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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

क्यों चर्चा में है धारा 377?

  • 26 Aug 2017
  • 4 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने निजता मामले में निर्णय सुनाते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं। इस निर्णय ने धारा 377 को एक बार फिर से चर्चा में ला दिया। विदित हो कि भारतीय दंड संहिता (indian penal code) की धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध मानते हुए कार्रवाई की जाती है।

क्या कहा न्यायालय ने?

  • न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि "यह एक व्यक्ति की उसकी पसंद का मामला है कि कौन उसके घर में प्रवेश करता है, वह कैसे रहता है और वह किससे संबंध स्थापित करना चाहता है”।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि किसी व्यक्ति का समलैंगिक होना भी उसका अपना निजी मामला है और निजता अब उसका मूल अधिकार है।
  • इन परिस्थितियों में पूरी संभावना है कि एलजीबीटी (lesbian, gay, bisexual, and transgender) के हितों के लिये कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्त्ताओं द्वारा धारा 377 को समाप्त करने की मांग पर फिर से सुनवाई हो।

मामले की पृष्ठभूमि

  • दरअसल, आईपीसी की धारा 377 ‘अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों’ और ‘समलैंगिकता’ को परिभाषित करती है और ऐसे संबंध बनाने वालों को आजीवन कारावास तक की सज़ा दिये जाने की बात करती है।
  • विदित हो कि वर्ष 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि सहमति से बनाये गए समलैंगिक संबंधों को इस धारा के तहत अपराध नहीं माना जा सकता।
  • लेकिन दिसंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए दोबारा इस धारा को इसके मूल स्वरुप में ला दिया। इसके बाद से ही इस फैसले पर पुनर्विचार की मांग उठती रही है।

आगे क्या हो सकता है?

  • न्यायालय के इस ऐतिहासिक निर्णय के बाद निजता के अधिकार के दायरे का विस्तार करते हुए सभी प्रकार के व्यक्तिगत पसंद और नापसंद को इसमें शामिल कर लिया है और धारा 377 को लेकर जब भी सुनवाई होगी, इस फैसले का व्यापक प्रभाव देखने को मिलेगा। 

क्या है नैतिकता का मुद्दा?

  • समलैंगिकता को वैध बनाने के विचार से असहमति रखने वाले लोग यह तर्क देते हैं कि यह समाज के नैतिक मूल्यों के खिलाफ है। हालाँकि इसके पक्ष में तर्क देने वालों का मानना है कि नैतिकता, नागरिकों के मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करने का आधार नहीं बन सकती।
  • दरअसल, किसी कृत्य के वैधानिक तौर पर गलत होने का निहितार्थ यह है कि वह नैतिक तौर पर भी गलत है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि जो नैतिक तौर पर गलत है वह वैधानिकता की दृष्टि से भी गलत हो। नैतिक तौर पर गलत कृत्य तभी वैधानिक तौर पर गलत हो सकता है, जब यह समाज को प्रभावित करता हो।
  • अब जब सुप्रीम कोर्ट ने यह निश्चित कर दिया है कि ‘कोई व्यक्ति अपने घर की चहारदीवारी के अन्दर क्या करता है, इससे राज्य का कोई लेना-देना नहीं है और यह उसकी निजी पसंद का मामला है’ तो यह देखना दिलचस्प होगा कि धारा 377 में क्या बदलाव आता है?
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