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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत को 2030 तक एड्स मुक्त बनाने का प्रयास

  • 06 Apr 2017
  • 10 min read

संदर्भ
गौरतलब है कि वर्ष 2000 में यू.एन.एस.सी. (United Nations Security Council (UNSC) द्वारा 1308 नामक एक संकल्प को अपनाया गया| इस संकल्प को अपनाने का मुख्य कारण ‘तत्काल एवं असाधारण कार्यवाही’ के माध्यम से एचआईवी/एड्स के कारण उत्पन्न होने वाले खतरों को कम करने का प्रयास आरंभ करना था| इन तात्कालिक एवं असाधारण कार्यवाहियों को एचआईवी/एड्स से होने वाले दुष्परिणामों की रोकथाम हेतु शुरू किया गया था| ध्यातव्य है कि एचआईवी/एड्स यू.एन.एस.सी. प्रस्ताव में वर्णित सबसे पहली बीमारी है, यही मुख्य कारण रहा कि एचआईवी/एड्स के विरुद्ध शुरू की गई इस जंग में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर असाधारण सहयोग प्राप्त हुआ|   

धन कटौती का मुद्दा

  • जैसा की हम सभी जानते हैं कि विकासशील देशों में एचआईवी/एड्स के विरुद्ध जंग में अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं एवं द्विपक्षीय सरकारों द्वारा प्रदत्त समर्थन के बलबूते ही यह मुकाम हासिल हो पाया है, विश्व इस जंग को अंतिम आकार देने की ओर अग्रसर हो पाया है|
  • हालाँकि यह और बात है कि इस जंग के विरुद्ध जिस स्तर की तैयारी राष्ट्रीय स्तर पर होनी चाहिये थी, वैसी तैयारी और मेहनत कर पाने में भारत असफल रहा है| यह कोई फौरी जानकारी नहीं हैं| इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें देश की स्वास्थ्य व्यवस्था, इसके एचआईवी/एड्स के प्रति नरम रवैये एवं अनिश्चित फंडिंग से प्राप्त होता है|
  • वस्तुतः जिसका सीधा असर होता है देश की उस गरीब जनता पर, जिसके पास न तो अपना इलाज कराने के लिये पर्याप्त धन ही उपलब्ध है और न ही संसाधन| 
  • इन सबमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पिछले कुछ वर्षों से वैश्विक स्तर पर एचआईवी/एड्स के संबंध में आवंटित धनराशी के प्रसार में उल्लेखनीय कमी आई है| 
  • आँकड़ों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, वर्ष 2012 से अधिकतर यूरोपियन देशों की एचआईवी/एड्स संबंधी वित्तीय प्रतिबद्धताओं में उल्लेखनीय कमी आई है|
  • इसके अलावा, भारत तथा चीन जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को एचआईवी/एड्स से उत्पन्न होने वाली बिमारियों के विरुद्ध जंग हेतु प्रदत्त होने वाली फंडिंग के संबंध में भी विदेशी रुख में परिवर्तन आया है|
  • एक जानकारी के अनुसार, समस्त विदेशी शक्तियों द्वारा एक मत से यह राय प्रस्तुत की गई है कि भारत एवं चीन को अब सहायता राशी लेने के स्थान पर दूसरे गरीब देशों को अनुदान राशी आवंटित करनी चाहिये|

स्वास्थ्य प्रणालियों में एकता 

  • ध्यातव्य है कि बदलते वैश्विक स्वास्थ्य परिदृश्य में एचआईवी/एड्स से उत्पन्न होने वाली बिमारियों से जूझते अधिकतर देशों ने अपनी राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजनाओं में ही एचआईवी/एड्स संबंधी योजनाओं को समाहित कर दिया है| 
  • वस्तुतः यही कारण है कि वैश्विक समुदाय अब इन देशों को अनुदान राशी देने में टालमटोल कर रहा है| 
  • इसे भारत के संदर्भ में समझते है| जैसा की हम सभी जानते हैं कि वर्ष 2010 से ही भारत में एचआईवी/एड्स से उत्पन्न होने वाली बिमारियों के संबंध में आरंभ की गई पहलों को अन्य प्राथमिक स्तरीय स्वास्थ्य परियोजनाओं के साथ संबद्ध कर दिया गया है| उदाहरण के तौर पर, राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम (एन.ए.सी.पी.) को राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.आर.एच.एम.) के साथ समाहित कर दिया गया| 
  • ऐसा किये जाने का परिणाम यह हुआ कि इन दोनों परियोजनाओं के साथ-साथ इनमें एकीकृत परामर्श और परीक्षण केंद्र (आई.सी.टी.सी.), माता-पिता से बच्चे में ट्रांसमिशन होने (पी.पी.टी.सी.टी.) से रोकथाम, रक्त सुरक्षा, यौन संचरित संक्रमण (एस.टी.आई.) सेवाएँ, साथ ही कंडोम संबंधी प्रोग्राम, एक साथ एंटीरेट्रोवाइरल उपचार (ए.आर.टी.) के साथ-साथ कईं अन्य व्यवस्थाओं को भी एक साथ जोड़ दिया गया|
  • इससे न केवल इसमें लगने वाली धनराशी में कमी आई बल्कि देश की स्वास्थ्य परियोजनाओं ने भी बहुआयामी आकार ले लिया| परिणामतः इसका सबसे अधिक लाभ देश की जनता को ही प्राप्त हुआ|

मिशन 2030

  • गौरतलब है कि वर्ष 2016 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की एक उच्च स्तरीय सभा में, भारत ने एचआईवी/एड्स को सार्वजनिक स्वास्थ्य के खतरे के रूप में प्रस्तुत करते हुए अगले पाँच सालों में इसके संबंध में तेज़ गति से कार्यवाही करने और वर्ष 2030 तक इस महामारी को समाप्त करने का वचन दिया है|
  • उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने अपनी इस प्रतिबद्धता को पूर्ण करने के उद्देश्य से एचआईवी/एड्स संबंधी कार्यक्रमों को अधिक से अधिक वित्त प्रदान कर इस महामारी को नष्ट करने का निर्णय लिया है|
  • यहाँ यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है कि भारत ने अपने एचआईवी/एड्स कार्यक्रम के संबंध में बहुत पहले ही विदेशी सहायता पर अपनी निर्भरता को कम कर दिया है| साथ ही बजट एवं अन्य राष्ट्रीय अनुदान राशियों के माध्यम से इस क्षेत्र में फंडिंग को बढ़ाने का निर्णय लिया है|
  • स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में बढती फंडिंग से यह साफ पता चलता है कि भारत में न केवल नीतिगत स्तर पर अपनी प्रतिबद्धता को पूर्ण करने की क्षमता विद्यमान है बल्कि ज़मीनी स्तर पर भी (आर्थिक स्तर) यह एचआईवी/एड्स से निपटने के लिये पूरी तरह से सक्षम है। लेकिन एचआईवी/एड्स संबंधी कार्यक्रमों में हस्तक्षेप करने एवं अन्य स्वास्थ्य कार्यक्रमों को पहले की भाँति सुचारू रूप से संचालित करने में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है|
  • हालाँकि, यहाँ यह भी गौर करने लायक है कि भारत में स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रम कभी भी देश के नीतिगत निर्णयों की प्राथमिकता नहीं रहे है। यही कारण है कि पिछले दो दशकों में तेजी से आर्थिक विकास होने के बावजूद, भारत में जीडीपी के अनुपात में स्वास्थ्य देखभाल पर सार्वजनिक व्यय दुनिया में सबसे कम है।

जागरूकता बनाम कलंक 

  • गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार, एचआईवी/एड्स से पीड़ित लोगों की तीसरी सबसे बड़ी आबादी भारत में निवास करती है| यहाँ प्रत्येक 10 में से 4 व्यक्ति एचआईवी/एड्स से पीड़ित है| 
  • स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में यदि भारत 2030 तक एचआईवी/एड्स को खत्म करने का लक्ष्य बनता है, तो इसे ने केवल अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों पर अधिक से अधिक धन व्यय करने की आवश्यकता है बल्कि इस दिशा में और अधिक केंद्रित जागरूकता कार्यक्रम एवं प्रभावी प्रबंध करने की भी आवश्यकता है|
  • जैसा की हम सभी जानते हैं कि भारत में कई गैर-सरकारी और सामुदायिक आधारित संगठनों द्वारा स्थानीय/राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर एचआईवी/एड्स के बारे में जागरूकता फैलाने के लिये बहुत सी पहलें आरंभ कर रखी हैं|
  • कई संगठनों द्वारा इस रोग से ग्रसित लोगों के साथ होने वाले असामाजिक व्यवहार एवं उपेक्षाओं और भेदभाव से निपटने के लिये कईं प्रकार के जागरूकता कार्यक्रम भी शुरू किये गए हैं| इन सभी प्रयासों का उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों को इस बीमारी के प्रति जागरूक करना तथा अधिक से अधिक लोगों को उपचार करने के प्रोत्साहित करना है|
  • हालाँकि एक अत्यंत प्रभावी तरीके से इस बीमारी के विरूद्ध जारी की गई जंग को जारी रखना तथा आम जनता को जागरूक करने के साथ-साथ दवाओं की समुचित व्यवस्था करना सरकार के लिये एक चुनौतीपूर्ण कार्य है| तथापि ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ की तर्ज़ पर यदि सरकार इस दिशा में वास्तविक कार्यवाही (यानी ज़मीनी स्तर पर प्रभावी कार्यवाही) करती हैं तो 2030 तक इस लक्ष्य को हासिल कर पाना कोई कठिन कार्य नहीं होगा|
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