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आत्महत्या करने वाले अधिकांश ‘छोटे किसान’- एनसीआरबी रिपोर्ट

  • 10 Jan 2017
  • 7 min read

सन्दर्भ

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (National Crime Records Bureau-NCRB) ने किसानों की आत्महत्या से संबंधित वर्ष 2015 के आँकड़े प्रस्तुत किये हैं| नए साल के आरम्भ में जारी की गई इस रिपोर्ट ने किसानों की आत्महत्या की भयावह तस्वीर प्रस्तुत की है| रिपोर्ट में बताया गया है कि  आत्महत्या करने वाले किसानों में अधिकांश वैसे किसान हैं जिनके पास 1-2 हेक्टेयर ज़मीन है| देश के किसानों की व्यथा के कारणों और उनके समाधान की बात करने से पहले हम एनसीआरबी की रिपोर्ट पर एक नज़र दौड़ते हैं|

महत्त्वपूर्ण बिंदु

  • रिपोर्ट के अनुसार, आत्महत्या करने में वाले किसानों में 72 प्रतिशत ऐसे किसान (छोटे और सीमांत किसान) हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन है, वहीं आत्महत्या करने वाले 2 प्रतिशत किसानों के पास 10 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन है|
  • रिपोर्ट में प्रस्तुत आँकड़ों के मुताबिक, आत्महत्या करने वाले किसानों में 25.5 प्रतिशत मझौले किसान हैं जिनके पास 2-10 हेक्टेयर ज़मीन है, वहीं 45.2% छोटे किसान हैं जिनके पास 1-2 हेक्टेयर ज़मीन है, जबकि 27.4% सीमांत किसान हैं जिनके पास 1 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है|
  • कृषि एवं कृषक कल्याण मंत्रालय की वर्ष 2010-11 की गणना के अनुसार, कुल जोत भूमि का 67.1 प्रतिशत सीमांत जोत है (1 हेक्टेयर से कम), जबकि 17.9 प्रतिशत छोटे जोत हैं (1-2 हेक्टेयर), मझौले जोत 14.3 प्रतिशत हैं (2-10 हेक्टेयर) और बड़े जोत सिर्फ 0.7 प्रतिशत|
  • हालाँकि, उपरोक्त आँकड़े भूमि के आधिकारिक आवंटन से संबंधित हैं, लेकिन यदि कृषि योग्य भूमि के लिहाज़ से विचार करें तो सीमांत किसानों के पास कृषि-योग्य भूमि 22.5 प्रतिशत, छोटे किसानों के पास 21.1 प्रतिशत और मझौले किसानों के पास सर्वाधिक 44.8 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि है, वहीं बड़े किसानों के पास 10.6 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि है|

उपरोक्त आँकड़ों पर आधारित निष्कर्ष

  • हालाँकि, जब तक आँकड़ों का समुचित अध्ययन नहीं कर लिया जाता, तब तक कुछ भी कहना जल्दीबाज़ी होगी; लेकिन समान्यतः यह देखा गया है कि जिन किसानों के पास कृषि के अलावा अन्य विकल्प होते हैं (ज़रूरी नहीं की यह विकल्प सम्पन्नता की वजह से हो, बल्कि विकल्प का मुख्य कारण विपन्नता है) उनमें आत्महत्या की प्रवृत्ति कम पाई जाती है| शायद यही कारण है कि सीमांत किसानों में आत्महत्या की दर कम है, जबकि छोटे किसानों में तुलनात्मक रूप से अधिक|
  • बड़े किसानो की संख्या के अनुपात में उनकी आत्महत्या की दर दुगुनी है, और यह इस बात का द्योतक है कि वैसे किसान जो कृषिगत व्यवसायों में भी शामिल हैं उनके लिये परिस्थितियाँ तब ज़्यादा कठिन हो जाती हैं जब उनका व्यवसाय ठप्प हो जाता है|

निष्कर्ष

  • वस्तुतः हमारे देश के बहुसंख्यक किसान कर्ज़ में जन्म लेते हैं और कर्ज़ में ही मर जाते हैं, एनसीआरबी के नवीनतम आँकड़ों से यहीं पता चलता है कि समय के साथ इस भयावह संकट में और भी बढ़ोतरी ही हुई है| कर्ज़ का बढ़ता पहाड़ और कृषि संबंधी अन्य समस्याएँ किसानों की आत्महत्या की प्रमुख वजह हो सकती हैं|  
  • गौरतलब है कि किसानों की आत्महत्या की एक प्रमुख वजहें गरीबी और बीमारी भी हैं, ये दोनों वजहें सीधे तौर पर किसानों की घटती हुई आय के साथ जुड़ी हुई हैं| कुछ अध्ययन बताते हैं कि इलाज के बढ़ते खर्च के कारण भी बड़ी संख्या में किसान गरीबी के चंगुल में फँस जाते हैं| अतः किसानों की स्थिति में सुधार के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को किसानों के हित से जोड़ना होगा|
  • कृषि क्षेत्र में निरंतर मौत का तांडव दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों का नतीजा है| दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों के चलते कृषि धीरे-धीरे घाटे का सौदा बन गई है, जिसके कारण किसान कर्ज़ के दुश्चक्र में फँस गए हैं| यहाँ तक कि देश के खाद्यान्न का कटोरा कहे जाने वाले पंजाब में कृषि आय स्थिर बनी हुई है| पिछले एक दशक में कृषि ऋणग्रस्तता में 22 गुना बढ़ोतरी हुई है| अतः सरकार को किसानों के लिये प्रभावी नीतियों का निर्माण करना होगा| सबसे बढ़कर, इन नीतियों का कार्यान्वयन सुनिश्चित करना होगा|
  • जलवायु परिवर्तन के कारण बदलते मौसम ने भी किसानों को बुरी तरह से प्रभावित किया है, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे ने हज़ारों एकड़ फसलों को बर्बाद कर दिया है| अतः कृषि अनुसंधान के माध्यम से फसलों की ऐसी किस्में विकसित करनी होंगी जो मौसम के प्रतिकूल प्रभावों को सह सकें, साथ ही, ऐसे उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा देना होगा जो मिट्टी की उर्वरता को कम न करें|
  • उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद भारत में कृषिगत सुधार और अधिक आवश्यक हो गए हैं क्योंकि प्रायः ऐसा देखा जाता है कि भूमि अधिग्रहण जैसे प्रावधानों में किसानों को न तो समुचित मुआवज़ा मिलता है और न ही समुचित रोज़गार| हालाँकि, विकास के लिये आधारभूत सरंचना का निर्माण भी आवश्यक है, अतः विकासगत नीतियों एवं कृषिगत सुधारों में इष्टतम सामंजस्य स्थापित करना होगा|
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