शासन व्यवस्था
अधीनस्थ न्यायपालिका में सुधार
- 18 Jun 2025
- 19 min read
प्रिलिम्स के लिये:अधीनस्थ न्यायपालिका, उच्च न्यायालय, राज्य लोक सेवा आयोग, ज़िला न्यायाधीश, ई-कोर्ट, अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS), वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR), सामान्य सेवा केंद्र। मेन्स के लिये:अधीनस्थ न्यायपालिका से संबंधित प्रमुख संवैधानिक प्रावधान और चुनौतियाँ, अधीनस्थ न्यायपालिका को सशक्त करने के लिये आवश्यक कदम। |
स्रोत: एल.एम.
चर्चा में क्यों?
अधीनस्थ न्यायपालिका, जो भारत के 87.5% मामलों को संभालती है, हमारी न्याय व्यवस्था की रीढ़ है, लेकिन इसमें रिक्तियाँ, लंबित मामले तथा पुरानी प्रक्रियाएँ हैं, जो भारत के आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न कर रही हैं।
- इस महत्त्वपूर्ण स्तंभ में सुधार से सामाजिक-आर्थिक विकास में तेज़ी आ सकती है, जैसा कि सिंगापुर और केन्या में देखा गया है, जहाँ न्यायिक दक्षता ने आर्थिक प्रगति को प्रदान की है।
अधीनस्थ न्यायपालिका में न्यायिक बैकलॉग का आर्थिक प्रभाव क्या है?
- व्यापक आर्थिक प्रभाव: भारत की ज़िला न्यायालय में 45 मिलियन लंबित मामलों का भार है, जिससे प्रतिवर्ष सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 0.5% (लगभग 1.5 ट्रिलियन रुपए) की आर्थिक क्षति होती है।
- विश्व बैंक के अनुसार, न्यायिक रिक्तियों को 25% से घटाकर 15% करने से निवेश और व्यावसायिक विश्वास को बढ़ावा मिल सकता है, जबकि IMF का अनुमान है कि कुशल न्यायालय प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर को 0.28 प्रतिशत अंक तक बढ़ा सकते हैं।
- व्यावसायिक विकास एवं निवेश में बाधा: भूमि पट्टे के विवाद व्यवसाय विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं तथा परिचालन जोखिम बढ़ाकर और निवेशकों के विश्वास को कमज़ोर करके MSME को हतोत्साहित करते हैं।
- न्यायिक रिक्तता के कारण लंबित मामलों की संख्या बढ़ती है, निवेशक हतोत्साहित होते हैं और विश्व बैंक की 2020 की कारोबार सुगमता सूचकांक में भारत 163 वें स्थान पर पहुँच गया है।
- राजकोषीय क्षति और अवसर लागत: लंबित मामले भूमि, पूंजी और श्रम को अनुत्पादक मुकदमेबाज़ी (जैसे संपत्ति विवाद) में फँसा देते हैं।
- अकुशल विवाद समाधान कर अनुपालन को कमज़ोर करता है, जबकि धीमी अनुबंध प्रवर्तन प्रक्रिया व्यवसायों को औपचारिक समझौतों से बचने के लिये प्रेरित करती है, जिससे छाया अर्थव्यवस्था (shadow economy) को बढ़ावा मिलता है।
भारत की अधीनस्थ न्यायपालिका में क्या चुनौतियाँ हैं?
- न्यायिक रिक्तियाँ और अत्यधिक बोझ से दबे न्यायाधीश: निम्न न्यायालयों में 5,388 रिक्तियाँ हैं, जहाँ न्यायाधीश प्रतिवर्ष 746 मामलों को संभालते हैं, जो 200-300 मामलों की वैश्विक सर्वोत्तम प्रथा से कहीं अधिक है।
- यह रिक्ति संकट न्यायाधीशों पर बोझ डालता है, न्याय प्रदान करने में देरी का कारण बनता है तथा छोटे व्यवसायों और उद्यमियों के बीच विश्वास को कमज़ोर करता है, जिससे लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि होती है।
- पुरानी प्रणालियाँ और अपर्याप्त डिजिटलीकरण: एकीकृत डिजिटल प्लेटफार्मों की कमी और खंडित डिजिटलीकरण ई-कोर्ट, AI और एनालिटिक्स की क्षमता में बाधा डालता है , जबकि हाइब्रिड सिस्टम (डिजिटल फाइलिंग और मैनुअल ट्रैकिंग) छोटे व्यवसायों और ग्रामीण वादियों के लिये बाधाएँ उत्पन्न करते हैं।
- इसके अतिरिक्त, केवल 6.7% ज़िला न्यायालय ही महिला-अनुकूल हैं, जिससे महिला वादियों और पेशेवरों की भागीदारी सीमित बनी हुई है।
- दोषपूर्ण भर्ती नीतियाँ: ज़िला न्यायाधीश की नियुक्ति के लिये 3 वर्ष की प्रैक्टिस की आवश्यकता विविधता को सीमित करती है, क्योंकि प्रैक्टिस करने वाले वकीलों में केवल 15% महिलाएँ हैं, जिससे प्रतिभा का दायरा सीमित हो जाता है।
- विकेंद्रीकृत भर्ती के कारण राज्यों में न्यायिक सेवा की गुणवत्ता असमान हो जाती है तथा अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) का अभाव मानकीकृत नियुक्तियों में बाधा उत्पन्न करता है तथा योग्य उम्मीदवारों से रिक्तियों को भरने में विलंब होता है।
- अकुशल मामला प्रबंधन: मज़बूत मामला प्रबंधन प्रणालियों की कमी और कम उपयोग किये जाने वाले डिजिटल उपकरणों के साथ मैन्युअल प्रक्रियाओं का प्रभुत्व, लंबे समय तक देरी में योगदान देता है।
- पुलिस, फोरेंसिक और न्यायालयों को जोड़ने वाले एकीकृत मंच के अभाव ने ई-कोर्ट सुधारों के तहत प्रगति को अवरुद्ध कर दिया है।
- बहिष्कार और डिजिटल विभाजन का जोखिम: डिजिटल सुधारों से डिजिटल विभाजन उत्पन्न होने का खतरा है, जिससे ग्रामीण और कम शिक्षित कक्षीकरों को बाहर रखा जा सकता है, क्योंकि बिना किसी समर्थन के तीव्र डिजिटलीकरण के कारण तकनीकी पहुँच या साक्षरता की कमी वाले लोग पीछे छूट जाते हैं।
- भारत की भाषाई और शैक्षिक विविधता को ध्यान में रखते हुए सभी के लिये समावेशिता सुनिश्चित करने हेतु तकनीकी सुधारों के सावधानीपूर्वक कार्यान्वयन की आवश्यकता है।
अधीनस्थ न्यायपालिका क्या है?
- परिचय: अधीनस्थ न्यायालय किसी राज्य की न्यायिक संरचना में निम्न स्तरीय न्यायालय होते हैं, जो उच्च न्यायालय की निगरानी में कार्य करते हैं और ज़िला तथा उससे निचले स्तर पर अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हैं।
- संवैधानिक आधार: संविधान के भाग VI के अनुच्छेद 233 से 237 तक अधीनस्थ न्यायालयों के संगठन और उनकी स्वतंत्रता से संबंधित हैं तथा कार्यपालिका से न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति: ज़िला न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदस्थापन और पदोन्नति राज्यपाल द्वारा उच्च न्यायालय की सलाह से की जाती है।
- अन्य न्यायिक सेवाओं की नियुक्तियाँ (ज़िला न्यायाधीश से नीचे के पदों के लिये) राज्यपाल द्वारा राज्य लोक सेवा आयोग और उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद की जाती हैं।
- ज़िला न्यायाधीश की पात्रता: एक ज़िला न्यायाधीश केंद्र या राज्य सरकार की सेवा में नहीं होना चाहिये, उसे कम से कम 7 वर्षों तक अधिवक्ता के रूप में कार्य किया होना चाहिये और उसकी सिफारिश संबंधित उच्च न्यायालय द्वारा की जानी चाहिये।
- नियंत्रण: अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण (ज़िला न्यायाधीश से नीचे के न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति, पदोन्नति, अवकाश) संबंधित उच्च न्यायालय के पास होता है।
- संरचना और अधिकार क्षेत्र: अधीनस्थ न्यायालयों की संरचना, क्षेत्राधिकार और पदनाम राज्य दर राज्य भिन्न हो सकते हैं, लेकिन एक मूलभूत तीन-स्तरीय प्रणाली विद्यमान रहती है:
- ज़िला एवं सत्र न्यायालय: यह ज़िला स्तर पर सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण है तथा सिविल एवं आपराधिक मामलों में प्रारंभिक और अपीलीय दोनों प्रकार के क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है।
- सत्र न्यायाधीश आजीवन कारावास या मृत्युदंड की सजा सुना सकता है, लेकिन मृत्युदंड को लागू करने के लिये उच्च न्यायालय की पुष्टि आवश्यक होती है।
- अधीनस्थ सिविल एवं आपराधिक न्यायालय: सिविल मामले में, अधीनस्थ न्यायाधीश के पास असीमित आर्थिक अधिकारिता होती है, जबकि मुंसिफ सीमित आर्थिक अधिकारिता वाले मामलों से निपटता है।
- आपराधिक पक्ष में, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट 7 वर्ष तक के कारावास की सजा वाले मामलों को संभालते हैं तथा न्यायिक मजिस्ट्रेट 3 वर्ष तक के कारावास की सजा वाले अपराधों को संभालते हैं।
- विशेष न्यायालय:
- महानगरीय क्षेत्र: कुछ महानगरीय शहरों में, नगर सिविल न्यायालय (मुख्य न्यायाधीशों की अध्यक्षता में) सिविल मामलों की सुनवाई करते हैं, जबकि महानगरीय मजिस्ट्रेट न्यायालय आपराधिक मामलों की सुनवाई करते हैं।
- लघु वाद न्यायालय: कुछ राज्यों ने कम मूल्य के सिविल मामलों को सरसरी तौर पर निपटाने के लिये लघु वाद न्यायालयों की स्थापना की है; उनके निर्णय अंतिम होते हैं, लेकिन उच्च न्यायालय के संशोधन के अधीन होते हैं।
- पंचायत न्यायालय: कुछ राज्यों में पंचायत न्यायालय (जैसे न्याय पंचायत, ग्राम कचहरी) छोटे-मोटे सिविल और आपराधिक मामलों की सुनवाई करते हैं।
- अपील तंत्र: ज़िला न्यायाधीश/सत्र न्यायाधीश मूल और अपीलीय दोनों अधिकारिता का प्रयोग करते हैं, जबकि अधीनस्थ न्यायालयों की अपीलों की सुनवाई उच्च न्यायालय द्वारा की जाती है।
नोट: ज़िला न्यायाधीशों में शहर के सिविल न्यायालय के न्यायाधीश, अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश, संयुक्त ज़िला न्यायाधीश, सहायक ज़िला न्यायाधीश, लघु वाद न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, मुख्य प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट, अतिरिक्त मुख्य प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट, सत्र न्यायाधीश, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश और सहायक सत्र न्यायाधीश शामिल हैं।
- न्यायिक सेवा से तात्पर्य ऐसी सेवा से है जिसमें केवल ऐसे व्यक्ति शामिल हों जो ज़िला न्यायाधीश के पद तथा ज़िला न्यायाधीश के पद से निम्नतर अन्य सिविल न्यायिक पदों को भरने के लिये अभिप्रेत हों।
भारत की अधीनस्थ न्यायपालिका को सुदृढ़ करने के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
- न्यायिक रिक्तियों को भरना: AIJS एक केंद्रीकृत, मेरिट-आधारित भर्ती प्रणाली प्रदान करेगी (जैसे कि IAS), जो उत्कृष्ट प्रतिभा को आकर्षित करेगी, न्यायिक सेवा में विविधता बढ़ाएगी तथा न्यायाधीशों के लिये त्वरित पदोन्नति को सक्षम बनाएगी।
- दक्षता-आधारित नियुक्ति प्रणाली (जैसे कि दक्षिण अफ्रीका और यूनाइटेड किंगडम में) को अपनाकर 3-वर्षीय अधिवक्ता अनुभव नियम को प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिससे न्यायपालिका में लैंगिक विविधता को प्रोत्साहन मिलेगा और ज़िला न्यायाधीशों से उच्च न्यायालयों तक पदोन्नति के लिये स्पष्ट मार्ग सुनिश्चित किया जा सकेगा।
- उदाहरण के लिये, केन्या ने न्यायिक सुधारों के माध्यम से वाणिज्यिक मामलों के निपटारे की अवधि को 465 दिनों से घटाकर 346 दिन कर दिया।
- डिजिटलीकरण एवं कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित मामलों का प्रबंधन: एकीकृत डिजिटल प्लेटफॉर्म, जो पुलिस, फॉरेंसिक और न्यायालयों को जोड़ता हो, तथा बैकलॉग मामलों को प्राथमिकता देने के लिये AI-आधारित विश्लेषण और 100% पेपरलेस न्यायालयों की स्थापना, न्यायिक प्रणाली की कार्यक्षमता को उल्लेखनीय रूप से बढ़ा सकते हैं।
- थाईलैंड की डिजिटल केस प्रबंधन प्रणाली और ब्राज़ील की ई-प्रोसेस प्रणाली जैसे वैश्विक मॉडल ऐसे सुधारों के लाभों को रेखांकित करते हैं।
- वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) का विस्तार: पूर्व-विधिक मध्यस्थता को अनिवार्य बनाना (जैसे सिंगापुर में, जहाँ 80% मामलों का समाधान न्यायालय के बाहर हो जाता है) और लोक अदालतों का विस्तार करना, समुदाय-आधारित विवाद निपटान को सुदृढ़ कर सकता है। इसके साथ ही, विशेष वाणिज्यिक न्यायालयों (जैसे केन्या में) की स्थापना व्यापारिक मामलों के शीघ्र निपटान को सुनिश्चित कर सकती है।
- न्यायालय के ढाँचे और कार्य समय का अनुकूलन: नाइट कोर्ट और डबल शिफ्ट (जैसे घाना में) बुनियादी ढाँचे के बेहतर उपयोग और मामलों के निपटान की दर में सुधार कर सकते हैं, जबकि AI-आधारित शेड्यूलिंग प्रणाली (जैसे मलेशिया में) न्यायालयों के निष्क्रिय समय को कम करने में मदद करती है।
- महिला-अनुकूल न्यायालय सुनिश्चित करना जिसमें सुरक्षा उपाय, स्तनपान कक्ष और बाल देखभाल सुविधाएँ शामिल हों—न्यायपालिका में महिलाओं की समावेशिता और सहयोग को बढ़ावा दे सकता है।
- अंतिम छोर तक पहुँच सुनिश्चित करना: गाँवों में कानूनी कियोस्क, जो कॉमन सर्विस सेंटर्स के समान हों, ग्रामीण क्षेत्रों में सहायक ई-फाइलिंग की सुविधा प्रदान कर सकते हैं। बहुभाषी AI इंटरफेस गैर-अंग्रेज़ी भाषी नागरिकों को न्यायिक प्रणाली को प्रभावी ढंग से समझने और उपयोग करने में सहायता करेंगे।
निष्कर्ष
भारत की अधीनस्थ न्यायपालिका रिक्तियों, देरी और पुरानी प्रणाली से जूझ रही है, जो आर्थिक विकास को बाधित करती है। AIJS, डिजिटलीकरण, मध्यस्थता के विस्तार और न्यायालयीन समय के अनुकूलन जैसे सुधार वैश्विक मॉडल से प्रेरित न्यायालयों को विकास के प्रेरक केंद्रों में बदल सकते हैं। त्वरित न्याय वितरण न केवल सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में वृद्धि करेगा, बल्कि व्यापारिक विश्वास और सामाजिक समता को भी सुदृढ़ करेगा, जिससे “विकसित भारत” की संभावनाओं को साकार किया जा सकेगा।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत की अधीनस्थ न्यायपालिका न्यायिक व्यवस्था की रीढ़ है, फिर भी यह प्रणालीगत चुनौतियों से जूझ रही है। अधीनस्थ न्यायालयों को सुदृढ़ बनाने हेतु आवश्यक प्रमुख सुधारों पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा के विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सप्रश्न: भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/कौन-से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्सप्रश्न: विविधता, समता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये उच्च न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021) प्रश्न: भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |