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बैंकिंग नियमन अधिनियम - एक आलोचनात्मक मूल्यांकन

  • 26 May 2017
  • 11 min read

संदर्भ 
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी  ने गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों (Non Performing Assets - NPAs) की समस्या से निपटने के लिये भारतीय रिज़र्व बैंक को ज़्यादा अधिकार देने संबंधी बैंकिंग अध्यादेश को मंज़ूरी दे दी है| इसके साथ ही बैंकिंग रेगुलेशन कानून,1949 में बदलाव को भी मंज़ूरी मिल गई है| इस संशोधन के तहत उक्त अधिनियम की धारा- 35 में दो नई धाराएँ जोड़ी जाएंगी जो 35- AA एवं 35-AB के रूप में होंगी| एक अन्य  प्रावधान के तहत आरबीआई को यह अधिकार दिया गया है कि वो डिफॉल्टर के खिलाफ इन्सॉल्वेन्सी एंड बैंकरप्सी कोड (INSOLVENCY AND BANKRUPTCY CODE) के तहत कार्रवाई करे; दूसरे प्रावधान के तहत आर.बी.आई. को अधिकार दिया गया है कि वो तय समय-सीमा में एन.पी.ए. की समस्या से निपटने के लिये बैंकों को ज़रूरी निर्देश जारी करे| साथ ही, इन  संशोधनों से यह अपेक्षा की जा रही है कि इनसे देश की बैंकिंग व्यवस्था में व्याप्त लगभग 6 लाख से अधिक की गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों (NPA) की  गंभीर समस्या से भी निजात पाई जा सकेगी|.

सरकार क्या सोचती है ? 
विगत कुछ समय से देश की बैंकिंग प्रणाली गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों की समस्या से जूझ रही है| इस संदर्भ में सरकार का कहना है कि बैंकों की  नीतिगत खामियाँ व अनुत्पादक ऋणों से निपटने की  नीति ही  मुख्य तौर पर समस्या के लिये ज़िम्मेदार है| 

साथ ही, सरकार का यह भी मानना है कि इन परिस्थितियों के जो संभावित हल हो सकतें हैं, जैसे  “हेअरकट”, सेटेलमेंट ऑफ अकाउंट तथा लिक्विडेशन (LIQUIDATION) आदि, इन दशाओं में एक बैंकर के द्वारा जो फैसले लिये जाने चाहियें, उसमें विशेषकर सरकारी बैंक हिचकते हैं और ढुलमुल रवैया अपनाते हैं| इसलिये, सरकार का मानना है कि रिज़र्व बैंक की भूमिका में बदलाव लाकर  और  इन बैंकों को अपने खातों का निपटान करने के लिये निर्देश देने व निपटान प्रक्रिया में सहायता प्रदान करने के लिये विभिन्न समितियों का गठन करने का अधिकार देने से इस समस्या से निजात पाई जा सकती है|

अध्यादेश से  संबंधित मुख्य बिंदु 

  • इस  अध्यादेश के माध्यम से बैंकिंग रेगुलेशन अधिनियम, 1949 में  कुछ बदलाव किये जाएंगे|  
  • यह अध्यादेश बैंकों के एन.पी.ए. की समस्या के शीघ्र समाधान हेतु भारतीय रिज़र्व बैंक को शक्ति देता है।
  • अध्यादेश, केंद्र सरकार को एन.पी.ए. की समस्या के समाधान की प्रक्रिया शुरू करने हेतु  आरबीआई को निर्देश देने की शक्ति देता है| इससे पूर्व बैंकिंग विनियमन अध्यादेश के पूर्ववर्ती प्रावधान सरकार को आरबीआई को (डिफॉल्ट के मामलों में) एन.पी.ए. की समस्या के समाधान की प्रक्रिया शुरू करने की अनुमति नहीं देते थे|
  • इस प्रकार यह अध्यादेश जहाँ एक ओर बैंको की अधिकारिता में घुसपैठ करेगा, वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक नेतृत्व को एन.पी.ए. समस्या के समाधान की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाने के अवसर भी प्रदान करेगा| 
  • संशोधित कानून के तहत एन.पी.ए. संकल्प केंद्रीय सरकार के विशिष्ट निर्देशों की जगह ले सकता है|
  • यह अध्यादेश दिवालियापन कोड (BANKRUPTCY CODE) को बैंकिंग विनियमन अधिनियम से  संबद्ध कर देगा|
  • अध्यादेश भी आरबीआई को एन.पी.ए. के साथ बैंकों के लिये निरीक्षण समितियाँ स्थापित करने की अनुमति देता है|
  • यह निश्चित रूप से केंद्रीय बैंक को समस्यापरक  ऋणों की दशा में  बैंकों को गहन  पर्यवेक्षण  करने के लिये  सक्षम बनाएगा|

अध्यादेश क्या सुनिश्चित नहीं करता है?

  • यह मूल मुद्दे को संबोधित नहीं करता है कि एन.पी.ए. पैदा क्यों हो रहे हैं?
  • यह बैंकों के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान प्रदान नहीं करता है|
  • यह सुनिश्चित करने के लिये कि भविष्य में एन.पी.ए. नियंत्रण में रहें, एक बड़े सांस्कृतिक बदलाव और आई.टी. उन्नयन की आवश्यकता है|
  • अध्यादेश प्रचारित रूप में इच्छापूर्वक किये जाने वाले डिफ़ॉल्ट को एक आपराधिक कृत्य घोषित करने का  भी प्रस्ताव नहीं करता है|
  • व्यावसायिक निर्णय लेने के  लिये  बैंकों को  स्वायत्तता से वंचित करना उनमे  विश्वास पैदा करने के लिये बहुत कम है|

एन.पी.ए. एक गंभीर समस्या कैसे है ?

  • बैंकिंग क्षेत्र के एन.पी.ए. का कुल आकार 6.7 लाख करोड़ रुपए से अधिक के होने का  अनुमान है, जिसमें से 6 लाख करोड़ रुपए सरकारी बैंकों या सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) के खाते में ही होने की संभावना  है|
  • बैंकों के कुल अग्रिमों (Advances)  में लगभग 16% ऋण गैर निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ  ही हैं| यह रूस को छोड़कर अन्य  ब्रिक्स देशों में  सबसे अधिक है|
  • सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के  लिये गैर निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ 17% हैं, जबकि निजी बैंकों के लिये ये 7% और विदेशी उधारदाताओं के लिये 6% हैं|
  • उछाल के वर्षों में, भारतीय कंपनियाँ क्षमता बढ़ाने के लिये महत्त्वपूर्ण ऋण लेती हैं, लेकिन जब कर्ज़ का संकट गहराता है तो ऋण ली गई पूंजी से संबंधित संपत्ति, जितनी उसके पास होनी चाहिये वह नहीं होती, यानी कम्पनी ऋण ली हुई पूंजी का प्रयोग दूसरी मदों में करती है|

गैर निष्पादनकारी परिसंपत्तियों से निजात पाने के उपाय

  • 5/25 योजना– इसके तहत ऋण परिशोधन की अवधि को 25 वर्षों तक बढ़ा दिया जाता है एवं प्रत्येक 5 वर्षों की अवधि के पश्चात ब्याज दरों को पुनः परिवर्तित करने का प्रावधान किया जाता है|
  • गैर निष्पादनकारी परिसंपत्तियों को संपत्ति पुनर्संरचना कंपनी (Asset reconstruction company) को  बेच देना| 
  • एस.डी.आर. (strategic debt restructuring)– इसके अन्तर्गत बैंक एन.पी.ए. से संबंधित कंपनियों को दिये गए ऋण को इक्विटी में बदलकर उसके प्रबंधन पर नियंत्रण कर सकती हैं, साथ ही बैंक 18 महीनों के अंदर  इक्विटी को बेचकर अपने पैसे वापस ले  सकती है| 
  • जून 2016 में ‘एस 4 ए.’ (SCHEME OF SUSTAINABLE STRUCTURING OF STRESSED ASSETS - S4A)  को लागू किया गया है जिसके अनुसार बैंक अपने द्वारा दिये गए ऋण की कुल मात्र को सतत् (SUSTAINABLE) एवं असतत् (UNSUSTAINABLE) में बाँटकर निपटान करता है| 
  •  पुनर्गठन (Restructuring) – अगर किसी कंपनी की समस्या में सुधार नहीं हो रहा है और बैंक को यह पता है कि कंपनी विलफुल डिफॉल्टर नहीं है, और न ही कंपनी ऋण को किसी और प्रयोजन में खर्च कर रही है, तब ऐसी स्थिति में बैंक कंपनी द्वारा लिये गए ऋण को पुनर्गठित कर सकती है– ब्याज दर घटाकर ऋण चुकाने की अवधि को बढाकर इत्यादि तरीको से| 

सरकार द्वारा किये गए उपाय
एन.पी.ए. की समस्या के समाधान हेतु इन्सोल्वेंसी एंड बैंकराप्सी कोड (insolvency and bankruptcy code) 2016 लाया गया| 

निष्कर्ष
 बैंकों का बढ़ता एन.पी.ए. आकार व ऋणग्रस्त बड़ी कम्पनियाँ, दोनों ही पहलू भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये  चिंताजनक हैं| ऐसे में बैंकिंग अध्यादेश अपनी तमाम आलोचनाओं के बावजूद  एक प्रगतिशील कदम होगा| यद्यपि इससे बैंकिंग अधिकारिता का केंद्रीय बैंक व सरकार के हाथों कम किये जाने की संभावना हैं, लेकिन फिर भी बैंकिग तंत्र को मज़बूत बनाने व उसकी कमियों को दूर करने के  विचार  से यह अध्यादेश एक उल्लेखनीय कदम होगा| हालाँकि, यहाँ यह भी बताना उल्लेखनीय होगा कि यह कदम बैंकिंग स्वयत्ता के सम्पूर्ण खात्मे के रूप में न होकर बल्कि एक उपुक्त प्रबंधनीय सहयोग के रूप में हो तो ज़्यादा प्रभावी होगा|

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