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विकास वित्तीय संस्थान

  • 16 Feb 2021
  • 10 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में सरकार द्वारा विकास वित्तीय संस्थान की स्थापना के प्रस्ताव व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ: 

केंद्रीय बजट 2021 से यह संकेत मिलता है कि भारत की आर्थिक विकास दर को स्थिर रखने के लिये केंद्र सरकार दीर्घकालिक अवसंरचना निर्माण पर विशेष ज़ोर दे रही है। इस योजना के साथ सरकार ने विकास वित्तीय संस्थान (DFI) की स्थापना पर पुनः विचार करने का प्रस्ताव किया है। 

इसके अतिरिक्त डीएफआई का विचार वर्तमान में और भी तर्कसंगत लगता है क्योंकि हाल ही में केंद्र सरकार ने अपनी महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन के लिये लगभग 100 लाख करोड़ रुपए जुटाने की परिकल्पना की है। बैंकों के बढ़ते एनपीए संकट के संदर्भ में भी डीएफआई का विचार सही प्रतीत होता है। 

हालाँकि कई अर्थशास्त्रियों के अनुसार, भारत को डीएफआई के प्रयोग को जारी रखना चाहिये, हालाँकि पूर्व में इन संस्थानों को सार्वभौमिक बैंकों रूपांतरित कर दिया गया था, उदाहरणतः-ICICI और IDBI बैंक। 

विकास वित्तीय संस्थान और पृष्ठभूमि:

  • विकास वित्तीय संस्थान लंबी अवधि तक चलने वाले पूंजी-गहन निवेशों के लिये दीर्घकालिक और कम दरों पर ऋण प्रदान करते हैं, जैसे कि शहरी बुनियादी ढाँचा, खनन, भारी उद्योग तथा सिंचाई प्रणाली आदि।
  • विकास बैंक, वाणिज्यिक बैंकों से भिन्न होते हैं, जो एक परिपक्वता बेमेल (बैंक की तरलता और सॉल्वेंसी का एक संभावित कारण) से बचने के लिये लघु से मध्यम अवधि के लिये राशि जमा करते हैं तथा समान परिपक्वता के लिये ऋण देते हैं।
  • भारत में पहला DFI वर्ष 1948 में भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (IFCI) की स्थापना के साथ शुरू हुआ था।
  • इसके बाद वर्ष 1955 में विश्व बैंक के समर्थन के साथ ‘भारतीय औद्योगिक ऋण और निवेश निगम’ (ICICI) की स्थापना की गई।
  • वर्ष 1964 में  भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं और उद्योगों के लिये दीर्घकालिक वित्तपोषण को बढ़ावा देने के उद्देश्य के साथ अस्तित्व में आया।
  • हालाँकि वर्ष 1970-80 के दशक के दौरान DFI को गैर-निष्पादित आस्तियों को बढ़ाने के नाम पर अपयश का सामना करना पड़ा, जो कथित तौर पर राजनीतिक रूप से प्रेरित ऋण वितरण और आर्थिक, तकनीकी एवं वित्तीय व्यवहार्यता के लिये निवेश परियोजनाओं का आकलन करने में अपर्याप्त व्यावसायिकता के कारण हुआ।  
  • इन कारकों को देखते हुए नरसिंहम समिति (1991) ने डीएफआई को भंग करने की सिफारिश की और तत्कालीन सक्रिय विकास वित्तीय संस्थानों को वाणिज्यिक बैंकों में बदल दिया गया। 

विकास वित्तीय संस्थान की आवश्यकता:  

  • NPA संकट: बैंकिंग क्षेत्र के एनपीए में वृद्धि और वर्तमान परिस्थिति में विकास चक्र को पुनः गति प्रदान करने हेतु अवसंरचना क्षेत्र के वित्तपोषण में वृद्धि की आवश्यकता ने डीएफआई की स्थापना पर नए सिरे से ध्यान देने के विचार को बढ़ावा दिया है।
    • इस तरह की परियोजनाओं में लंबी अवधि के वित्तपोषण से खराब ऋणों के कारण बैंकों की संपत्ति और देनदारियों के बीच पहले से ही व्यापक अंतर और भी अस्थिर हो जाएगा।
  • COVID-19 महामारी के कारण उत्पन्न आर्थिक संकट: यूक्रेनी आर्थिक इतिहासकार अलेक्जेंडर गेर्सचेनक्रोन द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के अनुसार,  किसी भी देश का पिछड़ापन जितना अधिक होगा, वहाँ के आर्थिक विकास (विशेष रूप से कम-से-कम समय में उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की बराबरी करने के लिये दीर्घकालिक वित्तपोषण) में राज्य की भूमिका उतनी ही अधिक होगी।
    • COVID-19 महामारी ने असमानता, गरीबी की खाई, बेरोज़गारी और अर्थव्यवस्था में आ रही गिरावट की गति बढ़ा दी है। 
    • अतः डीएफआई के माध्यम से बुनियादी ढाँचे का निर्माण त्वरित आर्थिक सुधार में सहायता कर सकता है।
  • 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य: सरकार ने वर्ष 2025 तक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को प्राप्त करने की परिकल्पना की है।
    • हालाँकि इस लक्ष्य की प्राप्ति पूरे देश में विश्व स्तर के बुनियादी ढाँचे के विकास पर निर्भर करेगी।
    • नीति आयोग के अनुमान के अनुसार, बुनियादी ढाँचे के लिये वर्ष 2030 तक 4.5  ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी।

आगे की राह:  

  • डीएफआई के लिये पूंजी जुटाना: लंबी अवधि के ऋण जारी करने के लिये DFI को समान रूप से वित्त के दीर्घकालिक स्रोतों की आवश्यकता होगी।
    • पूर्व में डीएफआई सस्ते सरकारी फंड्स पर अधिक निर्भर थे और आज के वाणिज्यिक बैंकों को लंबी अवधि की परियोजनाओं को निधि देने हेतु खुदरा जमा राशि पर निर्भरता के कारण परिसंपत्ति-देयता बेमेल की स्थिति का सामना करना पड़ा।
    • ऐसे में नए डीएफआई के लिये फंडिंग के विविध स्रोतों पर ध्यान केंद्रित करना सबसे बेहतर विकल्प हो सकता है।
    • वर्तमान में डीएफआई को पूंजीगत लाभ/कर-मुक्त बाॅण्ड जारी कर, विदेशी ऋण और बहुपक्षीय एजेंसियों से प्राप्त ऋण आदि जैसे वैकल्पिक मार्गों द्वारा पर्याप्त रूप से पूंजीकृत किया जा सकता है।
  • विशेषीकृत DFIs: 'सुपर मार्केट' ऋणदाता जो किसी भी परियोजना को निधि देने के लिये तैयार रहते हैं, की तुलना में विशिष्ट वर्टिकल पर ध्यान केद्रित करने वाले विशेषीकृत परियोजना करदाता परियोजना मूल्यांकन कौशल के निर्माण और जोखिम प्रबंधन में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। 
    • अतः सरकार को NHB और नाबार्ड (NABARD) जैसे पुनर्वित्तीयन संस्थानों की सफलता पर आधारित कई विशेषीकृत डीएफआई की स्थापना पर विचार करना चाहिये।
  • सुशासन सुनिश्चित करना:  एक डीएफआई के लिये राजनीतिक हस्तक्षेप या ऋण धोखाधड़ी से मुक्त होना आवश्यक है, परंतु वित्तीय संस्थानों के बोर्ड पर निजी शेयरधारकों या पेशेवर प्रबंधकों का होना सुशासन सुनिश्चित करने के लिये पर्याप्त नहीं है।
    •  इसे बाहरी नियंत्रण और संतुलन की एक मज़बूत प्रणाली (जैसे-RBI द्वारा पर्यवेक्षण तथा लेखा परीक्षकों एवं रेटिंग एजेंसियों द्वारा उचित निगरानी आदि) द्वारा समर्थन प्रदान करना होगा।
  • व्यावसायिक सुगमता सुनिश्चित करना: इससे पहले कई महत्त्वाकांक्षी राजमार्ग और पाइपलाइन परियोजनाएँ लगातार स्थानीय विरोध, भूमि अधिग्रहण संकट, पूर्वव्यापी कर तथा खराब अनुबंध प्रवर्तन के कारण लंबे समय तक स्थगित रही हैं।  
    • डीएफआई की सफलता इस तरह के मुद्दों के समाधान और ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस के मार्ग में व्याप्त रुकावटों को दूर करने के प्रयासों पर निर्भर करेगी।

निष्कर्ष: 

सतत् विकास के लिये अवसंरचना क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा दिया जाना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, परंतु वर्तमान में ऋण बाज़ार में लंबे समय से व्याप्त समस्याओं को भी हल करने की आवश्यकता है जो लंबी अवधि के वित्तपोषण प्रवाह को बाधित करती हैं।

अभ्यास प्रश्न: बुनियादी ढाँचे के निर्माण और भारत की आर्थिक विकास दर को गति प्रदान करने के लिये विकास वित्तीय संस्थानों की स्थापना एक अच्छा विचार है। आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। 

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