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जैव विविधता और पर्यावरण

पृथ्वी दिवस 2024

  • 23 Apr 2024
  • 44 min read

यह एडिटोरियल 22/04/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Preparing India for water stress, climate resilience” लेख पर आधारित है। इसमें पृथ्वी दिवस 2024 के बहाने जल संकट, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में प्रगति के कदम और लिंग, जलवायु, पोषण एवं खाद्य मूल्य शृंखलाओं को दायरे में लेने वाले एक नीतिगत ढाँचे की आवश्यकता को संबोधित करने के प्रयासों पर प्रकाश डाला गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD), पृथ्वी दिवस, ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (CEEW), संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट 2020, अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान (IWMI), कायाकल्प और शहरी परिवर्तन पर अटल मिशन (AMRUT) 2.0 , कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व, अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह

मेन्स के लिये:

जैवविविधता और पर्यावरण के संरक्षण में पृथ्वी दिवस, 2024 का महत्त्व।

चूँकि भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) ने वर्ष 2024 में अधिक गर्म ग्रीष्मकाल और सुदीर्घ ग्रीष्म लहर या ‘लू’ का पूर्वानुमान व्यक्त किया है, भारत को जल तनाव (water stress) के लिये तैयार रहना चाहिये। चुनौती यह है कि नागरिक गर्मी, जल या चरम मौसम के तीव्र तनाव को अस्थायी मानने की प्रवृत्ति रखते हैं, जिनसे प्रायः आपदा राहत के रूप में निपटा जाता है। हमें आपदा के आ जाने पर घबराहट भरी प्रतिक्रिया देने से आगे बढ़ते हुए हमारे समक्ष विद्यमान जोखिमों की दीर्घकालिक प्रकृति को समझने और फिर प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता है। इसके अलावा, जलवायु कार्रवाई को कुछ क्षेत्रों या व्यवसायों पर नहीं छोड़ा जा सकता है, न ही पर्यावरणीय संवहनीयता के उपायों को कुछ दिनों के लिये आयोजित पौधारोपण अभियान की खानापूरी तक सीमित किया जा सकता है।

इसमें अंडमान और निकोबार द्वीप समूह जैसे आदिवासी सघन क्षेत्रों का संरक्षण करना भी शामिल है। सहस्राब्दियों से, ऐतिहासिक रूप से अलग-थलग रहे ये मूलनिवासी जीविका के लिये संसाधन भंडार के रूप में इन द्वीपों पर निर्भर रहे हैं और इनकी रक्षा की है। इस वर्ष का पृथ्वी दिवस (22 अप्रैल) हमारे लिये एक ‘वेक-अप कॉल’ बने। जलवायु ही अब अर्थव्यवस्था है और आर्थिक उत्पादन सीमा का विस्तार या संकुचन इस पर निर्भर करेगा कि हम भूमि, खाद्य, ऊर्जा और जल के बीच के अंतर्संबंधों को किस प्रकार समझते हैं।

हालाँकि भारत का लक्ष्य वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य GHG उत्सर्जन हासिल करना है (जो मुख्य रूप से बड़े पैमाने पर नवीकरणीय ऊर्जा की ओर वृहत संक्रमण से प्राप्त किया जाना है), लेकिन विकासात्मक या संवहनीयता परिणामों पर इस तरह के संक्रमण के निहितार्थ स्थानीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट नहीं हैं।

पृथ्वी दिवस (Earth Day) क्या है?

  • पृष्ठभूमि:
    • पृथ्वी दिवस पहली बार वर्ष 1970 में मनाया गया था जब अमेरिकी सीनेटर गेलॉर्ड नेल्सन (Gaylord Nelson) के आह्वान पर लगभग 20 मिलियन लोग पर्यावरणीय क्षरण का विरोध करने के लिये सड़कों पर उतरे थे।
    • यह घटना वर्ष 1969 के सांता बारबरा तेल रिसाव के साथ-साथ धुंध (smog) और प्रदूषित नदियों जैसे अन्य मुद्दों से उत्प्रेरित हुई थी।
    • वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र (UN) ने 22 अप्रैल को ‘अंतर्राष्ट्रीय मातृ पृथ्वी दिवस’ (International Mother Earth Day) के रूप में निर्दिष्ट किया।
  • परिचय:
    • पृथ्वी दिवस को वर्तमान में वैश्विक स्तर पर EARTHDAY.ORG द्वारा समन्वित किया जाता है, जो एक गैर-लाभकारी संगठन है। इसे पहले ‘अर्थ डे नेटवर्क’ (Earth Day Network) के नाम से जाना जाता था।
    • इसका उद्देश्य “लोगों और पृथ्वी के लिये रूपांतरणकारी परिवर्तन लाने के लिये विश्व के सबसे बड़े पर्यावरण आंदोलन का निर्माण करना” है।
    • ऐतिहासिक पेरिस समझौता—जो वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये एक साझा लक्ष्य निर्धारित करने में लगभग 200 देशों को एक साथ लाता है, भी पृथ्वी दिवस के अवसर पर ही (वर्ष 2016 में) पर संपन्न हुआ था।
  • महत्त्व:
    • यह सामूहिक उत्तरदायित्व को चिह्नित करता है—जिसका आह्वान वर्ष 1992 की रियो घोषणा (पृथ्वी शिखर सम्मेलन) में किया गया था, ताकि मानव जाति की वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों की आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय आवश्यकताओं के बीच सम्यक संतुलन प्राप्त करने के लिये प्रकृति और पृथ्वी के साथ सद्भाव को बढ़ावा दिया जा सके।

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नोट

  • अन्य महत्त्वपूर्ण दिवस:
  • अर्थ ऑवर (Earth Hour):
    • अर्थ ऑवर पृथ्वी के लिये विश्व वन्यजीव कोष (World Wildlife Fund for Nature- WWF) की वार्षिक पहल है जो वर्ष 2007 में शुरू की गई थी। यह हर वर्ष मार्च के अंतिम शनिवार को आयोजित किया जाता है।
    • यह 180 से अधिक देशों के लोगों को अपने स्थानीय समय के अनुसार रात 8.30 बजे से 9.30 बजे तक लाइट बंद रखने के लिये प्रोत्साहित करता है।
    • इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण की रक्षा करने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाना है।

भारत में जल संकट के विभिन्न पहलू कौन-से हैं?

  • अर्थव्यवस्था में जल का महत्त्व:
    • वर्षा मृदा की नमी और वनस्पति में संग्रहीत जल (green water) तथा नदियों एवं जलभृतों में उपलब्ध जल (blue water) का प्राथमिक स्रोत है। नीला और हरा जल दोनों हमारे द्वारा उगाए जाने वाले खाद्य को प्रभावित करते हैं। फसलों की सिंचाई, फसल देखभाल एवं पैदावार और अर्थव्यवस्था के लिये ये अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
    • भारत रोज़गार रिपोर्ट 2024 से पता चलता है कि कृषि अभी भी लगभग 45% आबादी को रोज़गार प्रदान करती है और देश की अधिकांश श्रम शक्ति को अवशोषित करती है। इसी अवधि में ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (CEEW) के एक अध्ययन से पता चला है कि भारत में मानसून वर्षा का स्वरूप/पैटर्न बदल रहा है, जहाँ देश के 55% तहसील या उप-ज़िलों में दक्षिण पश्चिम मानसून में पिछले तीन दशकों की तुलना में पिछले दशक में वर्षा की मात्रा में 10% से अधिक की उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। 
      • लेकिन वर्षा की यह वृद्धि प्रायः लघु अवधि में भारी वर्षा के रूप में प्राप्त हुई है, जिससे फसल की बुआई, सिंचाई और कटाई प्रभावित होती है। कृषि क्षेत्र को जलवायु और जल तनाव के प्रति अधिक प्रत्यास्थी बनाना रोज़गार, विकास एवं संवहनीयता के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • जलवायु संकट और जल-मौसम संबंधी आपदाओं पर इसका प्रभाव:
    • संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट 2020 के अनुसार, पिछले दो दशकों में आई प्राकृतिक आपदाओं में से लगभग 75% जल से संबंधित आपदाएँ थीं। CEEW के विश्लेषण के अनुसार, वर्ष 1970 से 2019 के बीच भारत में बाढ़ से जुड़ी घटनाओं (जैसे भूस्खलन, तूफान और बादल का फटना) की संख्या 20 गुना तक बढ़ गई। मीठा जल—जो नौ ग्रहीय सीमाओं (planetary boundaries) में से एक है, का उल्लंघन किया गया है। उल्लेखनीय है कि ग्रहीय सीमा का सिद्धांत उन पर्यावरणीय सीमाओं का एक समूह निर्दिष्ट करता है, जिसके आगे मानव जाति सुरक्षित रूप से क्रियान्वयन नहीं कर सकती।
  • जल संकट के बहुआयामी अर्थ:
    • जल संकट को भौतिक या आर्थिक के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जो तीव्र शहरीकरण, औद्योगीकरण, असंवहनीय कृषि पद्धतियों, जलवायु परिवर्तन, अप्रत्याशित वर्षा पैटर्न, जल की अत्यधिक खपत सहित विभिन्न कारकों से उत्पन्न होता है।
    • इनके अलावा, अकुशल जल प्रबंधन, प्रदूषण, अपर्याप्त अवसंरचना, हितधारकों की भागीदारी की कमी और भारी वर्षा के कारण अपवाह, मृदा का कटाव और तलछट का निर्माण भी जल संकट में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • जल तनाव के मुद्दे:
    • विश्व संसाधन संस्थान (World Resources Institute) के अनुसार, 17 देश जल तनाव के ‘अत्यंत उच्च’ स्तर का सामना कर रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप लोगों के बीच संघर्ष, असंतोष और शांति का खतरा उत्पन्न हो सकता है। भारत भी इन समस्याओं से अछूता नहीं है।
    • भारत में जल की उपलब्धता पहले से ही इतनी कम है कि इसे जल तनावग्रस्त देश के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें वर्ष 2025 तक 1341m3 तथा वर्ष 2050 तक 1140m3 तक और कमी आने का अनुमान है। इसके अलावा, समस्त जल निकासी का 72% कृषि में,  16% नगर निकायों द्वारा घरों एवं सेवाओं के लिये और 12% उद्योगों द्वारा उपयोग किया जाता है।
  • भूजल स्तर में गिरावट:
    • भारत के लगभग प्रत्येक राज्य और मुख्य शहरों में भूजल स्तर में कमी आ रही है। बेंगलुरु इसका एक प्रमुख उदाहरण है। पंजाब, राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा में भूजल खपत एवं उपलब्धता का अनुपात क्रमशः 172%, 137%, 137% और 133% है, जो खतरे की स्थिति को इंगित करता है।
      • इसके विपरीत, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में यह क्रमशः 77%, 74%, 67%, 57% और 53% है। अधिकांश बारहमासी नदियाँ/धाराएँ अब रुक-रुक कर बह रही हैं या सूख गई हैं। अप्रैल-मई के बाद अधिकांश क्षेत्रों में पेय और अन्य उपयोग के लिये जल की उपलब्धता कम हो जाती है।
  • घरेलू और कृषि क्षेत्रों में सुव्यवस्थित दृष्टिकोण का अभाव:
    • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, वाटरशेड प्रबंधन, मिशन अमृत सरोवर और जल शक्ति अभियान जैसे विभिन्न कार्यक्रमों के अंतर्गत ‘प्रति बूँद अधिक फसल’, ‘गाँव का जल गाँव में’, ‘खेत का जल खेत में’, ‘हर मेड़ पर पेड़’ आदि पर सरकार का बल घरेलू और कृषि उपयोगों के संबंध में एक ‘साइलो’ या गैर-समन्वित दृष्टिकोण अपनाता है।
      • इस परिदृश्य में, विभिन्न क्षेत्रों और राज्यों की आवश्यकताओं के अनुरूप ऐसे व्यापक एवं समकालिक स्थानीय हस्तक्षेप को अपनाना अनिवार्य है जो जल के उपयोग एवं संरक्षण के सभी पहलुओं पर समान बल देता हो।
  • जलग्रहण क्षेत्रों पर निरंतर अतिक्रमण:
    • झील, तालाब और नदियों जैसे लघु जल निकाय (Small Water Bodies- SWBs) उनके जलग्रहण क्षेत्रों पर अतिक्रमण के कारण लगातार खतरे का सामना कर रहे हैं। शहरीकरण के विस्तार के साथ लोग इन जल निकायों के जलग्रहण क्षेत्रों में और उसके आसपास घर, वाणिज्यिक भवन तथा अन्य अवसंरचना का निर्माण कर रहे हैं।
      • 1990 के दशक से देखे गए शहरी संकुलन ने लघु जल निकायों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है और उनमें से कई को कूड़ा-क्षेत्र या ‘डंपिंग ग्राउंड’ में बदल दिया है। जल संसाधन पर स्थायी समिति (2012-13) ने अपनी 16वीं रिपोर्ट में रेखांकित किया था कि देश के अधिकांश जल निकायों पर स्वयं राज्य एजेंसियों द्वारा अतिक्रमण किया गया था।

जल संकट को कम करने के लिये आवश्यक कदम 

  • प्रभावी जल प्रशासन:
    • प्रभावी जल प्रशासन के लिये ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो खाद्य एवं ऊर्जा प्रणालियों के साथ इसकी अंतःक्रिया की पहचान करें। हालाँकि, CEEW और अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान (IWMI) के विश्लेषण से पता चलता है कि भले ही भारत ने विभिन्न नीतियाँ अपनाई हैं, लेकिन इनमे से अधिकांश योजना निर्माण के समय या कार्यान्वयन चरण में इस गठजोड़ को चिह्नित करने में विफल रही हैं।
      • उदाहरण के लिये, जबकि ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन बढ़ाना वांछनीय है, जल की उपलब्धता के साथ इसके संबंध पर हमेशा विचार नहीं किया जाता है। इसी तरह, भूजल स्तर पर सौर सिंचाई पंपों को बढ़ाने के प्रभाव का विश्लेषण किया जाना चाहिये ताकि उस प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाए जहाँ सौर संसाधन और उच्च भूजल स्तर का इष्टतम मिश्रण प्राप्त हो। नीतियों में स्थानीय साक्ष्य और सामुदायिक सहभागिता के माध्यम से खाद्य-भूमि-जल संबंध को शामिल किया जाना चाहिये।
  • ब्लू और ग्रीन वाटर का संवहनीय उपयोग:
    • भारत को जल लेखांकन और कुशल पुन: उपयोग के माध्यम से ‘ब्लू वाटर’ एवं ‘ग्रीन वाटर’ के विवेकपूर्ण उपयोग पर ध्यान देने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय जल मिशन का लक्ष्य वर्ष 2025 तक जल उपयोग दक्षता को 20% तक बढ़ाना है। इसी तरह, कायाकल्प और शहरी परिवर्तन के लिये अटल मिशन (अमृत – AMRUT) 2.0 गैर-राजस्व जल को (जो अंतिम उपयोगकर्ता तक पहुँचने से पहले ही खो जाता है) शहरी स्थानीय निकायों में 20% से कम करने का आह्वान करता है।
  • जलवायु अनुकूलन के लिये वित्तीय साधनों का लाभ उठाना:
    • जल क्षेत्र में जलवायु अनुकूलन के लिये धन जुटाने हेतु वित्तीय साधनों का लाभ उठाया जाए। वैश्विक रुझानों का अनुसरण करते हुए, भारत की जलवायु कार्रवाई मुख्य रूप से औद्योगिक, ऊर्जा और परिवहन क्षेत्रों में शमन पर केंद्रित रही है।
    • जल और कृषि क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिये वित्तीय प्रतिबद्धताएँ अभी भी अपेक्षाकृत छोटी हैं। वर्ष 2019-20 में (जिसके लिये कुल अनुमान उपलब्ध हैं) जलवायु परिवर्तन शमन पर प्रति व्यक्ति वार्षिक व्यय लगभग 2,200 रुपये था, जबकि अनुकूलन के लिये यह मात्र 260 रुपए था।
  • पारंपरिक और नई प्रौद्योगिकियों के विवेकपूर्ण मिश्रण को अपनाना:
    • भारत के खाद्यान्न की एक बड़ी मात्रा वर्षा-सिंचित क्षेत्र से प्राप्त होती है। सरकार ‘मृदा के स्वास्थ्य में सुधार और जल संरक्षण के लिये पारंपरिक स्वदेशी एवं नई प्रौद्योगिकियों के विवेकपूर्ण मिश्रण’ पर बल देती है तथा जल की हर बूँद के कुशल उपयोग का आग्रह रखती है। इसलिये इन बिंदुओं पर ध्यान देना आवश्यक है।
    • मात्रा और गुणवत्ता तथा ब्लू और ग्रीन वाटर के संबंध में जल की उपलब्धता बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जल महज बुनियादी मानव अधिकार तक सीमित विषगुणवत्ता और मात्रा दोनों पर बल देना:
    • य नहीं है। जल शांति-निर्माण का भी एक साधन है और जीवन की समग्र गुणवत्ता को बढ़ाता है। संवहनीय कृषि उत्पादन को बढ़ावा देना, जल सुरक्षा सुनिश्चित करना और पर्यावरणीय अखंडता बनाए रखना तेज़ी से महत्त्वपूर्ण मुद्दे बनते जा रहे हैं।
  • विभिन्न संसाधन संरक्षण उपायों को अपनाना:
    • सामान्य रूप से विभिन्न संसाधन संरक्षण उपायों को अपनाकर और वर्षा जल संचयन (स्व-स्थाने और बाह्य-स्थाने) तथा विशेष रूप से छत के ऊपर वर्षा जल संचयन सुनिश्चित कर जल संकट का शमन संभव किया जा सकता है।
    • वर्षा जल संचयन (Rain Water Harvesting- RWH) पुनर्भरण को बढ़ाकर और सिंचाई में सहायता कर जल की कमी तथा सूखे के विरुद्ध प्रत्यास्थता को सक्षम करता है। बड़े पैमाने के RWH संरचनाओं द्वारा सतही जल का इष्टतम उपयोग, भूजल के साथ संयुक्त उपयोग और अपशिष्ट जल का सुरक्षित पुन: उपयोग खाद्यान्न उत्पादन के वर्तमान स्तर को बढ़ावा देने तथा इसे बनाए रखने के लिये एकमात्र व्यवहार्य समाधान हैं।
  • जल निकायों के पुनरुद्धार के लिये एक प्रोटोकॉल की आवश्यकता:
    • जल निकायों के पुनरुद्धार के लिये एक प्रोटोकॉल की आवश्यकता है। समस्याओं से निपटने के लिये प्रत्येक जलाशय की स्थिति, उसकी जल उपलब्धता, जल की गुणवत्ता और उसके द्वारा समर्थित पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं की स्थिति का अध्ययन करने की प्रबल आवश्यकता है। प्रत्येक जल निकाय के जलग्रहण-भंडारण-कमांड क्षेत्र पर ध्यान देकर प्रत्येक गाँव में अधिक जल निकाय का निर्माण करने और उनका पुनरुद्धार करने की भी आवश्यकता है।

पृथ्वी दिवस, 2024 अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (ANI) में जनजातीय आबादी के लिये क्या अर्थ रखता है?

  • चिंताएँ:
    • मूलनिवासी भूमि स्वामित्व और प्रबंधन प्रणालियों की उपेक्षा:
      • मई 2022 में मूलनिवासी भूमि स्वामित्व और प्रबंधन प्रणालियों की पूरी तरह से उपेक्षा करते हुए अंडमान और निकोबार प्रशासन ने तीन सार्वजनिक अधिसूचनाएँ जारी की, जहाँ तीन वन्यजीव अभयारण्यों के निर्माण की मंशा की घोषणा की गई: मेरो द्वीप पर एक मूंगा अभयारण्य, मेनचल द्वीप में एक मेगापोड अभयारण्य और लिटिल निकोबार द्वीप पर एक लेदरबैक टर्टल अभयारण्य।
    • परामर्श एवं समन्वय का अभाव:
      • लगभग 1,200 दक्षिणी निकोबारी आदिवासी पटाई ताकारू (Patai Takaru, Great Nicobar Island) और पटाई त्-भी (Patai t-bhi, Little Nicobar Island) में निवास करते हैं जहाँ वे बसावट वाले तथा कथित तौर पर ‘निर्जन’ द्वीप, दोनों पर पारंपरिक अधिकार रखते हैं। लेकिन अंडमान और निकोबार प्रशासन ने अपनी योजनाओं के बारे में दक्षिणी निकोबारी लोगों से न तो परामर्श किया और न ही उन्हें सूचित किया।
    • जनजातीय अधिकारों का हनन:
      • जुलाई 2022 के मध्य में अंडमान और निकोबार प्रशासन ने एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि उसे तीन प्रस्तावित अभयारण्यों के भीतर भूमि एवं समुद्री क्षेत्रों के संबंध में किसी भी व्यक्ति से कोई दावा या आपत्ति प्राप्त नहीं हुई और प्रस्तावित अभयारण्यों की सीमाओं के भीतर किसी भी व्यक्ति को कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। इसमें यह भी कहा गया कि “राष्ट्रीय हित में... पड़ोसी क्षेत्र के लोगों के इन द्वीपों में प्रवेश पर प्रतिबंध होगा।”
    • गैलाथिया खाड़ी वन्यजीव अभयारण्य की अधिसूचना रद्द करना:
      • इन नए वन्यजीव अभयारण्यों की घोषणा ऐसे समय की गई है जब ग्रेट निकोबार द्वीप (एक यूनेस्को बायोस्फीयर रिज़र्व) पर 72,000 करोड़ रुपए की मेगा परियोजना के लिये गैलाथिया खाड़ी वन्यजीव अभयारण्य की अधिसूचना को रद्द करने के लिये विशेषज्ञों द्वारा सरकार की आलोचना की जा रही है।  
      • एक ऐसे क्षेत्र में अपवर्जनकारी संरक्षण क्षेत्रों की स्थापना करना, जो पहले से ही जैवविविधता के लिये स्वर्ग है, इस तथ्य से प्रेरित है कि मेगा परियोजना की वकालत करने वाले इस परियोजना से होने वाले व्यापक पर्यावरणीय एवं सामाजिक क्षति से अवगत हैं।
      • यह परियोजना 8-10 सदाबहार वृक्षों को तबाह करेगी, गैलाथिया खाड़ी के किनारे पाए जाने वाले सैकड़ों प्रवाल भित्तियों को नष्ट कर देगी, वैश्विक स्तर पर लुप्तप्राय लेदरबैक समुद्री कछुआ प्रजातियों के नेस्टिंग स्थल को क्षति पहुँचाएगी, निकोबार मेगापोड्स के सैकड़ों नेस्टिंग टीलों को नष्ट कर देगी और बड़ी संख्या में मगरमच्छों की मौत का कारण बनेगी।
  • सुझाव:
    • संतुलित विकास: अंडमान-निकोबार का सैन्यीकरण और वहाँ अवसंरचनात्मक एवं विकासात्मक परियोजनाओं से निस्संदेह भारत की रणनीतिक एवं समुद्री क्षमताओं को मदद मिलेगी, लेकिन ऐसा विकास इस जैवविविधता हॉटस्पॉट के निर्मम दोहन की कीमत पर नहीं किया जाना चाहिये।
    • अंडमान-निकोबार का संवहनीय विकास: इसकी आर्थिक, पारिस्थितिक एवं पर्यावरणीय बाधाओं और मूलनिवासी जनजातियों की रक्षा के लिये मौजूद कानूनों को देखते हुए, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह को संवहनीय रूप रूप से विकसित करना होगा ताकि इसकी आर्थिक एवं सैन्य क्षमता को अधिकतम किया जा सके।
      • एक संवहनीय द्वीप विकास ढाँचा न केवल अंडमान-निकोबार के लिये महत्त्वपूर्ण है, बल्कि हिंद महासागर के अन्य द्वीप देशों के लिये भी प्रवर्तनीय एवं रुचि का विषय होगा।
    • ‘सिस्टर आइलैंड्स’: उपर्युक्त चार द्वीप क्षेत्रों में से रीयूनियन द्वीप (फ्राँस) सबसे विकसित द्वीप क्षेत्र है, जिसकी रूपरेखा द्वीप की आर्थिक आवश्यकताओं के साथ-साथ हिंद महासागर में फ्राँस की सैन्य प्राथमिकताओं, दोनों का समर्थन करती है।
      • ‘सिस्टर सिटीज़’ के विचार से प्रेरणा लेते हुए ‘सिस्टर आइलैंड्स’ की रूपरेखा तैयार की जा सकती है।
      • भारत और फ्राँस को अंडमान और रीयूनियन के अपने द्वीप क्षेत्रों का उपयोग कर सिस्टर आइलैंड्स या सहयोगी द्वीपों की अवधारणा विकसित करने के प्रयास का नेतृत्व करना चाहिये, जिसका उद्देश्य हिंद महासागर में द्वीप विकास के लिये एक स्थायी मॉडल की नींव तैयार करना हो।
      • सिस्टर सिटीज़ के समान सिस्टर आइलैंड्स की अवधारणा भारत और फ्राँस को द्वीप विकास के लिये एक संवहनीय ढाँचा विकसित करने की अनुमति देगी।
    • हिंद-प्रशांत में भारत की विकास योजनाएँ: यदि भारत को हिंद महासागर में क्षमता निर्माण पहल और समुद्री परियोजनाओं में निवेश करना है तो विकास के लिये अनुसंधान करने तथा एक आइलैंड मॉडल का निर्माण करने की आवश्यकता है। इस तरह का दृष्टिकोण हिंद-प्रशांत में भारतीय नेतृत्व वाली पहल के लिये एक नए अवसर के द्वार भी खोलेगा।
      • चूँकि भारत और उसके भागीदार देश साझा हितों की प्राप्ति के लिये हिंद-प्रशांत क्षेत्र में पहुँच एवं प्रभाव के लिये प्रतिस्पर्द्धा रखते हैं, इसलिये रणनीतिक रूप से स्थित द्वीप देशों की क्षेत्रीय चिंताओं एवं चुनौतियों से जुड़ने तथा उनका समाधान करने की आवश्यकता है।
    • IOC की भूमिका: हिंद महासागर आयोग (Indian Ocean Commission- IOC) हिंद महासागर में एकमात्र द्वीप संचालित संगठन है। यह पश्चिमी हिंद महासागर में अवस्थिति द्वीपों की चिंताओं और चुनौतियों को आवाज़ देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
      • फ्राँस ने हाल ही में IOC के अध्यक्ष का पदभार संभाला है। भारत वर्ष 2020 में औपचारिक रूप से एक पर्यवेक्षक के रूप में इस समूह में शामिल किया गया था।
      • यह दोनों देशों को द्वीप-केंद्रित विकास मॉडल का नेतृत्व करने का एक अवसर प्रदान करता है।
      • भारत हिंद महासागर के साथ-साथ प्रशांत क्षेत्र में भी फ्राँस के द्वीपीय अनुभवों से प्रेरणा ग्रहण कर सकता है।

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह:

इतिहास:

  • अंडमान और निकोबार द्वीप के साथ भारत का संबंध वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् से है, जब अंग्रेज़ों ने भारतीय क्रांतिकारियों के लिये वहाँ एक दंड कॉलोनी (penal colony) की स्थापना की थी।
  • इन द्वीपों पर वर्ष 1942 में जापानियों ने कब्ज़ा कर लिया था और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पोर्ट ब्लेयर के दौरे के बाद वर्ष 1943 में ब्रिटिश शासन से मुक्त होने वाला यह भारत का पहल भूभाग बना।
  • वर्ष 1945 में जापानियों के आत्मसमर्पण के बाद अंग्रेज़ों ने इन द्वीपों पर पुनः कब्ज़ा कर लिया, जो भारत की स्वतंत्रता की पूर्व संध्या भारत को सौंप दिये गए।
  • वर्ष1962 में एक चीनी पनडुब्बी को लेकर उभरी चिंता के कारण वहाँ एक नौसैनिक दुर्ग की स्थापना की गई। वर्ष 2001 में कारगिल युद्ध के बाद देश की सुरक्षा समीक्षा करते हुए पोर्ट ब्लेयर में अंडमान निकोबार कमांड (ANC) की स्थापना की गई, जो भारत की पहली संयुक्त एवं एकीकृत परिचालन कमान थी।
  • वर्ष 2001 में स्थापित ANC, भारत की पहली संयुक्त या एकीकृत परिचालन कमान है, जो तीनों सैन्य सेवाओं के साथ ही तटरक्षक बल को एक ही कमांडर-इन-चीफ के अधीन रखती है।

प्रमुख तथ्य:

  • 10 डिग्री चैनल एक संकीर्ण जलडमरूमध्य है जो अंडमान द्वीप समूह को निकोबार द्वीप समूह से अलग करता है। यह लगभग 10 डिग्री अक्षांश पर स्थित है।
  • इंदिरा पॉइंट निकोबार द्वीप समूह का सबसे दक्षिणी बिंदु है। यह ग्रेट निकोबार द्वीप पर स्थित है और भारत के सबसे दक्षिणी बिंदु को चिह्नित करता है।
  • अंडमान-निकोबार 5 विशेष रूप से संवेदनशील/भेद्य जनजातीय समूहों का आवास है जिसमें ग्रेट अंडमानीज़, जारवा, ओंगेस, शोम्पेन और उत्तरी सेंटिनलीज़ शामिल हैं।

Island

पृथ्वी दिवस, 2024 सर्वोपरि समाधान के रूप में एक नीतिगत ढाँचे के विकास को क्यों निर्दिष्ट करता है?

  • लिंग, जलवायु और पोषण के इंटरसेक्शन पर नीतिगत ढाँचा:
    • सतत/संवहनीय विकास और सामाजिक समता से संबंधित जटिल मुद्दों के समाधान के लिये लिंग, जलवायु, पोषण और खाद्य मूल्य शृंखलाओं के इंटरसेक्शन पर एक नीतिगत ढाँचा विकसित करना आवश्यक है। यह ढाँचा इन कारकों के अंतर्संबंध को पहचानता है और इसका लक्ष्य उन नीतियों एवं कार्यक्रमों में लिंग परिप्रेक्ष्य को एकीकृत करना है जो जलवायु परिवर्तन को संबोधित करते हैं, पोषण को बढ़ावा देते हैं और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।
  • खाद्य प्रणालियों के समक्ष विद्यमान चुनौतियों का समाधान करना:
    • पोषण पर रोम घोषणापत्र (Rome Declaration on Nutrition) सभी के लिये पर्याप्त, सुरक्षित, विविध और पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य उपलब्ध कराने में मौजूदा खाद्य प्रणालियों के समक्ष विद्यमान चुनौतियों को रेखांकित करता है। दुनिया भर में लगभग 800 मिलियन लोगों के पास खाद्य तक विश्वसनीय पहुँच नहीं है।
      • दोबिलियन लोग आयरन और जिंक की कमी से पीड़ित हैं। वर्तमान में खाद्य प्रणालियाँ विश्व के एक तिहाई ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिये भी ज़िम्मेदार हैं। इस घोषणापत्र में सतत विकास लक्ष्यों के अनुपालन के माध्यम से इन चुनौतियों से निपटने के लिये बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने का आह्वान किया गया है।
  • संवहनीय आहार को बढ़ावा देना:
    • भारत स्वयं कई प्रकार के कुपोषण से पीड़ित है: पाँच वर्ष से कम आयु के 32% बच्चे कम वजन रखते हैं और 74% आबादी स्वस्थ आहार का वहन नहीं कर पाती है। अस्वास्थ्यकर आहार के कारण गैर-संचारी रोगों की व्यापकता में वृद्धि हो रही है।
      • हालाँकि, यह भी तथ्य है कि पिछले कुछ वर्षों में भारत ने आहार की संवहनीयता एवं पोषक तत्वों को समझने में उल्लेखनीय प्रगति की है।
      • भारत के लिये अब यह विचार करना महत्त्वपूर्ण है कि क्या स्वस्थ आहार जलवायु परिवर्तन को कम करने में भी मदद कर सकता है। एक संवहनीय आहार के लिये स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी मांगों की पूर्ति करना, सांस्कृतिक अपेक्षाओं को पूरा करना, आर्थिक आवश्यकताओं को संबोधित करना और न्यायपूर्ण होना आवश्यक है।
  • लैंगिक रूप से न्यायपूर्ण खाद्य मूल्य प्रणालियाँ विकसित करना:
    • खाद्य-प्रणाली की महत्त्वपूर्ण हितधारक होने के बावजूद महिलाएँ जलवायु परिवर्तन और खराब पोषण से विशेष रूप से प्रभावित होती हैं। छत्तीसगढ़ में कुछ समुदायों में लैंगिक रूप से अधिक न्यायपूर्ण खाद्य प्रणालियाँ मौजूद हैं। ये ऐसी प्रणालियाँ हैं जो महिलाओं को उत्पादक एवं प्रजनक दोनों अर्थव्यवस्थाओं में समान अधिकार एवं पात्रता, कम परिश्रम, अवसंरचना एवं प्रौद्योगिकियों तक पहुँच की क्षमता और ज़िम्मेदारियों के समान वितरण के साथ बराबर की  योगदानकर्ताओं के रूप में मान्यता देती हैं। 
      • छत्तीसगढ़ में लैंगिक रूप से अधिक न्यायपूर्ण खाद्य प्रणाली वाले समुदायों को सूखे जैसे आघातों के प्रति अधिक प्रत्यास्थी देखा गया। जब महिलाओं का समूह अपनी आजीविका के बारे में निर्णय लेने में शामिल होता है तो उन्हें वित्तीय संपत्तियों, प्राकृतिक संसाधनों और ज्ञान तक बेहतर पहुँच प्राप्त होती है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि वे फिर अधिक उत्पादक सिद्ध होती हैं और बेहतर स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी परिणाम रखती हैं।
  • स्वदेशी प्रणालियों को अपनाना:
    • भारत भर में स्वदेशी खाद्य प्रणालियों ने हज़ारों पीढ़ियों से समुदायों का पालन किया है। वे मुख्य रूप से न्यूनतम मानवीय हस्तक्षेप के साथ आसपास के प्राकृतिक वातावरण से प्राप्त होते हैं। बहुत से लोग जंगलों में रहते हैं और खाने योग्य शाक, गूदेदार फल, जड़-मूल सब्जियाँ, मशरूम, अनाज, विभिन्न वन उपज और जंगली मांस का सेवन करते हैं।
      • स्थानीय समुदायों के साथ स्थानीय रूप से उपलब्ध खाद्य के आधार पर उनके आहार पर कार्य करने से उनकी पोषण स्थिति में सुधार हुआ है तथा पर्यावरण को न्यूनतम हानि पहुँची है।
  • उत्सर्जन में कमी:
    • अधिक पशु-आधारित खाद्य पदार्थों की तुलना में अधिक पादप-आधारित खाद्य पदार्थों वाला आहार पर्यावरण की दृष्टि से अधिक संवहनीय होता है। पशु-आधारित खाद्य पदार्थों को पादप-आधारित खाद्य पदार्थ और डेयरी विकल्पों से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। ऐसे पादपों को  अपनाने की भी आवश्यकता है जो कम ऊर्जा, भूमि और जल का उपभोग करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कम उत्सर्जन होता है।
    • शोधकर्ताओं ने पाया है कि ऐसे वातावरण में उगाई जाने वाली फसलों में प्रोटीन, लौह और जस्ता की सांद्रता 3-17% कम हो सकती है जहाँ वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की सांद्रता 550 ppm है (उस स्थिति की तुलना में जब CO2 की सांद्रता 440 ppm हो)।
      • इस चेतावनी को देखते हुए, हमें समुदायों को प्राप्त होने लाभों को बेहतर बनाने के लिये एक मूल्य-शृंखला दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जैसे कि उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ घरेलू स्तर से उनके आहार विकल्पों/आवश्यकताओं को अनुकूलित करना।
  • खाद्य उत्पादन प्रणालियों का स्तर विस्तार और विकेंद्रीकरण:
    • विविध खाद्य उत्पादन प्रणालियों का स्तर बढ़ाने (साथ ही विकेंद्रीकरण करने), कम उपयोग वाले स्वदेशी खाद्य पदार्थों को बढ़ावा देने और लिंग, जलवायु, पोषण एवं खाद्य मूल्य शृंखलाओं के इंटरसेक्शन पर एक विश्लेषणात्मक ढाँचा विकसित करने की तत्काल आवश्यकता है।
      • केवल पौष्टिक खाद्य पर ध्यान केंद्रित करने से पर्यावरण पर खाद्य प्रणालियों के प्रभाव को कम करने में मदद नहीं मिलेगी। खाद्य के उत्पादन और वितरण से जुड़े उत्सर्जन की निरंतर एवं व्यापक निगरानी पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये तथा यह सुनिश्चित करना चाहिये कि संबंधित मूल्यांकन साधन स्थानीय समुदायों के लिये भी अधिक सुलभ हों।

निष्कर्ष

यह अपेक्षा करना कि व्यवस्थागत परिवर्तन रातोरात हो जाएगा, अवास्तविक है। लेकिन जल, ऊर्जा एवं जलवायु नीतियों में अधिक सामंजस्य स्थापित करने, जल बचत बढ़ाने के लिये डेटा-संचालित आधार रेखाओं का सृजन करने और अनुकूलन निवेश के लिये नए वित्तीय साधनों एवं बाज़ारों को सक्षम करने के रूप में एक शुरुआत करना संभव है। जल-सुरक्षित अर्थव्यवस्था जलवायु-प्रत्यास्थी अर्थव्यवस्था की दिशा में पहला कदम है।

इसी प्रकार, मूलनिवासी/स्वदेशी लोग हमारी पृथ्वी के मूल संरक्षक हैं। दुनिया को उनकी बुद्धिमत्ता से सीखना चाहिये। तर्क और न्याय यह निर्देशित करते हैं कि दक्षिणी निकोबार में द्वीपवासियों को उनकी भूमि, संसाधनों, जीवनशैली और विश्व के प्रति दृष्टिकोण से वंचित करने के बजाय, उनके पैतृक क्षेत्रों पर उन्हें बनाये रखने के लिये उनके समर्थन एवं सशक्तीकरण की आवश्यकता है।

इस बात के प्रबल साक्ष्य प्राप्त होते हैं कि विविध खाद्य उपभोग का पोषण और प्रति व्यक्ति उत्सर्जन पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। केवल पौष्टिक आहार पर ध्यान केंद्रित करने से पर्यावरण पर प्रभाव का आकलन करने और उसे कम करने में मदद नहीं मिलेगी; आहार को उत्सर्जन से जोड़कर भी इसका समर्थन किया जाना चाहिये। यह बदले में उत्पादन प्रणालियों को अधिक विविध, पोषण-संवेदनशील और उत्सर्जन-संवेदनशील बनने के लिये प्रेरित कर सकता है।

अभ्यास प्रश्न: पर्यावरण जागरूकता और संवहनीय अभ्यासों को बढ़ावा देने में पृथ्वी दिवस के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। लोग पृथ्वी के संरक्षण में किस प्रकार योगदान दे सकते हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. 'पृथ्वी काल' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2014)

  1. यह UNEP और UNESCO का उपक्रमण है।
  2.  यह एक आंदोलन है जिसमें प्रतिभागी प्रतिवर्ष एक निश्चित दिन एक घंटे के लिये बिजली बंद कर देते हैं।
  3.  यह जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी को बचाने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाने वाला आंदोलन है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 3
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


प्रश्न. 'वाटर क्रेडिट' (WaterCredit) के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (वर्ष 2021)

  1. यह जल और स्वच्छता क्षेत्र में कार्य करने के लिये माइक्रोफाइनेंस टूल का इस्तेमाल करता है। 
  2.  यह विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व बैंक के तत्त्वावधान में शुरू की गई एक वैश्विक पहल है। 
  3.  इसका उद्देश्य गरीब लोगों को सब्सिडी पर निर्भर हुए बिना उनकी जल की ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम बनाना है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)

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