [सकल घरेलू उत्पाद (GDP), शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (Net National Product), सकल बचत (Gross Savings)] संभावित और वास्तविक आर्थिक उत्पादन के बीच के अंतर को रेखांकित करते हुए किसी देश की अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन का एक उपाय प्रदान करते हैं। साथ ही उस देश की सामाजिक-आर्थिक नीतियों को आधार भी प्रदान करते हैं।
  • सकल घरेलू उत्पाद की गणना से देश में आर्थिक गतिविधि का संकेत मिलता है, बढ़ती सकल घरेलू उत्पाद की दर अक्सर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को बढ़ावा देती है।
  • हालाँकि, ऐसे अनुमान अक्सर प्राकृतिक पूंजी में होने वाले परिवर्तन को निरंतर और अविभाज्य करार देते हुए बहिष्कृत कर देते हैं। ऐसी प्राकृतिक पूंजी अक्सर आत्मनिर्भर (पानी, स्वच्छ हवा) होती है लेकिन इसे निरंतर क्षति से बचाने के लिये एक स्थायी तरीके की आवश्यकता होती है। प्राकृतिक पूंजी की सुरक्षा सतत् भविष्य की कुंजी होती है।
  • इसमें कोई दोराय नहीं है कि प्राकृतिक संसाधन पृथ्वी के बहुमूल्य संसाधन होते हैं तथापि ये भारत के राष्ट्रीय आधारभूत ढाँचे का सबसे उपेक्षित भाग है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम प्रकृति की सबसे कीमती देन का उस रूप में उपयोग नहीं कर पा रहे हैं जिस तरह किया जाना चाहिये। 
  • उल्लेखनीय है कि भारत विश्व के 17 सर्वाधिक प्राकृतिक विविधता वाले देशों में से एक है।
  • प्राकृतिक पारितंत्र का भारत की अर्थव्यवस्था में कई बिलियन डॉलर (वार्षिक स्तर पर) का योगदान है; उदाहरण के तौर पर, भारतीय वनों का वित्तीय मूल्य तकरीबन $1.7 ट्रिलियन है। ये वन न केवल इमारती लकड़ी एवं जलावन के रूप में देश को ईंधन उपलब्ध कराते हैं बल्कि कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने में भी उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।
  • हालाँकि पिछले कुछ समय से देश के प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण इनमें ह्रास की स्थिति देखी गई है। इससे न केवल मानव जीवन प्रभावित हुआ है बल्कि कच्चे माल के प्रमुख स्रोत होने के कारण इससे अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुँचा है।

प्राकृतिक पूंजी क्या होती है?

  • प्राकृतिक पूंजी में समस्त पारिस्थितिक तंत्र जैसे- मत्स्य पालन और वनों को शामिल किया जा सकता है, इसके साथ-साथ इसके अंतर्गत अन्य प्रत्यक्ष रूप से नज़र आने वाले तथा न नज़र आने वाले तत्त्वों जैसे- मिट्टी, नाइट्रोजन निर्धारण, पोषक तत्त्व एवं पुनर्चक्रण, परागण और समग्र जलविद्युत चक्र आदि को भी शामिल किया जाता है। 
  • हालाँकि इस तरह के पारिस्थितिकी तंत्र की भौतिक कीमत निर्धारित कर पाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, इसके बावजूद इनके बाज़ार मूल्य को अक्सर शून्य ही जाना जाता है।
  • जब पारिस्थितिकी के स्रोत में प्रदूषण होता है, तो वह केवल प्रकृति के लिये नुकसानदायक नहीं होता है बल्कि हकीकत यह है कि वह हमारी प्राकृतिक पूंजी में कमी को स्पष्ट करता है, उदाहरण के लिये अम्लीय वर्षा अर्थात् एसिड रेन से वनों को काफी नुकसान पहुँचता है, साथ ही इसके कारण औद्योगिक रिसाव की घटनाएँ भी होती हैं जिससे पानी की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
  • एक आधुनिक अर्थव्यवस्था में प्राकृतिक पूंजी के लिये इस तरह के मूल्यह्रास का अनुमान लगा पाना एक बहुत ही चुनौती वाला काम है।
  • यदि इस संदर्भ में भूजल के बारे में विचार करें तो हम पाएंगे कि भारत में अधिकांशतः भूजल घाटी को अप्रतिबंधित निष्कर्षण के अधीन शामिल किया जाता है। 
  • इसका कारण यह है कि 'भूजल के निष्कासन का मार्जिनल मूल्य यूनिट निष्कर्षण लागत से काफी अधिक होता है' अर्थात् जब भूजल स्तर बहुत अधिक नीचे चला जाता है तो उसकी प्राप्ति हेतु नए बोरेवेल को लगाया जाता है।

"पर्यावरणीय कुजनेट कर्व"

  • यही कारण है कि कई अर्थशास्त्रियों ने "पर्यावरणीय कुजनेट कर्व" (Environmental Kuznets Curve) को विशेष महत्त्व दिया है, यह कर्व दर्शाता है कि प्रति व्यक्ति जीडीपी और स्थानीय हवा में मौजूद सल्फर डाइऑक्साइड की एकाग्रता के बीच एक उल्टा यू कर्व (U curve) का संबंध होता है।
  • इस तरह के संबंध से इस बात को बल मिलता है कि 'विकासशील देशों के लोग प्राकृतिक पर्यावरण पर भार नहीं डाल सकते हैं।' स्पष्ट रूप से प्रदूषण को सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि हेतु स्वीकार्य दुष्प्रभाव के रूप में मान्यता दी जानी चाहिये।
  • हालाँकि, यह उल्टा यू कर्व मुख्य रूप से स्थानीय प्रदूषकों के लिये ही प्रयोग किया जाता है जो अल्पावधिक क्षति (उदाहरण के तौर पर सल्फर तथा पार्टिकल मैटर आदि) के कारण होते हैं।
  • इसका इस्तेमाल वैसे प्रदूषकों के संदर्भ में नहीं किया जाता है जो लंबी अवधि और अधिक तीव्र प्रभाव वाले तत्त्वों (उदाहरण के लिये कार्बन डाइऑक्साइड जैसे तत्त्व) के कारण होते हैं। इसके अलावा, यह उल्टा यू कर्व उत्सर्जन के व्यवस्थित परिणामों के बारे में भी कोई विवरण पेश नहीं करता है।
  • लंबे समय से हम प्राकृतिक पूंजी को सुख-सुविधाओं के रूप में प्रयोग करते आए हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि यह सुख-सुविधा न होकर हमारी बुनियादी आवश्यकता है। एक ऐसी आवश्यकता जिसके बगैर जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती है।

भारतीय संदर्भ में बात करें तो

  • भारत की जीडीपी लगभग $ 2.65 ट्रिलियन (in nominal terms) है, इसके बावजूद इसमें प्राकृतिक पूंजी जैसे बाहरी कारकों के संदर्भ में कोई विशेष ध्यान केंद्रित नहीं किया जाता है।
  • उदाहरण के लिये, भारत नियमित रूप से वायु प्रदूषण की समस्या से जूझता रहता है, जिसके कारण न केवल शहरी बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्थानीय परिवहन, स्वास्थ्य और जीवनशैली पर आने वाली लागत में इज़ाफा होता है।
  • जब आर्थिक विकास कृषि, खनन या शहरी विस्तार के लिये जंगलों, आर्द्रभूमि और वन भूमियों के विनाश को बढ़ावा प्रदान करता है तो इसका प्रभाव बहुत लंबे समय के लिये अस्तित्व में रहता है।

इस संदर्भ में भारत द्वारा किये गए कुछ प्रयास

  • भारत ने "ग्रीन जीडीपी" आँकड़ों का अनावरण करने का प्रयास किया है। 2009 में केंद्र सरकार ने घोषणा की थी कि वह एक "ग्रीन जीडीपी" प्रकाशित करेगी, जिसमें देश के घटते जंगलों, घास के मैदानों और प्राकृतिक स्टॉक की पर्यावरणीय लागत को शामिल किया जाएगा।
  • इसी क्रम में सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (Ministry of Statistics and Programme) द्वारा एक विशेष कार्यक्रम ‘पर्यावरण सांख्यिकी 2013 का एक सारांश’’ (Compendium of Environment Statistics 2013) प्रायोजित किया गया।
  • इसके तहत यह सिफारिश की गई कि भारत को एक व्यापक राष्ट्रीय संपत्ति की ओर रुख करना चाहिये जिसमें मानव पूंजी, पूंजीगत उपकरण और प्राकृतिक पूंजी जैसे कारकों को शामिल किया जाना चाहिये।
  • हालाँकि, एक बेहतर सिफारिश का कार्यान्वयन संभव नहीं हो सका क्योंकि इन सिफारिशों के अंतर्गत पूंजी निर्माण हेतु (विशेष रूप से प्राकृतिक संदर्भ में) सूक्ष्म स्तर के आँकड़ों को शामिल नहीं किया गया।
  • इसके अतिरिक्त 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत राष्ट्रीय स्तर पर भूजल संसाधन मानचित्रण शुरू किया गया, इसी प्रकार के अध्ययन किये जाने की आवश्यकता भूमि उपयोग, वनों और खनिज संपदा के संबंध में भी है।

जीडीपी में प्राकृतिक पूंजी का सही अनुमान शामिल नहीं होता है

  • जीडीपी के अंतर्गत खनिज निष्कर्षण; इमारती लकड़ी, जलावन और गैर-इमारती लकड़ी से निर्मित उत्पादों;  कुछ फसलों हेतु कृषिगत संपत्तियों के प्राकृतिक विकास तथा गोबर खाद से होने वाले उत्पादन के मूल्य को शामिल किया जाता है।
  • इसके अलावा, सकल नियत पूंजी निर्माण में सिंचाई कार्यों और बाढ़ नियंत्रण परियोजनाओं के साथ भूमि सुधार के परिणामों के अनुमान को शामिल किया जाता है। 
  • भले ही इमारती लकड़ी के मूल्य को जीडीपी अनुमानों में शामिल किया जाता है, तो भी इनके मूल्य का सटीक अनुमान इसमें निहित किया जाता है क्योंकि इमारती लकड़ी के वनों से उपलब्ध गैर-मुद्रीकृत सामान और सेवाओं को इसमें निहित नहीं किया जाता है, जो इस बात का प्रमाण है कि जीडीपी के अंतर्गत प्राकृतिक पूंजी का सटीक रूप में अनुमान नहीं लगाया जाता है।

निष्कर्ष

इसके लिये यह बहुत ज़रुरी है कि भारत "ग्रीन जीडीपी" के संबंध में जितना संभव हो उतने सटीक आँकड़े प्रकाशित करे, ताकि आर्थिक शोषण और पर्यावरणीय क्षति के कारण हुए प्राकृतिक पूंजीगत स्टॉक के मूल्यह्रास के संबंध में प्रभावी कार्यवाही की जा सके। इसके लिये यूएन की पर्यावरण-आर्थिक लेखा प्रणाली (UN’s System of Environmental-Economic Accounting) द्वारा प्रदान किये गए आदर्शों का पालन किया जा सकता है। हमें पारिस्थितिक तंत्र के संभावित मूल्य के विषय में अधिक-से-अधिक अध्ययनों को प्रोत्साहित करना चाहिये। उपरोक्त विवरण से हमें यही सीख मिलती है कि विकास की राह पर अग्रसर होती अर्थव्यवस्था को और अधिक उन्नत बनाने के लिये हमें हरित अर्थव्यवस्था के व्यवहार्य पथ को विकसित करने की दिशा में अधिक प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है।

प्रश्न: प्राकृतिक पूंजी की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए इस संदर्भ में भारत सरकार द्वारा किये गए प्रयासों का विवरण प्रस्तुत कीजिये। साथ ही जीडीपी में किस प्रकार से इसकी गणना की जाती है, उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिये।

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