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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

क्या अपशिष्ट जल के प्रबंधन हेतु किये जा रहे प्रयास पर्याप्त हैं?

  • 17 Nov 2017
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?

विश्व शौचालय दिवस (19 नवंबर) के अवसर पर भारत को स्पष्ट रूप से कुछ मौलिक मुद्दों के विषय में फिर से पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। इसमें कोई दोराय नहीं कि पिछले कुछ समय में भारत ने स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय निर्माण की दिशा में काफी प्रगति (वर्ष 2014 के 38.70 प्रतिशत से 71.54 प्रतिशत शौचालय कवरेज़ हासिल करके) की है। इसके बावजूद अभी भी भारत की आधी आबादी खुले में शौच करती है। इस विषय में अधिक स्पष्ट जानकारी के लिये स्वतंत्र रूप से आकलन करना होगा कि इन नए शौचालयों में से कितने शौचालयों में पानी की पर्याप्त व्यवस्था मौजूद है तथा कितने शौचालयों की नियमित रूप से सफाई होती है? हालाँकि, इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह जानना है कि हम अपशिष्ट जल का बेहतर प्रबंधन किस प्रकार कर सकते हैं? अपशिष्ट जल के बेहतर प्रबंधन के संदर्भ में इसलिये विचार किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि यह इस वर्ष के विश्व शौचालय दिवस का मुख्य विषय है।

इतिहास का उदाहरण लें तो

  • यदि इस संदर्भ में इतिहास का उदाहरण लें तो हमें सबसे पहले इटली के प्राचीन रोम शहर तथा जापान के एदो शहर (इसे वर्तमान में क्योटो शहर के नाम से जाना जाता है) की जल प्रबंधन व्यवस्था का विचार आता है। 
  • जहाँ एक तरफ रोम के लोगों ने समस्त अपशिष्ट जल की निकासी अपने जल निकायों में कर दी, जिसका परिणाम यह हुआ कि अंत में एक पूरी सभ्यता समाप्त हो गई। 
  • वहीं दूसरी तरफ, एदो के लोगों द्वारा सभी अपशिष्ट जल तंत्रों को नियमित रूप से साफ करते हुए स्वच्छता प्रणालियों को स्थापित किया गया, जिसके परिणामस्वरूप वे एक विकसित सभ्यता बनाने में सक्षम साबित हुए। 

भारतीय परिदृश्य में बात करें तो

  • वर्तमान में भारत में सभी प्रकार के अपशिष्ट जल को झीलों, नदियों और तालाबों में प्रवाहित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिये, दिल्ली में 90 प्रतिशत शहरी परिवारों में सीवेज सिस्टम मौजूद हैं जिनके माध्यम से उनके अपशिष्ट जल (इसमें निहित समस्त जल निस्तारित नहीं होता है) को सीधे यमुना नदी में फेंक दिया जाता है। 
  • इसके पश्चात् नदी की सफाई और पानी के शुद्धिकरण हेतु हज़ारों करोड़ रुपए खर्च किये जाते हैं। स्पष्ट रूप से इसका परिणाम दिनोंदिन मरती नदियों के रूप में देखने को मिलता है।
  • डब्ल्यू.एच.ओ. के मुताबिक, अपशिष्ट जल निकासी के खराब प्रबंधन के परिणामस्वरूप डायरिया जैसे कई प्रकार के जल-जनित रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
  • हमें इस बात का विशेष ख्याल रखना चाहिये कि हम एक ऐसे पारिस्थितिक तंत्र में रहते हैं, जहाँ रिसाइक्लिंग एक मौलिक सिद्धांत है। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि यह काम बिल्कुल भी असंभव नहीं है क्योंकि बहुत से समुदायों द्वारा छोटी पारिस्थितिकी प्रणालियों के संबंध में इस बात को सार्थक करके दिखाया गया है। 
  • उदाहरण के लिये हैदराबाद की मुसी नदी के 10 किलोमीटर के खंड में अपशिष्ट जल को प्रवाहित किया जाता है, इसके बाद इस जल का इस्तेमाल धान की खेती में किया जाता है। 

वैश्विक उदाहरण से समझें तो

  • जर्मनी (अपशिष्ट जल और सीवेज प्रौद्योगिकियों के निर्यात में अग्रणी) द्वारा उपचार के पश्चात् अपशिष्ट जल और मलजल का उपयोग करने हेतु कई तरीकों को अपनाया गया है। उदाहरण के तौर पर कई देशों में ताप विद्युत संयंत्रों के लिये शीतलन प्रणाली हेतु पुनर्नवीनीकरण सीवेज का उपयोग किया जाता है। 

सी.पी.सी.बी. के अनुसार

  • केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board) के अनुसार, वर्ष 2015 में प्रतिदिन 61,948 मिलियन लीटर अपशिष्ट जल का उत्पादन किया गया था। ऐसे में सवाल यह उठता है कि हम इस प्रवाह को अपने प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में कैसे एकीकृत कर सकते हैं? 
  • ‘द हिंदू’ समाचार पत्र द्वारा प्रदत्त अनुमानों के अनुसार, भारत के केवल 30 प्रतिशत अपशिष्ट जल का ही पुनर्नवीनीकरण किया जाता है। स्पष्ट रूप से इसके लिये स्वच्छ भारत मिशन के तहत आवंटित धनराशि में और अधिक वृद्धि किये जाने की आवश्यकता है।

क्या किये जाने की आवश्यकता है?

  • इस समस्या के समाधान के लिये ज़रूरी है कि व्यवहार में परिवर्तन के साथ-साथ शौचालयों के निर्माण तथा खुले में शौच को पूरी तरह से नकारे जाना चाहिये। तभी इस संबंध में प्रभावी कार्यवाही की जा सकती है। 
  • इसके अतिरिक्त गरीब समुदायों के लिये शौचालय निर्माण को व्यवहार्य बनाने पर बल दिया जाना चाहिये। इस कार्य हेतु सरकारी धन की उपलब्धता तथा घरेलू स्वामित्व को बढ़ावा देने के लिये किफायती माइक्रोफाइनिंग पैकेज को इसके तहत शामिल किया जा सकता है। 

निष्कर्ष

स्पष्ट रूप से अपशिष्ट जल के प्रबंधन हेतु एक स्थायी एवं समायोजित पहल आरंभ करने हेतु एक दृढ़ स्थानीय उपस्थिति सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है। इसके लिये स्थानीय समुदायों की भागीदारी तय की जानी चाहिये। इसका लाभ यह होगा कि इससे इस समस्या का समाधान करने में मदद मिल सकती है। वस्तुतः स्थानीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के साथ समन्वय स्थापित करते हुए उनके माध्यम से स्वच्छता सेवाओं का अनुपालन करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा।

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