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जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु परिवर्तन और वनाग्नि के मध्य संबंध

  • 28 Sep 2020
  • 12 min read

प्रिलिम्स के लिये  

वनाग्नि के मौसम को प्रभावित करने वाले कारक

मेन्स के लिये 

भारत में वनाग्नि का जोखिम, चुनौतियाँ 

चर्चा में क्यों?

जलवायु परिवर्तन और वनाग्नि जोखिम के मध्य संबंध स्थापित करने की कोशिश करने वाली जनवरी, 2020 से प्रकाशित वैज्ञानिक लेखों की एक अद्यतन समीक्षा के अनुसार, मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन वनाग्नि को बढ़ावा देने वाली परिस्थितियों में वृद्धि करता है। यह अद्यतन समीक्षा वर्ष 2019-2020 में पश्चिमी अमेरिका और दक्षिण-पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में वनाग्नि की घटनाओं पर केंद्रित है।

प्रमुख बिंदु 

  • समीक्षा लेखकों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन संपूर्ण विश्व में वनाग्नि के मौसम की आवृत्ति और गंभीरता में वृद्धि करता है। वनाग्नि की आवृत्ति एवं तीव्रता में वृद्धि की व्याख्या केवल खराब भूमि प्रबंधन से नहीं की जा सकती है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण शुष्क मौसम में वृद्धि से वनाग्नि के जोखिम में भी वृद्धि होती है।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कैलिफोर्निया में वनाग्नि की घटनाओं के पीछे जलवायु परिवर्तन के ज़िम्मेदार होने की संभावनाओं को खारिज़ किया। अमेरिकी राष्ट्रपति ने इसके लिये खराब वन प्रबंधन को दोषी ठहराया है। 
  • इससे पहले भी वर्ष 2018 में कैलिफोर्निया में विनाशकारी वनाग्नि के मौसम के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति ने दावा किया था कि “कैलिफोर्निया में इतने बड़े पैमाने पर खतरनाक वनाग्नि का प्रमुख कारण खराब वन प्रबंधन के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। वनों के कुप्रबंधन के कारण प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में जान-माल की हानि होती है, जिसके लिये अरबों डॉलर की सहायता प्रदान की जाती है।”

वनाग्नि के मौसम को प्रभावित करने वाले कारक

  • वर्ष 2013 में प्रकाशित ‘जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल’ (Intergovernmental Panel on Climate Change-IPCC) की पाँचवीं आकलन रिपोर्ट (Fifth Assessment Report) में वनाग्नि की घटनाओं को प्रभावित करने वाले कुछ कारकों की पहचान की गई है।
  • इन कारकों में औसत तापमान में वैश्विक वृद्धि, हीट वेव्स की तीव्रता एवं आवृत्ति में वैश्विक वृद्धि और प्रादेशिक रूप से सूखे की आवृत्ति, अवधि और तीव्रता में वृद्धि आदि सम्मिलित है।
  • गर्मी के महीनों में कैलिफोर्निया और ऑस्ट्रेलिया के गर्म और शुष्क मौसम की स्थिति वाले क्षेत्रों के कुछ हिस्सों में वनाग्नि की घटनाएँ सामान्य है, लेकिन हाल के वर्षों में वनाग्नि की  घटनाओं तथा तीव्रता में बड़े पैमाने पर वृद्धि के कारण मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन और वनाग्नि के जोखिम के बीच संबंध के बारे में अध्ययन के लिये वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित हुआ है।
  • वैज्ञानिकों के अनुसार, वनाग्नि की घटनाओं के पीछे जलवायु परिवर्तन के अलावा अन्य कारण, जैसे- प्राकृतिक परिवर्तनशीलता आदि भी हो सकते है। हालाँकि नए विश्लेषण के परिणामों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप बढ़ती गर्म और शुष्क परिस्थितियों का प्राकृतिक परिवर्तनशीलता पर प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण वनाग्नि के मौसम में अधिक वृद्धि हुई है।

पिछले वर्ष ऑस्ट्रेलिया में वनाग्नि की घटना 

  • पिछले वर्ष ऑस्ट्रेलिया में वनाग्नि की घटना संपूर्ण विश्व में सुर्खियों में थी। हालाँकि ऑस्ट्रेलिया में ग्रीष्म ऋतु में वनाग्नि की घटनाएँ होती रहती है, लेकिन पिछले वर्ष वनाग्नि की घटना का पैमाना बहुत व्यापक था और तीव्रता भी अभूतपूर्व थी। 
  • वनाग्नि के कारण हज़ारों जानवरों की मृत्यु के साथ-साथ 10 मिलियन हेक्टेयर से भी अधिक वन भूमि बुरी तरह से प्रभावित हुई। वैज्ञानिकों के अनुसार, ऑस्ट्रेलिया में वनाग्नि की घटना को जलवायु परिवर्तन से जोड़ा जा सकता है।

वनाग्नि के प्रकार 

  • सतह वनाग्नि: सतह वनाग्नि भूमि पर अवशिष्ट पदार्थों, जैसे- सूखी पत्तियों, टहनियों और सूखी घास के सहारे वन की सतह पर फैलती है। 
  • शीर्ष वनाग्नि: इसमें वृक्षों और झाड़ियों के शीर्ष भाग जल जाते हैं। किसी शंकुधारी वन में शीर्ष वनाग्नि खतरनाक सिद्ध हो सकती है। 

भारत में वनाग्नि का जोखिम 

  • देश के पश्चिमी घाट एवं पूर्वोत्तर में उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों से लेकर उत्तर में हिमालय क्षेत्र में विस्तृत अल्पाइन वनों तक भिन्न-भिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। इन दो चरम स्थितियों के मध्य अर्द्ध-सदाबहार वन, पतझड़ वन, उपोष्ण कटिबंधीय चौड़ी पत्तियों वाले वन, उपोष्ण कटिबंधीय शंकुधारी वन और पर्वतीय समशीतोष्ण वन पाए जाते हैं।  
  • जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण अन्य कारकों के साथ वनाग्नि भारत में वनों के ह्रास का प्रमुख कारण है। भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) की रिपोर्ट के अनुसार, देश के लगभग 50% वन क्षेत्र अग्नि प्रवण है।
  • भारतीय वनों की सुभेद्यता, वनस्पति के प्रकार, जलवायु तथा अन्य प्राकृतिक और मानवजनित कारणों के आधार पर देश के विभिन्न भागों में एकसमान नहीं है। उदाहरणस्वरूप हिमालय क्षेत्र में शंकुधारी वन, जैसे-  देवदार और स्प्रूस वनाग्नि के प्रति अधिक प्रवण हैं। वहीं पूर्वी हिमालय में अधिक वर्षा घनत्व के कारण वनाग्नि का खतरा कम रहता है। 
  • गंगा-यमुना का मैदानी क्षेत्र वनाग्नि से प्रभावित क्षेत्र है। वर्ष 1999 में इस क्षेत्र में एक बड़ी वनाग्नि का सामना करना पड़ा, जिसने 80,000 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र को राख में परिवर्तित कर दिया। 

भारत में वनाग्नि का प्रबंधन 

  • इस संबंध में उठाया गया पहला प्रगतिशील कदम वर्ष 1952 में राष्ट्रीय वन नीति का निर्माण था। वर्ष 1988 में राष्ट्रीय वन नीति में संशोधन किया गया जो अतिक्रमण, आग और चराई के खिलाफ वनों के संरक्षण पर ज़ोर देती है।
  • वर्ष 1927 के भारतीय वन अधिनियम की धारा- 26 और 33 के अंतर्गत संरक्षित वनों में आग जलाना या आग जलाने की अनुमति देना एक अपराध है। वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की धारा- 30 में वन्यजीव अभयारण्यों में आग लगाना प्रतिबंधित है।
  • भारत में वनाग्नि रोकथाम और प्रबंधन के लिये कई एजेंसियाँ कार्यरत हैं, जैसे-  केंद्रीय स्तर पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारतीय वन सर्वेक्षण, भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (Indian Council of Forestry Research and Education-ICFRE) तथा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority-NDMA)आदि। 
  • राज्य स्तर पर राज्यों के वन विभाग, राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण तथा सामुदायिक स्तर पर संयुक्त वन प्रबंधन समितियाँ भी वनाग्नि रोकथाम एवं प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं ।   
  • वनाग्नि पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (National Action Plan on Forest Fires-NAPFF) आग की रोकथाम, नियंत्रण, आग के बाद की गतिविधियों, सामुदायिक भागीदारी सहित वनाग्नि के समग्र प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करती है। 
  • वनाग्नि रोकथाम एवं प्रबंधन (Forest Fire Prevention and Management-FFPM) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत केंद्र प्रायोजित कार्यक्रम है, जो विशेष रूप से वनाग्नि से निपटने में राज्यों की सहायता के लिये समर्पित है।

चुनौतियाँ

  • भारत में वनाग्नि की समस्या व्यापक और संकेंद्रित है जिसका अलगावपूर्ण दृष्टिकोण द्वारा प्रबंधन करना बहुत मुश्किल है। 
  • वनाग्नि की रोकथाम और प्रबंधन के लिये स्पष्ट रणनीतिक दिशा के साथ एक एकीकृत नीति ढाँचे की अनुपस्थिति है। 
  • FFPM पर वर्ष 2000 में जारी राष्ट्रीय दिशा निर्देश अभी भी काफी हद तक लागू नहीं किये गए हैं। 
  • केंद्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर एक समर्पित FFPM कोष की कमी FFPM प्रक्रिया को असफल बना रही है। 
  • वनाग्नि संबंधित जानकारी एकत्र करने के लिये मानक प्रोटोकॉल का अभाव है। राज्यों को अनुसंधान और मानक प्रतिक्रिया, रोकथाम और शमन प्रोटोकॉल के विकास में केंद्र सरकार से मदद की आवश्यकता है। 
  • आग के उपयोग के साथ पारंपरिक सामुदायिक प्रथाओं को परिवर्तित करने में जन जागरूकता की कमी है।

आगे की राह 

  • IPCC की वर्ष 2018 की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भूमंडलीय तापन (Global Warming) को 1.5 डिग्री सेल्शियस तक सीमित कर विश्व स्तर पर औसत वनाग्नि की घटनाओं को कम किया जा सकता है। इसलिये सभी देशों को मिलकर पेरिस समझौते के सफल क्रियान्वयन का प्रयास करना चाहिये। 
  • साथ ही उपग्रह-आधारित चेतावनी सिस्टम और भूमि-आधारित अनुसंधान प्रणाली में सुधार किया जाना चाहिये। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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