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प्रीलिम्स फैक्ट्स : 4 जनवरी, 2018

  • 04 Jan 2018
  • 16 min read

निलाम्बुर टीक भौगोलिक संकेतक में शामिल
GI recognition: Famed Nilambur teak

केरल के निलाम्बुर टीक उर्फ मालाबार टीक (Nilambur teak aka Malabar teak) को भौगोलिक संकेतों (Geographical Indications - GI) रजिस्ट्री में शामिल किया गया है। जीआई टैग उत्पादों की गुणवत्ता और उत्पत्ति को दर्शाता है।

निलाम्बुर सागौन की विशेषताएँ

  • सुनहरे भूरे रंग का सागौन वृक्ष अपने विविध आयामों, वांछित लकड़ियों के आकार और व्यापार की दुनिया में व्यापक प्रतिष्ठा के रूप में बेहद प्रसिद्ध है। 
  • इस वृक्ष की हाइड्रोफोबिसिटी (hydrophobicity), एंटी- ऑक्सिडेंट (anti-oxidant) गुण और तेलीय प्रकृति इसके कैओटचौक कमपाउंड (caoutchouc compound) के कारण होती है।

भौगोलिक संकेत क्या है?  

  • एक भौगोलिक संकेत (Geographical Indication) का इस्तेमाल ऐसे उत्पादों के लिये किया जाता है, जिनका एक विशिष्ट भौगोलिक मूल क्षेत्र होता है। 
  • इन उत्पादों की विशिष्ट विशेषताएँ एवं प्रतिष्ठा भी इसी मूल क्षेत्र के कारण होती है। इस तरह का संबोधन उत्पाद की गुणवत्ता और विशिष्टता का आश्वासन देता है। 
  • उदाहरण के तौर पर- दार्जिलिंग की चाय, महाबलेश्वर की स्ट्राबेरी, जयपुर की ब्लू पोटरी, बनारसी साडी और तिरुपति के लड्डू ऐसे ही कुछ प्रसिद्ध भौगोलिक संकेत हैं। 

भौगोलिक संकेत का महत्त्व 

  • भौगोलिक संकेत किसी भी देश की प्रसिद्धि एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार के कारक होते हैं। 
  • भारत सरकार का बहुप्रचारित 'मेक इन इंडिया' अभियान जी. आई. के अनुरूप ही है। जहाँ एक ओर ‘मेक इन इंडिया’ अभियान भारत की ताकत एवं विकास के संदर्भ में आशावादिता को व्यक्त करता है, वहीं जी. आई. टैग देश की समृद्ध संस्कृति एवं बौद्धिक विकास का प्रतीक है। 
  • विशिष्ट प्रकार के उत्पादों को जी. आई. टैग प्रदान किये जाने से दूरदराज़ के क्षेत्रों की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी लाभ मिला है। 
  • अक्सर देखा गया है कि बहुत से कारीगरों, किसानों, बुनकरों और कारीगरों के पास अद्वितीय कौशल एवं परंपरागत प्रथाओं और विधियों का ज्ञान होता है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पारित होता है। देश की इस बहुमूल्य संस्कृति को संरक्षित तथा प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

जहरीले रंजको और धात्विक आयनों के अवशोषण में सक्षम जेल का विकास 

इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ साइंसेज़ (Indian Association for Cultivation of Sciences- IACS), कोलकाता के वैज्ञानिकों ने एक नया हाइड्रोजेल विकसित किया है जो अपशिष्ट जल से जहरीले जैविक रंजकों और धातु आयनों को हटा सकता है। 

महत्त्वपूर्ण बिंदु

  • इस हाइड्रोजेल ने 15 मिनट के भीतर सामान्यतः उपयोग किये जाने वाले विभिन्न रंजकों, जैसे- मैलाकाइट ग्रीन, कांगो रेड, ब्रिलियंट ब्लू और रोडॉमाइन बी को अवशोषित करना शुरू कर दिया और अपशिष्ट जल लगभग बेरंग हो गया। 
  • हाइड्रोजेल लगभग 6 घंटे में औद्योगिक अपशिष्टों में सामान्यत: पाई जाने वाली कोबाल्ट और निकेल जैसी धातुओं को भी हटाने में सक्षम है। 
  • जेल बनाने के लिये आधारभूत एमिनो अम्लों जैसे- लियूसीन और फेनिलएलैनिन का उपयोग किया गया।
  • यह जेल बायोडिग्रेडेबल है अर्थात् यह पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना स्वत: प्राकृतिक सामग्रियों में विखंडित हो जाता है।
  • यह कमरे के तापमान पर स्थिर और कई महीनों तक जेल के रूप में बना रहा।
  • अपशिष्ट जल के उपचार के लिये प्रयोग की जाने वाली वर्तमान विधियाँ यथा सक्रिय कार्बन का प्रयोग करते हुए अवशोषण, रासायनिक अवक्षेपण (Chemical Precipitation) या विद्युत-रासायनिक तकनीक आदि उच्च ऊर्जा आवश्यकताओं अथवा जल के अपूर्ण उपचार के कारण प्रभावी नहीं हैं। 
  • वहीं तुलनात्मक रूप से पानी की उच्च पारगम्यता, अवशोषण के लिये अधिक सतही क्षेत्रफल और उपयोग करने में सरल होने के कारण यह हाइड्रोजेल-आधारित सामग्री खतरनाक कचरे को प्रभावी ढंग से हटाने में सक्षम है।
  • हाइड्रोजेल संतृप्ति बिंदु तक पहुँचने से पहले कचरे को लगभग 60 घंटे तक अवशोषित कर सकता है। यह जेल 78-92%  रंगों और 80% से अधिक धात्विक आयनों को हटाने में सक्षम है।
  • इसे सोडियम बाइकार्बोनेट और एथिल एसीटेट से धोया जा सकता है और पुन: उपयोग किया जा सकता है।
  • रंजक और धातु आयन पानी में घुलनशील होने के कारण जेल से बाहर निकल जाते हैं, अत: हाइड्रोजेल का चार चक्र तक उपयोग किया जा सकता है। अपशिष्ट जल के निस्तारण से पहले जल के प्रभावी उपचार में इसका उपयोग किया जा सकता है।

हीट स्ट्रेस के अनुकूलन में सहायक जीन की खोज

वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीन की पहचान की है जो कोरल प्रजातियों के साथ सहजीविता संबंध रखने वाले  शैवालों की गर्मी को सहन करने की क्षमता में सुधार कर उनके ग्लोबल वार्मिंग के अनुकूलन में सहायता कर सकता है।

प्रमुख बिंदु

  • सऊदी अरब में राजा अब्दुल्ला विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं ने रेट्रोट्रान्सपोसोन्स नामक विशेष जीनों की पहचान की है, जो सिम्बायोडिनियम शैवाल को हीट स्ट्रेस (Heat Stress-उष्मागत तनाव) के अनुकूल बनाने में तेज़ी ला सकते हैं।
  • सिम्बायोडिनियम एककोशिकीय शैवाल है जो मेजबान प्रवाल को पोषक तत्त्वों और आवास के बदले में प्रकाश-संश्लेषित उत्पाद उपलब्ध करवाता है। 
  • शोध टीम ने जब इस बात का विश्लेषण किया कि हीट स्ट्रेस की स्थिति में सिम्बायोडिनियम में कौन से जीन सक्रिय रहे और कौन से निष्क्रिय रहे, तो उन्होंने पाया कि हीट स्ट्रेस से जुड़े ज़्यादातर जीन निष्क्रिय हो गए थे किंतु कुछ रेट्रोट्रान्सपोसोन्स जीन सक्रिय थे। 
  • रेट्रोट्रान्सपोसोन्स छोटे आनुवंशिक अनुक्रम (Genetic Sequences) है जिनमें मेजबान के जीनोम में नए स्थानों में अपनी प्रतिलिपि बनाने और स्थापित करने की क्षमता है। यह क्षमता इन्हें आनुवंशिक परजीवी बनाती है।
  • सिम्बोडिनीमियम के रेट्रोट्रान्सपोसोन्स में यह लाभकारी उत्परिवर्तन विकासवादी प्रतिक्रिया को तीव्र कर सकता है।
  • उच्च समुद्री तापमान से प्रवाल विरंजन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती है जिसमें प्रवाल और शैवालों का सहजीवी संबंध टूट जाता है और प्रवालों के ऊतकों से सिम्बायोडिनियम का व्यापक निष्कासन हो सकता है।
  • यदि विरंजित कोरल ठीक नहीं हो पाते हैं तो भूख से उनकी मृत्यु हो जाती है और केवल कैल्शियम कार्बोनेट से निर्मित उनका बहिःकंकाल (exoskeleton) शेष रह जाता है।
  • अब शोधकर्त्ता कोरल जीनोम के जाँच की योजना बना रहे हैं ताकि यह पता लगाया जा सके उनमें भी रेट्रोट्रान्सपोसोन्स जीन पाए जाते हैं या नहीं। 
  • यदि ऐसा होता है तो उनकी हीट स्ट्रेस को सहन करने की क्षमता में अप्रत्याशित सुधार हो सकता है।

उनकी सिम्बोडिनीमियम और उनके कोरल मेजबान दोनों में अधिक लचीले जीनोमों को प्रविष्ट कराने के लिये रेट्रोट्रान्सपोसोन्स की आण्विक मशीनरी का उपयोग करने की संभावना पर भी शोध करने की योजना है।

वर्ष 2017 में विलुप्त तथा संरक्षित हुई प्रजातियाँ

वर्ष 2017 में आई.यू.सी.एन. (International Union for Conservation of Nature - IUCN) की रेड लिस्ट में शामिल हुई विलुप्त प्रजातियों के विषय में जानकारी प्रदत्त की गई इस जानकारी के अनुसार, निम्नलिखित प्रजातियों को इसमें स्थान दिया गया है -

  • क्रिसमस आइलैंड पिपिस्टर्ले (Christmas Island Pipistrelle) : विशेष रूप से ऑस्ट्रेलिया के क्रिसमस द्वीप पर पाए जाने वाले इस छोटे चमगादड़ को पिछले वर्ष गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति के रूप से सूचीबद्ध किया गया है।
  • क्रिसमस आइलैंड व्हिपटेल-स्किंक (Christmas Island Whiptail-skink) : यह एक विशेष प्रकार की छिपकली होती है जो ऑस्ट्रेलिया के क्रिसमस आइलैंड में पाई जाती है, इसे विलुप्त की श्रेणी में शामिल किया गया है।
  • क्रिसमस आइलैंड के चैन्ड गेको (Christmas Island chained gekho) : इस प्रजाति को जंगली वर्ग की श्रेणी में विलुप्त प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है,  वर्तमान में यह सिर्फ एक बंदी प्रजनन कार्यक्रम (captive breeding programme) में पाया जाता है।
  • गुंठर बौने-बौना खोपड़ी (Gunthers Dwarf Burrowing skink) : हालाँकि इस छिपकली जैसी प्रजाति (skink) के संबंध में पिछले 125 से अधिक वर्षों से कोई रिकॉर्ड दर्ज़ नहीं किया गया है, लेकिन मूल रूप से दक्षिण अफ्रीका में पाई जाने वाली इस प्रजाति के विलुप्त प्रजाति की श्रेणी में होने की आधिकारिक पुष्टि की गई है।

‘गंभीर रूप से लुप्तप्राय’ (critically endangered) में शामिल प्रजातियाँ

  • वेस्टर्न रिंगटैल पोसम (Western Ringtail Possum) : पिछले 10 वर्षों में इस प्रजाति की संख्या में लगभग 80 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की गई है। ऑस्ट्रेलिया की शुष्क और गर्म जलवायु ने इस संदर्भ में नाटकीय रूप से वृद्धि की है।
  • येलो ब्रेस्टेड बंटिंग (Yellow-breasted Bunting) : रोस्टिंग साइट की हानि और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग होने के कारण इनकी संख्या में उल्लेखनीय रूप से गिरावट आई है।
  • मैदानों में पाए जाने वाले पक्षी (Plains Wanderer) : कीटनाशकों के संपर्क में आने, निवास स्थानों के नुकसान तथा लोमड़ियों द्वारा शिकार किये जाने के कारण इस बटेर जैसे पक्षी (quail-like bird) की संख्या में तेज़ी से कमी आई है।
  • ग्रीन पॉइज़न फ्रॉग (Green Poison Frog), पेरेट टॉड (Perret’s Toad) और रोज़ माउंटेन टॉड (Rose’s Mountain Toad) को भी गंभीर रूप से लुप्तप्राय की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है।

आई.यू.सी.एन.
(International Union for Conservation of Nature - IUCN)

आईयूसीएन पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम करने वाला विश्व का सबसे पुराना और सबसे बड़ा संगठन है। आईयूसीएन की स्थापना 5 अक्तूबर, 1948 को फ्राँस में हुई थी। इसकी पहली बैठक में दुनिया के 18 देशों के सरकारी प्रतिनिधियों, 7 अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम करने वाले 107 राष्ट्रीय संगठनों ने भाग लिया था। 

  • इसका मुख्यालय स्विट्ज़रलैंड के ग्लांड शहर में अवस्थित है। 

लक्ष्य

  • इसका मूल लक्ष्य एक ऐसे विश्व का निर्माण करना है, जहाँ मूल्यों और प्रकृति का संरक्षण हो सके। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये आईयूसीएन  प्रकृति की अखंडता और विविधता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिये वैश्विक समाज को प्रोत्साहित करता है।
  • साथ ही, यह प्राकृतिक संसाधनों के न्यायसंगत उपयोग और पारिस्थितीकीय संरचना को बेहतर बनाने की दिशा में भी सक्रिय है।

रेड लिस्ट

  • रेड लिस्ट इसी प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसकी शुरुआत वर्ष 1963 में की गई थी। इसके अतिरिक्त, जैव विविधता, सतत् ऊर्जा, हरित अर्थव्यवस्था आदि भी इसके महत्त्वपूर्ण कार्यक्षेत्र हैं। 
  • आईयूसीएन हर चौथे वर्ष पृथ्‍वी पर उपस्थित उन सभी प्रजातियों की सूची प्रकाशित करता है जो संकट में हैं। इस सूची को ‘आईयूसीएन रेड लिस्‍ट ऑफ थ्रेटेंड स्पीसीज़’ (IUCN Red List of Threatened Species) कहा जाता है।  
  • गौरतलब है कि रेड लिस्ट दुनिया भर में फैले हज़ारों वैज्ञानिकों की रिपोर्ट के आधार पर तैयार की जाती है, इसलिये दुनिया में जैव विविधता पर इसे सबसे प्रामाणिक और विश्‍वसनीय सूची माना जाता है।  
  • आईयूसीएन  द्वारा जारी की जाने वाली इसी रेड लिस्ट के अंतर्गत भारत में उड़ने वाली गिलहरी, एशियाई सिंह, काले हिरण, गेंडे, गंगा डॉल्फिन, बर्फीले तेंदुए सहित अनेक जीवों को संकटग्रस्‍त करार दिया गया है।
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