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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

सतत् खपत विकास हेतु रोज़गार सृजन महत्त्वपूर्ण

  • 20 Dec 2017
  • 4 min read

चर्चा में क्यों?
हाल ही में वैश्विक वित्तीय प्रमुख यू.बी.एस. (Global financial major UBS) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा है कि वर्तमान उपभोग की विकास दर (consumption growth) को बनाए रखने के लिये रोज़गार सृजन की आवश्यकता पर बल दिया जाना चाहिये।

प्रमुख बिंदु

  • इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले तीन से चार वर्षों में भारत में उपभोग की वृद्धि दर को, मूक मैक्रो पर्यावरण (muted macro environment) और कमज़ोर घरेलू प्रयोज्य आय (disposable income)  प्रवृत्तियों के बावजूद, निवेशकों द्वारा एक लचीली प्रक्रिया मानी गई है।
  • पिछले कुछ सालों में निम्न पाँच कारकों के कारण उपभोग विकास (Consumption growth) दर काफी बेहतर रही है -
    ⇒ बढ़ते सामर्थ्य के कारण विशिष्ट उत्पादों की कीमतों में सीपीआई की तुलना में बहुत धीमी गति से वृद्धि हुई।
    ⇒ एक निश्चित अवधि के भीतर ऋण के भुगतान को छोड़कर, उपभोक्ताओं की संख्या में वृद्धि हुई है।
    ⇒ परिवारों के उपभोग हेतु घटते बचत अनुपात के माध्यम से 'वित्त पोषण'। 
    ⇒ जी.एस.टी. की शुरुआत से पहले कंपनियों को प्राप्त हुए शेयर बाज़ार लाभ। 
    ⇒ और क्षेत्र-विशिष्ट, प्रतिस्थापन-मांग-चालित चक्र।
  • इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में मूक घरेलू प्रयोज्य आय का प्रभाव संभावित रूप से कमज़ोर रोज़गार के रुझानों (मात्रा, गुणवत्ता या दोनों) को दर्शाता है। 
  • हालाँकि इस संबंध में नौकरी सृजन के संदर्भ में हालिया कोई विश्वसनीय डेटा प्राप्त नहीं हुआ है
  • एक वित्तीय/मौद्रिक विस्तारवादी नीति (material expansionary policy), जैसे कि इस दशक के शुरुआती दिनों में देखने को मिली थी या फिर पिछले दशक में मज़बूत वैश्विक विकास में देखी गई, या तो अनुपस्थित है या जल्द ही किसी भी समय अनुपस्थित हो जाएगी, ऐसी संभावना है। 
  • यह इस बात का संकेत है कि हमें जल्द से जल्द उपभोग के विकास में तेज़ी लाने की ज़रूरत है।
  • रिपोर्ट में कहा गया है, वर्ष 2017 में बाज़ार के रिटर्न का एक बड़ा हिस्सा गुणक वृद्धि के बजाय गुणकों के विस्तार के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। 
  • हालाँकि ब्याज दरों में आई गिरावट ने गुणकों के विस्तार में वास्तव में कोई विशेष भूमिका नहीं निभाई है। 
  • सैद्धांतिक रूप से, ब्याज दरों में आई नाम-मात्र की गिरावट अनिवार्य रूप से एक उच्च आंतरिक मूल्य का संबल कतई नहीं हो सकता है, क्योंकि इसका अर्थ भी निम्न न्यूनतम वृद्धि से है।  

निम्न इक्विटी जोखिम-प्रीमियम (Lower equity risk-premium)

  • भारत में वास्तविक दरों में गिरावट नहीं आई है।
  • भारत में निम्न इक्विटी जोखिम-प्रीमियम और/या उच्च दीर्घकालिक वृद्धि के संबंध में सबसे अधिक परिवर्तन देखा गया है।
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