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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

परमाणु हथियारों की नवीन दौड़ का प्रारंभ

  • 28 Apr 2020
  • 13 min read

प्रीलिम्स के लिये:

व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि (CTBT)

मेन्स के लिये:

व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि की प्रासंगिकता

चर्चा में क्यों?

हाल ‘संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश विभाग’ द्वारा जारी एक रिपोर्ट में इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि चीन ‘व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि’ (Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty- CTBT) के नियमों का उल्लंघन करके लोप नूर (Lop Nur) नामक परीक्षण स्थल पर परमाणु परीक्षण कर रहा है।

मुख्य बिंदु:

  • रिपोर्ट में दावा किया गया है कि चीन के अलावा रूस ने भी ‘कम-प्रभाव उत्पन्न करने वाले परमाणु परीक्षण’ (Low-Yield Nuclear Testing) किये हैं, अत: इस प्रकार का परमाणु परीक्षण CTBT में अंतर्निहित 'शून्य प्रभाव (Zero Yield) की अवधारणा से असंगत हैं।  
  • हालांकि रिपोर्ट में इस बात का निश्चित रूप से उल्लेख नहीं है कि इन देशों द्वारा कितने परमाणु परीक्षण किये गए हैं।
  • रूस और चीन ने अमेरिका के दावों को खारिज कर दिया है, लेकिन यह रिपोर्ट प्रमुख परमाणु शक्तियों के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता के साथ परमाणु हथियारों की नवीन प्रतिस्पर्धा की ओर संकेत करती है।

शून्य-प्रभाव (Zero-Yield):

  • ‘शून्य-प्रभाव’ की अवधारणा उस परमाणु परीक्षण को संदर्भित करती है, जहां परमाणु बम हथियारों के कारण कोई विस्फोटक अभिक्रिया श्रृंखला प्रारंभ नहीं होती है।
  • यह अवधारणा ‘सुपरक्रिटिकल हाइड्रो-न्यूक्लियर टेस्ट’ (Supercritical Hydro-Nuclear Test) प्रतिबंध की बात करता है लेकिन ‘सब-क्रिटिकल हाइड्रोडायनामिक न्यूक्लियर टेस्ट’ (Sub-Critical Hydrodynamic Nuclear Tests) पर प्रतिबंध नहीं लगाता है। 

CTBT की पृष्ठभूमि:

  • परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की दिशा में दशकों से प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन शीत युद्ध की राजनीति के कारण यह संभव नहीं हो सका। हालाँकि वर्ष 1963 में ‘आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि’ (Partial Test Ban Treaty- PTBT) को अपनाया गया। 

आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि (PTBT):

  • इस संधि को सभी प्रकार के क्षेत्रों में परमाणु परीक्षण के उद्देश्य से लाया गया था लेकिन राष्ट्रों के मध्य पानी के अंदर (महासागरों) तथा वायुमंडलीय परीक्षणों पर रोक लगाई गई लेकिन भूमिगत परीक्षण को इस संधि में शामिल नहीं किया गया।

शीतयुद्ध’ की समाप्ति और CTBT पर वार्ता:

  • जब वर्ष 1994 में जेनेवा में CTBT पर वार्ता शुरू हुई तो वैश्विक भू-राजनीति में काफी बदलाव आ चुका था। शीत युद्ध समाप्त हो गया था जिससे परमाणु हथियारों की दौड़ भी समाप्त हो गई थी। 
  • वर्ष 1991 में रूस ने परमाणु परीक्षण पर एकतरफा स्थगन की घोषणा की तथा इसके बाद 1992 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा द्वारा भी इसी प्रकार की घोषणा की गई। शीतयुद्ध की समाप्ति तक अमेरिका 1,054 और रूस 715 परमाणु परीक्षण कर चुके थे।

CTBT पर विवाद:

  • CTBT की दिशा में की जाने वाली बातचीत अक्सर विवादास्पद रही। क्योंकि फ्राँस और चीन ने परमाणु परीक्षण जारी रखा तथा दावा किया कि उन्होंने बहुत कम परीक्षण किये हैं और CTBT के संबंध में नवीन मापदंडों को अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया।
  • फ्राँस और अमेरिका ने CTBT के लिये 500 टन TNT समकक्ष से कम सीमा के परमाणु  परीक्षण की अनुमति देने के विचार का समर्थन किया। 
    • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि 500 टन TNT की सीमा 'लिटिल बॉय' (Little Boy) बम जो 6 अगस्त, 1945 को हिरोशिमा पर अमेरिका द्वारा गिराये गए बम जिसकी क्षमता 15,000 टन TNT के बराबर थी, की एक-तिहाई है। 
  • नागरिक समाज और गैर-परमाणु हथियार संपन्न देशों ने इस तरह के विचार पर नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा बाद में इस सीमा को हटा दिया गया। 
  • कुछ देशों ने प्रस्तावित किया कि व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध लगाने के लिये स्थायी रूप से सभी परीक्षण स्थलों को बंद कर दिया जाना चाहिये। हालाँकि इस तरह के विचारों से परमाणु हथियार संपन्न देश सहमत नहीं हैं।
  • अमेरिका द्वारा CTBT के संबंध में 'व्यापक परीक्षण प्रतिबंध' को 'शून्य प्रभाव' परीक्षण प्रतिबंध के रूप में परिभाषित करने का विचार दिया गया। अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और फ्राँस के समर्थन के आधार पर रूस और चीन के परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध लागू करना चाहता है।
  • 'CTBT’ सभी पक्षों को किसी भी प्रकार के परमाणु हथियार परीक्षण या किसी अन्य परमाणु विस्फोट से रोकता है। हालाँकि इन शब्दों को सही से परिभाषित नहीं किया गया हैं।

भारत का CTBT के संबंध में पक्ष:

  • CTBT संधि का अनुच्छेद 14 भी इस संधि को अपनाने में प्रमुख बाधा उत्पन्न करता है। क्योंकि भारत के अनुसार संधि बहुत ही संकीर्ण है, क्योंकि यह केवल नए विस्फोट रोकने की बात करती है, पर नए तकनीकी विकास एवं नए परमाणु शस्त्रों के विषय में संधि मौन है ।
  • भारत पूर्ण परमाणु निशस्त्री:करण ढाँचे को अपनाने पर बल देता है, परंतु भारत के प्रस्तावों को स्वीकृति नहीं मिलने पर जून 1996 में भारत ने वार्ता से हटने के अपने निर्णय की घोषणा कर दी।

CTBT को अपनाने की प्रणाली पर विवाद:

  • भारत के वार्ता से हटने के बाद CTBT को लागू करने करने के लिये आवश्यक प्रावधानों को संशोधित करने का निर्णय लिया।
  • नवीन प्रावधानों में 44 देशों को सूचीबद्ध किया गया है, जिनका अनुसमर्थन संधि को लागू करने के लिये आवश्यक था, जिसमें भारत को भी शामिल किया गया है। 
  • भारत ने इस निर्णय का विरोध किया है परंतु भारत के विरोध को दरकिनार करते हुए CTBT को बहुमत से अपनाया गया और हस्ताक्षर के लिये खोला गया।

CTBT की वर्तमान स्थिति:

  • 44 सूचीबद्ध देशों में से अब तक केवल 36 देशों ने संधि की पुष्टि की है। चीन, मिस्र, ईरान, इज़रायल और अमेरिका ने संधि पर हस्ताक्षर तो किये हैं, लेकिन इसकी अभिपुष्टि नहीं की है। चीन का मानना है कि वह अमेरिका की अभिपुष्टि के बाद ही इस संधि को अनुसमर्थन देगा।
  • उत्तर कोरिया, भारत और पाकिस्तान तीन ऐसे देश हैं, जिन्होंने संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। तीनों देशों द्वारा वर्ष 1996 के बाद परमाणु परीक्षण भी किये गए हैं; भारत और पाकिस्तान मई 1998 तथा उत्तर कोरिया ने वर्ष 2006 से वर्ष 2017 के बीच छह बार परमाणु परीक्षण किये हैं। 

CTBT में अमेरिका का वर्चस्व:

  • CTBT को सत्यापित करने के लिये ‘व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि संगठन’ (Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty Organisation- CTBTO) को 130 मिलियन डॉलर के वार्षिक बजट के साथ वियना में स्थापित किया गया था। 17 मिलियन डॉलर की हिस्सेदारी के साथ अमेरिका CTBT में सबसे बड़ा योगदानकर्त्ता है।

परमाणु हथियारों के वर्चस्व की नवीन दौड़:

  • 1990 के दशक के बाद वर्तमान में सबसे प्रमुख परिवर्तन यह देखने को मिला है कि वर्तमान में अमेरिका की एकध्रुवीय व्यवस्था (अमेरिका का वर्चस्व) समाप्त हो गई तथा प्रमुख शक्तियों के बीच फिर से रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धा देखने को मिल रही है। वर्तमान में अमेरिका रूस और चीन को अपने प्रमुख 'प्रतिद्वंद्वियों' के रूप में मानता है। 
  • अमेरिका के परमाणु विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका वर्तमान में नवीन परमाणु खतरों का सामना कर रहा है क्योंकि रूस और चीन दोनों परमाणु हथियारों पर अपनी निर्भरता बढ़ा रहे हैं। अत: अमेरिका को अपने परमाणु हथियारों का विस्तार करना होगा। ट्रंप प्रशासन ने इस दिशा में 1.2 ट्रिलियन डॉलर की 30-वर्षीय शस्त्र आधुनिकीकरण योजना शुरू की है। 
  • रूस और चीन भी अमेरिका की बढ़ती तकनीकी क्षमता; विशेष रूप से मिसाइल रक्षा और पारंपरिक वैश्विक परिशुद्धता-स्ट्राइक क्षमताओं, (Global Precision-Strike Capabilities) को लेकर चिंतित हैं।
  • अमेरिका की प्रतिक्रिया में रूस ने ‘हाइपरसोनिक डिलीवरी सिस्टम’ संबंधी कार्य जबकि चीन ने अपने शस्त्रागार के आधुनिकीकरण कार्यक्रम शुरू किये हैं। इसके अलावा दोनों देश आक्रामक साइबर क्षमताओं में भी भारी निवेश कर रहे हैं।
  • नई सामरिक शस्त्र न्यूनीकरण संधि (New Strategic Arms Reduction Treaty- New START) जो अमेरिका और रूसी शस्त्रागार को सीमित करती है, वर्ष 2021 में समाप्त हो जाएगी तथा अमेरिकी राष्ट्रपति ने संकेत दिया है कि वह इसे आगे विस्तारित नहीं करना चाहते हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि अमेरिका और रूस का अभी भी वैश्विक परमाणु हथियारों में 90% से अधिक का योगदान है,इस कारण अब तक चीन को अमेरिका द्वारा परमाणु संधि वार्ताओं में अधिक महत्त्व नहीं दिया है।

वर्तमान संदर्भ:

  • चीन और रूस ने अमेरिका के अन्य परमाणु समझौते जैसे कि ‘ईरान परमाणु समझौते’ या अमेरिका-रूस की ‘मध्यम दूरी परमाणु शक्ति संधि (Intermediate-Range Nuclear Forces- INF) की ओर इशारा करते हुए अमेरिका के आरोपों को खारिज कर दिया है। 
  • चीन-अमेरिका के बीच चल रहे तनाव, व्यापार एवं प्रौद्योगिकी विवाद, दक्षिण चीन सागर विवाद और COVID-19 महामारी के कारण चरम स्तर पर है। अमेरिका भी नेवादा (Nevada) परीक्षण स्थल को फिर से शुरू करने की तैयारी कर सकता है। 

निष्कर्ष:

  • 1950 के दशक में परमाणु हथियारों की दौड़ शीत युद्ध के प्रारंभ होने के पहले से ही दिखाई दे रही थी। नवीन परमाणु परीक्षण प्रतिद्वंद्विता नए परमाणु हथियारों की नवीन दौड़ की शुरुआत तथा CTBT की अप्रांसगिकता की ओर संकेत करता है।

स्रोत: द हिंदू 

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