आंतरिक सुरक्षा
माओवादी प्रभावित क्षेत्रों के रूपांतरण हेतु भारत का रोडमैप
- 12 Dec 2025
- 140 min read
यह एडिटोरियल 05/12/2025 को द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित “Message to Maoists, from one of their own: Violence doesn’t work ” शीर्षक वाले लेख पर आधारित है। यह लेख यह दर्शाता है कि सामाजिक न्याय और समावेशी विकास प्राप्त करने के लिये हिंसा-आधारित आंदोलन की अपनी सीमाएँ होती हैं। आगे यह सरकार द्वारा 'रेड टेरर' को समाप्त करने के लिये अपनाये गये बहुआयामी दृष्टिकोण को भी उजागर करता है।
प्रिलिम्स के लिये: वन अधिकार अधिनियम, वामपंथी उग्रवाद, PMGSY ऑपरेशन, ब्लैक फॉरेस्ट ऑपरेशन, ग्रेहाउंड SAMADHAN फ्रेमवर्क
मेन्स के लिये: भारत में नक्सल आंदोलन का इतिहास, नक्सल खतरे को खत्म करने के लिये सरकार द्वारा अपनाए गए प्रमुख उपाय।
हाल के वर्षों में सशस्त्र उग्रवाद की शक्ति और प्रभाव में उल्लेखनीय ह्रास देखा गया है। कभी तथाकथित रेड कॉरिडोर के 200 से अधिक ज़िलों में व्याप्त यह आंदोलन अब मध्य भारत के छोटे-छोटे इलाकों (रेड पॉकेट) में सिमटकर 11 ज़िलों तक सीमित हो गया है। वर्ष 2004-14 की अवधि की तुलना में, वर्ष 2014-24 की अवधि में सुरक्षाकर्मियों की मृत्यु में 73% और नागरिकों की मृत्यु में 74% की कमी आई। वर्ष 2024 में, एक ही वर्ष में सबसे अधिक नक्सलियों (290) को मार गिराया गया। ये प्रवृत्तियाँ स्वयं नक्सली आंदोलन के गहन क्षरण की ओर संकेत करती हैं, जो इसके घटते कैडर-बल, सिकुड़ते भौगोलिक प्रभाव-क्षेत्र और दुर्बल होती वैचारिक लामबंदी से चिह्नित है।
भारत में नक्सल आंदोलन का इतिहास क्या है?
- उत्पत्ति और वैचारिक जड़ें
- आंदोलन का जन्म (1967): नक्सलवाद, जिसे आधिकारिक तौर पर वामपंथी उग्रवाद (LWE) कहा जाता है, की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव में चारू मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल के नेतृत्व में हुए किसान विद्रोह से हुई।
- वैचारिक आधार: यह आंदोलन माओत्से तुंग के लंबे समय तक चलने वाले जन युद्ध के सिद्धांत से प्रेरित था, जिसमें राज्य के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की अनुशंसा की गई थी।
- सामाजिक-आर्थिक संदर्भ
- गहन संरचनात्मक असमानताएँ: प्रारंभिक नक्सलवाद असमान भूमि स्वामित्व, बंधुआ मजदूरी, जातिगत उत्पीड़न, वन भूमि से बेदखली और जनजातीय समुदायों के दीर्घकालिक राजनीतिक रूप से उपेक्षित होने जैसी गंभीर सामाजिक-आर्थिक विकृतियों से उभरा।
- भूमि सुधारों की विफलता: 1950-60 के दशक में भूमि सुधारों के अपर्याप्त कार्यान्वयन ने ग्रामीण संकट को और बढ़ा दिया।
- जनजातीय बहुल क्षेत्रों की उपेक्षा: दूरस्थ जनजातीय समुदाय ज़िलों में राज्य की सीमित उपस्थिति ने एक शून्य उत्पन्न कर दिया, जिससे कट्टरपंथी समूहों को असंतोष को संगठित करने का अवसर मिला।
- एक संभावित समाधान के रूप में सशस्त्र विद्रोह: सबसे गरीब किसानों और भूमिहीन मजदूरों के लिये, सशस्त्र प्रतिरोध को न्याय का एकमात्र मार्ग माना जाने लगा।
- प्रारंभिक विस्तार और वृद्धि (1970-1980 के दशक)
- वर्ष 1971 में चरम पर हिंसा: स्वतंत्र भारत ने नक्सलवाद से जुड़ी 3,620 हिंसक घटनाओं के साथ हिंसा का चरम देखा।
- राज्यों में विस्तार: 1980 के दशक के दौरान, पीपुल्स वॉर ग्रुप ने महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार और केरल में अपने अभियान का विस्तार किया।
- LWE समूहों का समेकन
- विलय और एकीकरण: 1980 के दशक के बाद, विभिन्न वामपंथी चरमपंथी समूहों का विलय शुरू हो गया।
- वर्ष 2004 में CPI (माओवादी) का गठन: प्रमुख गुटों के एकीकरण से CPI (माओवादी) का गठन हुआ, जिससे हिंसा और संगठनात्मक शक्ति में वृद्धि हुई।
माओवादी विद्रोह से निपटने के लिये भारत ने कौन-सी रणनीतियाँ लागू की हैं?
- SAMADHAN फ्रेमवर्क: यह गृह मंत्रालय की एकीकृत, बहुआयामी रणनीति है जिसका उद्देश्य समन्वित सुरक्षा कार्रवाई, प्रौद्योगिकी, नेतृत्व और विकास के माध्यम से वामपंथी उग्रवाद का मुकाबला करना है। इसमें पुलिस सुधारों को लक्षित अभियानों और माओवादी वित्तपोषण के अवरोधन के साथ जोड़ा गया है।
- आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति: नक्सल/माओवादी कैडरों को सम्मानजनक विदाई प्रदान करती है: यदि वे हथियार डाल देते हैं तो उन्हें वित्तीय सहायता, व्यावसायिक प्रशिक्षण, मासिक वजीफा या एकमुश्त अनुदान एवं सामाजिक पुनर्एकीकरण सहायता प्राप्त होती है।
- पुलिस के आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, अकेले वर्ष 2025 में ही 1,040 से अधिक कार्यकर्त्ताओं ने आत्मसमर्पण कर दिया है।
- सुरक्षा उपाय
- ऑपरेशन स्टीपलचेज़: 1970 के दशक की शुरुआत में राष्ट्रपति शासन के दौरान, पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सीमावर्ती ज़िलों (जो सबसे बुरी तरह प्रभावित थे) में नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन स्टीपलचेज़ नामक एक संयुक्त सेना-CRPF-पुलिस अभियान शुरू किया गया था।
- सलवा जुडूम आंदोलन: सलवा जुडूम आंदोलन नक्सल-विरोधी अभियान था जो वर्ष 2004 से 2009 तक चला।
- इसके तहत, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के गाँवों की रक्षा के लिये और उन युवाओं को एक विकल्प प्रदान करने के लिये सुरक्षा बलों द्वारा स्वयंसेवकों के एक बल को प्रशिक्षित किया गया था, जिन्हें CPI-माओवादी कैडरों द्वारा उनमें शामिल होने के लिये विवश किया जा रहा था।
- ऑपरेशन ग्रीन हंट: यह अभियान वर्ष 2009 में छत्तीसगढ़ में उग्रवादियों के खिलाफ शुरू किया गया था, जो माओवादी लड़ाकों और सुरक्षा बलों के बीच हिंसा का केंद्र था। इस अभियान ने नक्सली विद्रोह को करारा झटका दिया तथा आंध्र प्रदेश को लगभग CPI-माओवादी उपस्थिति से मुक्त कर दिया।
- ऑपरेशन ऑक्टोपस (वर्ष 2022): यह CRPF-नेतृत्व वाला लक्षित अभियान था, जिसका केंद्र बुरहा पहाड़,गढ़वा तथा संबंधित कॉरिडोर के प्रमुख गढ़ थे, जहाँ भारी मात्रा में बारूदी सुरंगों से सुरक्षित नक्सली क्षेत्र मौजूद थे। इस अभियान का उद्देश्य इन दुर्गम क्षेत्रों को पूर्णतः साफ करना था।
- ऑपरेशन डबल बुल: नक्सली फंडिंग/लॉजिस्टिक्स को बाधित करने के उद्देश्य से CRPF द्वारा चलाया गया कई दिनों का गहन अभियान। कई जगहों से सामग्री ज़ब्त की गई, गिरफ्तारियाँ की गईं, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय नक्सली गतिविधियों में कमी आई।
- ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट (अप्रैल 2025): छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा (करेगुट्टालू/कुर्रागुट्टालू पहाड़ियों/अबुझमाद सीमांत) पर एक निर्णायक अभियान जिसने महत्त्वपूर्ण भूभाग को साफ किया तथा शीर्ष माओवादी कमांडरों को निशाना बनाया।
- अवसंरचना एवं कनेक्टिविटी: वर्ष 2014 और 2024 के दौरान, वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित राज्यों में 12,000 किलोमीटर सड़कों का निर्माण किया गया है, 17,500 सड़कों के लिये बजट स्वीकृत किये गए हैं और 6,300 करोड़ रुपये की लागत से 5,000 मोबाइल टावर स्थापित किये गए हैं।
- सरकार की अवसंरचना पहलें वामपंथी उग्रवाद (LWE) से प्रभावित क्षेत्रों में कनेक्टिविटी और प्रशासन को बेहतर बनाने के लिये सड़क, रेल एवं दूरसंचार परियोजनाओं पर आधारित हैं।
- मुख्य योजनाओं में LWE क्षेत्रों के लिये सड़क संपर्क परियोजना, प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना का LWE-केंद्रित घटक और LWE विशेष अवसंरचना योजना सम्मिलित हैं। इसके साथ ही झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में विशेष रेल परियोजनाएँ भी चलाई जा रही हैं।
- दूरसंचार विस्तार के लिये BharatNet परियोजना के माध्यम से ग्राम पंचायतों तक ऑप्टिकल फाइबर पहुँचाया जा रहा है तथा LWE मोबाइल टावरों की स्थापना से दूरस्थ जनजातीय बहुल क्षेत्रों में उच्च-गति ब्रॉडबैंड और संचार की सुविधा उपलब्ध हो रही है।
- सरकार की अवसंरचना पहलें वामपंथी उग्रवाद (LWE) से प्रभावित क्षेत्रों में कनेक्टिविटी और प्रशासन को बेहतर बनाने के लिये सड़क, रेल एवं दूरसंचार परियोजनाओं पर आधारित हैं।
- शासन संबंधी उपाय: अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार अधिनियम (PESA) और वन अधिकार अधिनियम 2006: PESA सशक्त ग्राम सभाओं के माध्यम से जनजातीय समुदाय स्वशासन को मज़बूत करता है, जबकि वन अधिकार अधिनियम (FRA) लघु वन उपज पर नियंत्रण सहित भूमि एवं वन अधिकारों की सुरक्षा करता है। ये दोनों मिलकर जनजातीय समुदाय स्वायत्तता को बढ़ाते हैं तथा नक्सली प्रभाव के प्रति संवेदनशीलता को कम करते हैं।
वे कौन-से कारक हैं जो भारत को माओवादी विद्रोह के प्रति संवेदनशील बनाए रखते हैं?
- सामरिक विषमता और संपर्क रहित युद्ध: विद्रोहियों ने प्रत्यक्ष गुरिल्ला संगर्ष से हटकर अदृश्य दुश्मन की रणनीति अपना ली है, जहाँ सुरक्षा-बलों की संख्यात्मक बढ़त को निष्प्रभावी करने के लिये व्यापक रूप से 'इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइसेज़' (IED) तथा संभावित ड्रोन-प्रयोग पर निर्भरता बढ़ रही है।
- यह विषम युद्ध-रणनीति सीमित होते उग्रवादी कैडर को प्रत्यक्ष मुठभेड़ों से बचते हुए अनुपातहीन मानसिक और शारीरिक क्षति पहुँचाने की क्षमता प्रदान करती है।
- जनवरी 2025 में, बीजापुर में एक IED विस्फोट के परिणामस्वरूप 8 सुरक्षाकर्मी मारे गए, जिसने मध्य भारत में वामपंथी उग्रवाद के निरंतर खतरे को उजागर किया।
- जनजातीय समुदाय भूमि अधिकारों (FRA और PESA) में शासन की कमी: यह भेद्यता वन अधिकार अधिनियम (FRA) और PESA के अकुशल कार्यान्वयन से उत्पन्न विश्वास की कमी का परिणाम है, जहाँ भूमि दावों की अस्वीकृति एवं सामुदायिक अधिकारों की मान्यता में विलंब राज्य शोषण के माओवादी आख्यान को बल देती है।
- यह धारणा कि राज्य कॉर्पोरेट खनन को आदिवासी कल्याण से अधिक प्राथमिकता देता है, अब भी उग्रवादियों के लिये प्रभावी भर्ती-औज़ार बनी हुई है।
- उदाहरण के लिये, नवंबर 2022 तक वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के तहत भूमि पर किये गए सभी दावों में से 38% से अधिक को खारिज़ कर दिया गया है।
- हाल ही में हसदेव अरण्य क्षेत्र में हुए विरोध प्रदर्शन विस्थापन और संसाधन दोहन को लेकर जनजातीय समुदायों की निरंतर चिंता को उजागर करते हैं।
- ऐतिहासिक सामाजिक-आर्थिक अभाव: जनजातीय समुदाय क्षेत्रों में दीर्घकालिक गरीबी और सामाजिक बहिष्कार विद्रोहियों को संगठित करने के लिये उपजाऊ ज़मीन तैयार करते हैं।
- उदाहरण के लिये, प्रमुख LWE ज़िलों में 40-50% से अधिक परिवार अभाव के संकेतकों के अंतर्गत आते हैं।
- सुकमा, मलकानगिरी और गढ़चिरोली जैसे पिछड़े ज़िले भारत के सबसे गरीब ज़िलों में शुमार हैं, जिसके चलते राज्य के प्रति असंतोष बना हुआ है।
- लगातार बनी रहने वाली गरीबी और बहिष्कार से हासिल की गई उपलब्धियों में कमी आ सकती है।
- कठिन भू-भाग और राज्य की अपर्याप्त पैठ: घने जंगल, पहाड़ी भू-भाग और छिद्रपूर्ण राज्य सीमाएँ प्राकृतिक सुरक्षित आश्रय स्थल बनाती हैं तथा आवागमन को सुगम बनाती हैं।
- उदाहरण के लिये, छत्तीसगढ़-महाराष्ट्र-ओडिशा में फैला दंडकारण्य क्षेत्र अपने दुर्गम भूभाग के कारण एक प्रमुख गुरिल्ला अड्डा बना हुआ है।
- अंतर-राज्यीय समन्वय चुनौतियाँ: उग्रवादी उग्रवाद के क्षेत्र कई राज्यों में फैले हुए हैं, जिससे खुफिया जानकारी साझा करना और संयुक्त अभियान जटिल हो जाते हैं।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2013 में दरभा घाटी पर हुए हमले में ओडिशा-छत्तीसगढ़ समन्वय में मौजूद कमियों का फायदा उठाया गया था।
- युवा बेरोज़गारी और आजीविका के विकल्पों का अभाव: सीमित गैर-कृषि अवसर और कौशल प्रशिक्षण युवाओं को पुनः भर्ती की ओर धकेल सकते हैं।
- NITI आयोग के अनुसार, प्रमुख अल्प-युवा उत्प्रवासी ज़िलों में राष्ट्रीय औसत से अधिक युवा बेरोज़गारी दर है।
भारत माओवादी प्रभावित क्षेत्रों को विकास के समृद्ध केंद्रों में किस-प्रकार बदल सकता है?
- PESA एकीकरण के माध्यम से अति-स्थानीयकृत स्मार्ट शासन: विश्वास की कमी को दूर करने के लिये, राज्य को प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से आगे बढ़कर जनजातीय निकायों के लिये सक्रिय डिजिटल सॉवरेनिटी की ओर बढ़ना होगा, जिसके लिये ग्राम सभाओं को PESA के तहत निधि उपयोग के लिये रियल टाइम डिजिटल डैशबोर्ड प्रदान करके सशक्त बनाना आवश्यक है।
- बॉटम-अप नियोजन मॉडल को लागू करने से स्थानीय समुदायों को विकास परियोजनाओं को वीटो करने या अनुमोदित करने की अनुमति मिलती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि बुनियादी अवसंरचना कथित कॉर्पोरेट लालच के बजाय जनजातीय समुदाय पारिस्थितिक मूल्यों के अनुरूप हो।
- यह डिजिटल लोकतंत्रीकरण राज्य द्वारा थोपे गए सिद्धांतों की जगह सहभागी विकास के आख्यान को बदल देता है, जिससे माओवादी विचारधारा के राज्य शोषण के दुष्प्रचार को प्रभावी ढंग से निष्क्रिय कर दिया जाता है।
- वन से बाज़ार तक मूल्य शृंखला संप्रभुता: आर्थिक परिवर्तन के लिये कच्चे माल के निष्कर्षण से हटकर स्थानीय मूल्यवर्द्धन की ओर बढ़ना आवश्यक है, जिसके लिये लघु वन उपज (MFP) के प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी से सुसज्जित वन धन विकास केंद्रों (VDVK) का एक सघन नेटवर्क स्थापित करना आवश्यक है।
- महुआ और जंगली शहद जैसे उत्पादों को सीधे वैश्विक बाज़ारों में ब्रांडिंग एवं निर्यात करने वाले जनजातीय समुदाय-स्टार्ट-अप इकोसिस्टम का निर्माण करके, राज्य समुदाय के भीतर धन के संरक्षण को सुनिश्चित कर सकता है।
- यह जैव-अर्थव्यवस्था दृष्टिकोण उस शोषणकारी मध्यवर्ती संरचना को समाप्त करता है जिसका प्रयोग विद्रोही प्रायः कर वसूलने के लिये करते हैं और उसकी जगह धारणीय, समुदाय के स्वामित्व वाली धन सृजन प्रणाली स्थापित करता है।
- पारदर्शी और सहभागी खनन एवं संसाधन प्रबंधन: ज़िला खनिज फाउंडेशन (DMF) के माध्यम से स्थानीय समुदायों को उचित मुआवज़ा, पुनर्वास और खनिज रॉयल्टी में हिस्सेदारी प्रदान करना आवश्यक है।
- इसके अलावा, माओवादियों द्वारा विस्थापन संबंधी शिकायतों का दुरुपयोग रोकने के लिये समुदाय-नेतृत्व वाली निगरानी को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।
- निजी निवेश और सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करना: कृषि-प्रसंस्करण, वस्त्र, खाद्य पार्क और नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में उद्योगों को आकर्षित करने के लिये जोखिम गारंटी, कर प्रोत्साहन एवं बुनियादी अवसंरचनागत सहायता प्रदान किया जाना चाहिये।
- उदाहरण के लिये, दंतेवाड़ा की स्टील स्लरी पाइपलाइन और NMDC-आधारित औद्योगिक गलियारे ने स्थानीय रोज़गार और सेवाओं को बढ़ावा दिया।
- शासन और विकास के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: सेवा वितरण और निगरानी के लिये GIS मैपिंग, ड्रोन और ई-गवर्नेंस प्लेटफॉर्म का उपयोग किया जाना चाहिये।
- सरकारी संस्थानों में विश्वास बढ़ाने और भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये डिजिटल भुगतान एवं DBT का विस्तार किया जाना चाहिये।
- सुलह, विश्वास निर्माण और पुनर्एकीकरण: सुनिश्चित आजीविका, आवास और कौशल प्रशिक्षण के साथ राज्यों में एकसमान नीतियों को बढ़ावा देकर आत्मसमर्पण एवं पुनर्वास नीतियों को मज़बूत किया जाना चाहिये।
- बेहतर कल्याणकारी प्रोत्साहनों के कारण छत्तीसगढ़ और झारखंड में 1,600 से अधिक माओवादियों ने आत्मसमर्पण (2018-2023) किया।
निष्कर्ष:
भूमि तथा वन-अधिकारों के त्वरित निपटान, विश्वसनीय शिकायत-निवारण व्यवस्था तथा कल्याणकारी अधिकारों के कड़ाई से प्रवर्तन के माध्यम से राज्य की वैधता को पुनर्निर्मित किया जा सकता है। पंचायत राज संस्थाओं को सुदृढ़ करना, ग्राम सभाओं को सशक्त बनाना तथा विधिक-सहायता केंद्रों के माध्यम से न्याय तक अभिगम्यता का विस्तार करना लोकतांत्रिक सहभागिता को मज़बूत बनाता है। अंततः, स्थायी शांति का आधार एक ऐसी सहभागितापूर्ण एवं जनजातीय-संवेदी शासन-व्यवस्था होगी जो संरचनात्मक असमानताओं का समाधान करे तथा उग्रवादी प्रभाव के पुनः उभरने को रोक सके।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: “आर्थिक उपेक्षा और संसाधनों से वंचन ने नक्सलवाद के लिये मूल सामाजिक आधार तैयार किया, किंतु स्थायी शांति के लिये विकास-हस्तक्षेपों को भौतिक आधारभूत ढाँचे से आगे बढ़कर व्यापक होने चाहिये।" विवेचना कीजिये। |
प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न 1. उग्रवादी आंदोलन (LWE) के बाद के क्षेत्रों में अधिकार-आधारित विकास दृष्टिकोण क्यों आवश्यक है?
अधिकार-आधारित दृष्टिकोण भूमि अलगाव, वन अधिकारों से वंचित होना और कमज़ोर सार्वजनिक सेवाओं जैसी दीर्घकालिक संरचनात्मक समस्याओं का समाधान करता है। कानूनी अधिकारों और जवाबदेह शासन को सुनिश्चित करके, यह राज्य की वैधता को बढ़ाता है और संघर्ष में पुनः प्रवेश को रोकता है।
प्रश्न 2. सशक्त प्रादेशिक संस्थाएँ पूर्व नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में दीर्घकालिक शांति में किस प्रकार योगदान देती हैं?
सशक्त प्रादेशिक संस्थाएँ लोकतांत्रिक भागीदारी को सुदृढ़ करती हैं, स्थानीय नियोजन में सुधार करती हैं और विकास योजनाओं की निगरानी को बढ़ाती हैं। जनजातीय बहुल क्षेत्रों में, सक्रिय ग्राम सभाएँ सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील निर्णय लेने को सुनिश्चित करती हैं, जिससे उग्रवादियों द्वारा शोषण किये जाने वाले राजनीतिक तटस्थता को कम किया जा सकता है।
प्रश्न 3. सुरक्षा अभियानों के बाद शिकायत निवारण इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?
सुरक्षा अभियान तात्कालिक खतरे को तो दूर कर देते हैं, लेकिन अनसुलझी शिकायतें— जैसे भूमि विवाद, मुआवजे में विलंब या सेवा वितरण में विफलता पुनः अलगाव को बढ़ावा दे सकती हैं। प्रभावी तंत्र विश्वास पुनर्स्थापित करते हैं और प्रशासनिक विश्वसनीयता बढ़ाते हैं।
प्रश्न 4. उग्रवादी आंदोलन के विरुद्ध प्राप्त उपलब्धियों को सुदृढ़ करने में आजीविका की क्या भूमिका है?
स्थायी आजीविका आर्थिक असुरक्षा और विद्रोही नेटवर्क पर निर्भरता को कम करती है। कृषि, लघु एवं वन उत्पाद (MFP) मूल्य शृंखलाओं, कौशल कार्यक्रमों और बाज़ार संबंधों को मज़बूत करने से आय स्थिर होती है तथा समुदाय राज्य प्रणालियों से जुड़ते हैं।
प्रश्न 5. उग्रवादी आंदोलन से प्रभावित ज़िलों में न्याय तक अभिगम्यता को प्राथमिकता क्यों दी जानी चाहिये?
दशकों से, उग्रवादियों ने त्वरित विवाद निपटान की कमी को पूरा किया है। विधिक सहायता केंद्रों, मोबाइल कोर्ट्स और शिकायत शिविरों का विस्तार समय पर न्याय सुनिश्चित करता है, संवैधानिक संस्थाओं में विश्वास पुनर्स्थापित करता है तथा विधि के शासन पर आधारित शासन को सुदृढ़ करता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रिलिम्स
प्रश्न 1. 'रेड कॉरिडोर' के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:
- ऐतिहासिक रूप से, रेड कॉरिडोर नेपाल के तराई क्षेत्र से लेकर उत्तरी कर्नाटक तक फैला हुआ था।
- हालिया आकलन के अनुसार, उच्च तीव्रता के स्तर पर LWE-प्रभावित के रूप में वर्गीकृत ज़िलों की संख्या 20 से भी कम है।
- गढ़चिरोली और मलकानगिरी जैसे ज़िले कभी भी माओवादी प्रभाव क्षेत्र का मुख्य हिस्सा नहीं थे।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (a)
मेन्स
प्रश्न 1. नक्सलवाद एक सामाजिक, आर्थिक और विकासात्मक मुद्दा है जो एक हिंसक आंतरिक सुरक्षा खतरे के रूप में प्रकट होता है। इस संदर्भ में उभरते हुए मुद्दों की चर्चा कीजिये और नक्सलवाद के खतरे से निपटने की बहुस्तरीय रणनीति का सुझाव दीजिये। (2022)
प्रश्न 2. भारत के पूर्वी भाग में वामपंथी उग्रवाद के निर्धारक क्या हैं? प्रभावित क्षेत्रों में ख़तरों के प्रतिकारार्थ भारत सरकार, नागरिक प्रशासन एवं सुरक्षा बलों को किस सामरिकी को अपनाना चाहिये? (2020)
प्रश्न 3. वामपंथी उग्रवाद में अधोमुखी प्रवृत्ति दिखाई दे रही है, परंतु अभी भी देश के अनेक भाग इससे प्रभावित हैं। वामपंथी उग्रवाद द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों का विरोध करने के लिए भारत सरकार के दृष्टिकोण को संक्षेप में स्पष्ट कीजिये। (2018)
प्रश्न 4. पिछड़े क्षेत्रों में बड़े उद्योगों का विकास करने के सरकार के लगातार अभियानों का परिणाम जनजातीय जनता और किसानों, जिनको अनेक विस्थापनों का सामना करना पड़ता है, का विलगन (अलग करना) है। मल्कानगिरि और नक्सलबाड़ी पर ध्यान केंद्रित करते हुए, वामपंथी उग्रवादी विचारधारा से प्रभावित नागरिकों को सामाजिक और आर्थिक संवृद्धि की मुख्यधारा में फिर से लाने की सुधारक रणनीतियों पर चर्चा कीजिये। (2015)