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शासन व्यवस्था

भारतीय श्रम कानून और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन

  • 28 May 2020
  • 9 min read

प्रीलिम्स के लिये

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, श्रम कानूनों के प्रकार

मेन्स के लिये

श्रम कानूनों में बदलावों का प्रभाव, श्रम सुधारों की आवश्यकता

चर्चा में क्यों?

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organisation-ILO) ने भारत में श्रम कानूनों की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस संबंध में राज्यों को स्पष्ट संदेश देने का आग्रह किया है।

प्रमुख बिंदु

  • गौरतलब है कि हाल ही में देश के 10 केंद्रीय श्रमिक संघों ने पत्र के माध्यम से देश में श्रम कानूनों के निलंबन के मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के समक्ष उठाया था और साथ ही इस विषय पर ILO के हस्तक्षेप की मांग की थी।
  • ILO की यह प्रतिक्रिया ऐसे समय में आई है, जब उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे कुछ अन्य राज्यों ने आर्थिक तथा औद्योगिक प्रगति का हवाला देते हुए आगामी 2-3 वर्षों के लिये बड़ी संख्या में श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया है।

श्रम कानूनों का अर्थ और भारत में श्रम कानून

  • श्रम कानूनों का अभिप्राय कानून के उस खंड से होता है, जो रोज़गार, पारिश्रमिक, कार्य की शर्तों, श्रम संघों और औद्योगिक संबंधों जैसे मामलों पर लागू होते हैं।
  • श्रमिक, समाज के विशिष्ट समूह होते हैं। इस कारण श्रमिकों के लिये बनाए गए विधान, सामाजिक विधान की एक अलग श्रेणी में आते हैं।
  • ‘श्रम’ भारतीय संविधान के अंतर्गत समवर्ती सूची (Concurrent List) का एक विषय है। राज्य विधानमंडल श्रम कानूनों को लागू कर सकते हैं, किंतु उन्हें केंद्र सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता होगी।
  • अनुमान के अनुसार, देश में श्रम से संबंधित 200 से अधिक राज्य कानून हैं और 50 केंद्रीय कानून हैं, हालाँकि इसके बावजूद देश में ‘श्रम कानूनों’ की कोई निर्धारित परिभाषा नहीं है।
  • सामान्य तौर पर भारतीय श्रम कानूनों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता है- (1) कार्य स्थिति से संबंधित श्रम कानून (2) मज़दूरी और पारिश्रमिक से संबंधित श्रम कानून (3) सामाजिक सुरक्षा से संबंधित श्रम कानून (4) रोज़गार सुरक्षा एवं औद्योगिक संबंध से संबंधित श्रम कानून।

भारतीय श्रम कानूनों की आलोचना

  • विशेषज्ञ भारतीय श्रम कानूनों को आमतौर पर ‘अनम्य’ (Inflexible) के रूप में परिभाषित करते हैं।
    • उदाहरण के लिये कुछ आलोचक तर्क देते हैं कि भारतीय श्रम कानूनों के कारण ही कुछ कंपनियाँ (जिनमें 100 से अधिक श्रमिक कार्यरत होते हैं) नए श्रमिकों को रोज़गार देने से हिचकिचाती हैं, क्योंकि फिर उन्हें श्रमिकों को काम से हटाने के लिये सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता होती है।
  • आँकड़े दर्शाते हैं कि श्रम कानूनों की ‘अनम्यता’ के कारण ही देश के संगठित क्षेत्र में भी औपचारिक अनुबंध के बिना श्रमिकों को रोज़गार देने की संस्कृति बढ़ती जा रही है।
    • इसके कारण एक ओर तो संगठन के विकास में बाधा आती है तो दूसरी श्रमिकों को भी रोज़गार सुरक्षा प्राप्त नहीं होती है।
  • श्रम कानूनों की आलोचना करते हुए यह भी तर्क दिया जाता है कि देश में इस प्रकार के कानूनों की संख्या काफी अधिक है, जिसके कारण अक्सर अनावश्यक जटिलता उत्पन्न होती है और इन कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
  • इस प्रकार यदि भारत में श्रम कानूनों की संख्या कम होगी और उन्हें आसानी से लागू किया जा सकेगा, तो कंपनियाँ बाज़ार के अनुरूप विस्तार कर सकेंगी और औपचारिक अनुबंध करने में सक्षम होंगी, जिसके परिणामस्वरूप श्रमिकों को बेहतर वेतन और सामाजिक सुरक्षा का लाभ प्राप्त हो सकेगा।

श्रम कानूनों में हुए हालिया परिवर्तन

  • COVID-19 महामारी के बीच, उत्पादन और मांग में कमी होने के कारण देश के अधिकांश उद्योग गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं, जिसके कारण केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के लिये अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाना काफी चुनौतीपूर्ण बन गया है।
  • उद्योगों की इस तनावपूर्ण स्थिति को संबोधित करने के लिये उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे कुछ अन्य राज्यों ने अपने-अपने श्रम कानूनों में व्यापाक बदलाव किये हैं और उन्हें कुछ समय के लिये निलंबित कर दिया है।
  • उत्तर प्रदेश सरकार ने अगले तीन वर्षों के लिये कुछ प्रमुख श्रम कानूनों को छोड़कर लगभग 35  श्रम कानूनों के प्रावधानों से व्यवसायों को छूट देने वाले अध्यादेश को मंज़ूरी दे दी है।
    • हालाँकि, बंधुआ मज़दूरी, बच्चों व महिलाओं के नियोजन संबधित श्रम अधिनियम और वेतन संदाय अधिनियम से संबंधित कानूनों में कोई छूट नहीं दी जाएगी। 
  • इसी प्रकार मध्य प्रदेश सरकार ने भी अगले 1000 दिनों के लिये कई श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया है। 
  • मध्यप्रदेश द्वारा किये गए बदलावों के अनुसार, नियोक्ता अपने कर्मचारियों की सहमति से कारखानों में कार्य की अवधि 8 से 12 घंटे तक बढ़ा सकते हैं। सप्ताह में ओवरटाइम की अवधि अधिकतम 72 घंटे तक सुनिश्चित की जाएगी।
  • वहीं श्रम कानूनों के उल्लंघन के मामले में नियोक्ता को दंड से भी छूट प्रदान की गई है।

श्रम कानूनों में बदलाव की आलोचना

  • विभिन्न श्रम संघों ने उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश सरकारों द्वारा लिये गए निर्णय की आलोचना की है और चेतावनी दी है कि यदि इन निर्णयों को क्रियान्वित किया जाता है तो श्रम कानूनों के मामले में भारत तकरीबन 100 वर्ष पीछे चला जाएगा। 
  • विभिन्न विशेषज्ञों ने राज्य सरकारों के इन निर्णयों को श्रमिकों के ‘शोषण हेतु एक सक्षम वातावरण निर्मित करने’ के कदम के रूप में परिभाषित किया है। 
  • श्रम कानूनों का निलंबन राज्यों में श्रमिकों के लिये गुलाम जैसी परिस्थितियों को जन्म देगा, जो कि स्पष्ट रूप से श्रमिकों के मानवाधिकार का उल्लंघन है।
  • विभिन्न ट्रेड यूनियनों ने राज्य सरकार के इस निर्णय को ‘श्रमिक वर्ग पर गुलामी की स्थिति लागू करने के लिये एक क्रूर कदम’ करार दिया है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन और श्रम कानून

  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध एक विशिष्ट एजेंसी है, जिसकी स्थापना वर्ष 1919 में की गई थी।
  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना मुख्य तौर पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मानवाधिकारों एवं श्रमिक अधिकारों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी।
  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का आधार त्रिपक्षीय सिद्धांत है, जिसके तहत संगठन के भीतर आयोजित होने वाली वार्ताओं में सरकारों, श्रमिक संघों के प्रतिनिधियों और सदस्य राष्ट्रों के नियोक्ताओं को एक मंच पर लाया जाता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाओं जैसे- महामंदी आदि में श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।

स्रोत: द हिंदू

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