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सामाजिक न्याय

भारत में LGBTQIA+ अधिकारों की मान्यता

  • 02 Apr 2024
  • 13 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, LGBTQIA+, धारा 377 निर्णय, नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ, ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019, भारत में समलैंगिक विवाह की वैधानिकता

मेन्स के लिये:

भारत में LGBTQIA+ के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ, हाल की प्रगति और LGBTQIA+ से संबंधित चल रहा संघर्ष। 

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों

सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने हाल ही में न्यायाधीशों को LGBTQIA+ व्यक्तियों को उनकी अपनी पहचान और यौन रुझान को लेकर न्यायालय द्वारा आदेशित परामर्श का उपयोग करने के विरुद्ध चेतावनी दी है, विशेषकर जब वे परेशान हों या परिवार के सदस्यों द्वारा भागीदारों से अलग हो गए हों।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति की इच्छाओं को समझना स्वीकार्य है, लेकिन काउंसलिंग के माध्यम से उनकी पहचान एवं यौन रुझान को बदलने की कोशिश करना बेहद अनुचित है।

भारत में LGBTQIA+ के अधिकार और मान्यता की स्थिति क्या है?

  • परिचय: LGBTQIA+ एक संक्षिप्त शब्द है जो समलैंगिक (Lesbian/Gay), उभयलिंगी (Bisexual), ट्रांसजेंडर (Transgender), क्वीर(Queer), इंटरसेक्स (Intersex) और अलैंगिक (Asexual) का प्रतिनिधित्व करता है।
    • ‘+’ कई अन्य पहचानों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें अभी भी खोजा और समझा जा रहा है। यह परिवर्णी शब्द लगातार विकसित हो रहा है और इसमें गैर-बाइनरी तथा पैनसेक्सुअल जैसे अन्य शब्द भी शामिल हो सकते हैं।
  • भारत में LGBTQIA+ की मान्यता का इतिहास:
    • औपनिवेशिक युग और कलंक (वर्ष 1990 से पूर्व):
      • वर्ष 1861: ब्रिटिश शासन के तहत भारतीय दंड संहिता की धारा 377, "प्रकृति के आदेश के विरुद्ध शारीरिक संबंध" को अपराध घोषित की गई। यह कानून भारत में LGBTQIA+ अधिकारों के लिये एक बड़ी बाधा बन गया है।
    • प्रारंभिक पहचान और सक्रियता (वर्ष 1990):
      • वर्ष 1981: पहला अखिल भारतीय हिजड़ा सम्मेलन वर्ष 1981 में हुआ।
      • वर्ष 1991: एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन (AIDS Bhedbhav Virodhi Andolan- ABVA) ने भारत में LGBTQIA+ लोगों की स्थिति पर पहली सार्वजनिक रिपोर्ट "लेस दैन गे (Less Than Gay)" प्रकाशित की, जिसमें कानूनी बदलाव की मांग की गई।
    • ऐतिहासिक मामले और असफलताएँ (2000 के दशक):
      • 2001: नाज़ फाउंडेशन ने धारा 377 को चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका (Public Interest Litigation- PIL) दायर की।
      • 2009: नाज़ फाउंडेशन बनाम NCT दिल्ली सरकार मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के एक ऐतिहासिक फैसले ने सहमति से समलैंगिक कृत्यों को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है, जिसे LGBTQIA+ अधिकारों के लिये एक बड़ी जीत के रूप में देखा जाता है।
      • 2013: सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में धारा 377 को बरकरार रखते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया।
    • हाल की प्रगति और चल रहे संघर्ष (2010-वर्तमान):
    • 2014: सर्वोच्च न्यायालय के एक ऐतिहासिक फैसले में ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग के तौर पर मान्यता दी। (राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ, जिसे आमतौर पर NALSA निर्णय के नाम से जाना जाता है)।
    • 2018 (नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ): एक ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाली धारा 377 को रद्द कर दिया।
    • 2019: ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 पारित किया गया, जो कानूनी मान्यता प्रदान करता है और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ भेदभाव पर रोक लगाता है।
    • 2020: उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने समलैंगिक जोड़ों के लिव-इन संबंधों के लिये कानूनी सुरक्षा को स्वीकार किया।
    • 2021: अंजलि गुरु संजना जान बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2021) के मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने पाया कि ग्राम पंचायत चुनावों के लिये याचिकाकर्त्ता ने खुद को एक महिला के रूप में पहचाना, जबकि वह एक ट्रांसजेंडर थी तथा उसका आवेदन खारिज कर दिया गया था।
      • न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता को अपने लिंग की स्वयं पहचान करने का अधिकार है और उसके आवेदन को स्वीकार कर लिया।
    • 2022: अगस्त 2022 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक जोड़ों और समलैंगिक संबंधों को शामिल करने के लिये परिवार की परिभाषा का विस्तार किया।
    • 2023: अक्तूबर 2023 में, सर्वोच्च न्यायालय की पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने भारत में समलैंगिक विवाह को वैध बनाने की याचिकाओं को खारिज कर दिया।
      • सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि उसके पास समलैंगिक व्यक्तियों को शामिल करने के प्रावधानों को हटाकर या जोड़कर विशेष विवाह अधिनियम (SMA), 1954 को संशोधित करने का अधिकार नहीं है।
      • इसमें कहा गया कि इस मामले में विधि निर्माण की ज़िम्मेदारी संसद तथा राज्य विधानसभाओं की है।

भारत में LGBTQIA+ के सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • सामाजिक कलंक: भारत के कई हिस्सों में LGBTQIA+ व्यक्तियों के प्रति गहरी जड़ें जमा चुके सामाजिक दृष्टिकोण और कलंक व्याप्त हैं।
    • इससे शिक्षा एवं रोज़गार जैसे विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों में पूर्वाग्रह, उत्पीड़न, धमकाने एवं हिंसा जैसी घटनाएँ होती है जो LGBTQIA+ व्यक्तियों के मानसिक एवं भावनात्मक कल्याण को प्रभावित करती है।
  • पारिवारिक अस्वीकृति: कई LGBTQIA+ व्यक्तियों को अपने परिवारों में अस्वीकृति एवं भेदभाव का अनुभव होता है, जिससे तनावपूर्ण रिश्ते, बेघर होना और सहायता प्रणालियों की कमी आदि होती है।
  • स्वास्थ्य देखभाल एवं पहुँच: उन्हें प्राय: स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच में बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिसमें स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं से भेदभाव, LGBTQIA+ अनुकूल स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के साथ-साथ यौन स्वास्थ्य से संबंधित उचित चिकित्सा देखभाल प्राप्त करने में चुनौतियाँ भी शामिल हैं।
  • अपर्याप्त कानूनी मान्यता: जबकि ट्रांसजेंडर अधिकारों को मान्यता देने में प्रगति हुई है, गैर-बाइनरी और लिंग गैर-अनुरूप व्यक्तियों के लिये अभी भी कानूनी मान्यता तथा सुरक्षा की कमी है।
    • विवाह, गोद लेने, विरासत एवं अन्य नागरिक अधिकारों से संबंधित कानूनी चुनौतियाँ उनके लिये बनी रहती हैं।
  • अंतर्विभागीय चुनौतियाँ: LGBTQIA+ व्यक्ति जो हाशिए पर रहने वाले समुदायों, जैसे कि दलित, आदिवासी समुदाय, धार्मिक अल्पसंख्यक या विकलांग हैं, तब उनकी परस्पर पहचान के आधार पर मिश्रित भेदभाव एवं हाशिए पर जाने का सामना भी करना पड़ता है।
  • त्रुटिपूर्ण परामर्श: रूपांतरण चिकित्सा एवं LGBTQIA+ पहचान को विकृत करने जैसी त्रुटिपूर्ण परामर्श प्रथाएँ, इस समुदाय के सामने आने वाली चुनौतियों को बढ़ा देती हैं।
    • ये प्रथाएँ हानिकारक रूढ़िवादिता को सुदृढ़ करती हैं, प्रामाणिकता से इनकार करती हैं तथा आंतरिक कलंक के साथ-साथ उनके संकट को बढ़ाती हैं

आगे की राह 

  • कानूनी सुधारों पर ज़ोर: वर्ष 2023 में LGBTQIA+ लोगों के मध्य विवाह पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पश्चात् समुदाय के लिये प्रासंगिक कानून बनाने की ज़िम्मेदारी विधायिका पर स्थानांतरित कर दी गई थी।
    • जिसके तहत विधानमंडल उनके अधिकारों को मान्यता देने के लिये एक अलग कानून पारित कर सकते हैं अथवा मौजूदा कानूनों में संशोधन कर सकते हैं।
    • उदाहरणार्थ तमिलनाडु ने आत्म-सम्मान अथवा 'सुयमरियाथाई' विवाह को वैध बनाने हेतु वर्ष 1968 में हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन किया जो युगल के मित्रों अथवा परिवार अथवा किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति में विवाह की घोषणा करने की अनुमति देता है।
  • उद्यमिता और आर्थिक सशक्तीकरण: LGBTQIA+ के स्वामित्व वाले व्यवसाय और उद्यम शुरू करने के लिये उन्हें सलाह, वित्त पोषण तथा संसाधनों तक पहुँच प्रदान कर LGBTQIA+ समुदाय के भीतर उद्यमशीलता एवं आर्थिक सशक्तीकरण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
    • प्रमाणन कार्यक्रमों के माध्यम से LGBTQIA+ अनुकूल कार्यस्थलों और व्यवसायों को बढ़ावा देना।
  • स्वास्थ्य देखभाल पहुँच: मानसिक स्वास्थ्य सहायता, लिंग-पुष्टि देखभाल, HIV/AIDS की रोकथाम और उपचार तथा यौन एवं प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य सेवाओं सहित LGBTQIA+ अनुकूल स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच सुनिश्चित करना।
    • LGBTQIA+ रोगियों को सांस्कृतिक रूप से सक्षम और समावेशी देखभाल प्रदान करने के लिये स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को प्रशिक्षण देना।
  • खेलों में समावेशिता: खेलों में LGBTQIA+ व्यक्तियों की भागीदारी सुनिश्चित कर रूढ़िवादिता का उन्मूलन करने और सौहार्द की भावना को बढ़ावा देने में मदद मिलती है।
    • उक्त संबंध में शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक कल्याण और सामुदायिक समावेशिता को बढ़ावा देने के लिये LGBTQIA+ व्यक्तियों के लिये विशेष रूप से डिज़ाइन की गई खेल लीग का आयोजन किया जा सकता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधानों और निर्णय विधियों की मदद से लैंगिक न्याय के संवैधानिक परिप्रेक्ष्य की व्याख्या कीजिये। (2023)

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