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ईरान न्यूक्लियर डील से वैश्विक संकट

  • 13 Oct 2018
  • 19 min read

हाल ही में पूरी दुनिया तब हैरान हो गयी जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने वर्ष 2015 में ईरान के साथ हुए परमाणु डील से अमेरिका के हट जाने का ऐलान किया वर्ष 2015 में, लंबे समय की कूटनीतिक पहल के बाद जब ईरान के साथ अमेरिका सहित अन्य पाँच देशों का परमाणु करार हुआ था, तब पूरी दुनिया ने राहत की साँस ली थी तब इस बात की उम्मीद की गयी थी कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से पैदा हुए अंतर्राष्ट्रीय तनाव से उबर कर पूरा विश्व समुदाय फिर से ईरान के साथ अपने आर्थिक संबंध को बेहतर कर सकेगा लिहाज़ा, ऐसा ही हुआ परिस्थितियाँ सामान्य हुईं और पूरा विश्व एक बार फिर से विकास के मार्ग पर अग्रसर हो गया लेकिन, डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा इस परमाणु करार को तोड़ने से पुनः एक अंतर्राष्ट्रीय संकट की आशंका पैदा हो गयी है इसी कारण, ईरान के साथ यह परमाणु डील फिर से चर्चा का विषय बनी हुई है

इस लेख में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि ईरान परमाणु डील क्या है? परमाणु अप्रसार संधि क्या है? इस परमाणु समझौते से बाहर होने के पीछे अमेरिका की क्या रणनीति है? हम जानेंगे कि परमाणु डील के कमज़ोर पड़ने से भारत, मध्य पूर्व एशिया और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर क्या प्रभाव पड़ेगा और इस पूरे घटनाक्रम में भारत की क्या रणनीति होनी चाहिये 

ईरान परमाणु डील क्या है?

  • आपको बता दें कि 1950 के दशक में ईरान ने शांतिपूर्ण तरीके से परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत की थी लेकिन बात तब बिगड़ गयी जब वर्ष 2002 में यह बात सामने आई कि NPT यानी Non-Proliferation Treaty या परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने के बावजूद ईरान अपने नाभिकीय हथियारों को तेज़ी से इकठ्ठा कर रहा है इस कारण अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर चिंता बढ़ने लगी। अमेरिका समेत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के सदस्य देशों को ईरान से एक प्रकार का खतरा महसूस होने लगा 
  • इसके पश्चात, वर्ष 2006 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने ईरान पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगाए साथ ही, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने भी ईरान पर कई प्रकार के आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये लिहाज़ा, दुनिया के देशों के साथ ईरान का व्यापार बंद होने लगा और ईरान की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी आख़िरकार, जुलाई 2015 में ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में सुरक्षा परिषद् के सभी सदस्य देश, मसलन- अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन तथा जर्मनी और EUROPEAN UNION ने ईरान के साथ एक परमाणु समझौता किया इसमें सुरक्षा परिषद् के पाँचों सदस्य और जर्मनी को सम्मिलित रूप से FIVE+ONE COUNTRY कहा जाता है
  • इस समझौते में ईरान के सामने कई शर्त रखी गई पहली शर्त थी कि, ईरान को अपने संवर्द्धित यानी ENRICHED यूरेनियम के भण्डार को कम करना होगा इसके तहत, ईरान को उच्च संवर्द्धित यूरेनियम का 98 फीसद हिस्सा नष्ट करना था या देश के बाहर भेजना था ताकि उसके परमाणु कार्यक्रम पर विराम लग सके
  • दूसरी शर्त के मुताबिक आगे से यूरेनियम को 3.67 फीसद तक ही संवर्द्धित करने की इजाज़त दी गई, ताकि उसका इस्तेमाल बिजली उत्पादनों या अन्य ज़रूरतों में ही किया जा सके आपको बता दें कि नाभिकीय हथियार बनाने के लिए यूरेनियम का संवर्द्धन 90 फीसदी से ज्यादा यानी उच्च संवर्द्धन जरूरी होता है, अन्यथा उससे नाभिकीय हथियार नहीं बनाये जा सकते
  • तीसरी शर्त यह थी कि ईरान कुल सेंट्रीफ्यूज का दो तिहाई संख्या कम करेगा इसके तहत, लगभग 6 हज़ार सेंट्रीफ्यूज रखने पर सहमति बनी जबकि डील से पहले ईरान के पास कुल 19 हज़ार सेंट्रीफ्यूज थे। सेंट्रीफ्यूज एक प्रकार की मशीन होती है जिसकी सहायता से यूरेनियम का संवर्द्धन किया जाता है
  • नाभिकीय हथियार के निर्माण के लिये उच्च संवर्द्धित यूरेनियम की काफी मात्रा में जरूरत होती है और 5-6 हज़ार सेंट्रीफ्यूज से हथियार बनाने के लिये आवश्यक यूरेनियम के संवर्द्धन में काफी लंबा समय लगता है। ऐसे समय में जब दुनिया के अधिकतर देश परमाणु कार्यक्रम चला रहे हैं तब केवल ईरान को रोकना तर्कसंगत नहीं होता लिहाज़ा इन सभी शर्तों का उद्देश्य ईरान को नाभिकीय हथियार बनाने से पूरी तरह रोकना नहीं था बल्कि, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को विलंब करना था ताकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को किसी भी तरह के संकट से जूझने के लिये समय मिल सके
  • दरअसल जब कोई देश शांतिपूर्ण तरीके से परमाणु कार्यक्रम चला रहा होता है तो विश्व समुदाय को कोई आपत्ति नहीं होती है और ईरान भी अपने परमाणु कार्यक्रम को शांतिपूर्ण ही बताता रहा, लेकिन विश्व के शक्तिशाली देशों के मन में उपजे आशंकाओं से इस परमाणु डील की परिस्थिति पैदा हुई
  • चौथी महत्त्वपूर्ण शर्त थी कि INTERNATIONAL ATOMIC ENERGY AGENCY यानी IAEA ईरान के उन स्थलों का निरीक्षण कभी भी कर सकता है जहाँ ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम चलाता रहा है। इस समझौते के तहत ईरान पर हथियार ख़रीदने पर पाँच साल और मिसाइल पर आठ साल तक का प्रतिबंध आरोपित किया गयायह डील JOINT COMPREHENSIVE PLAN OF ACTION यानी JCPOA या साझी व्यापक कार्ययोजना के नाम से जानी जाती है बहरहाल, ईरान ने इस समझौते की सभी शर्तों को मान लिया जिसके बदले में ईरान को तेल और गैस के कारोबार, वित्तीय लेन-देन वगैरह में ढील दी गई 

एनपीटी यानी अप्रसार संधि क्या है?

  • आपको बता दें की एनपीटी या Non-Proliferation Treaty एक प्रकार की संधि है जो नाभिकीय हथियारों के प्रसार को सीमित करती है। इसे परमाणु अप्रसार संधि भी कहते हैं इस संधि पर हस्ताक्षर की शुरुआत वर्ष 1968 में हुई, जबकि 1970 में यह प्रभाव में आया इसका मकसद दुनिया भर में परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के साथ-साथ परमाणु परीक्षण पर पाबंदी लगाना है।
  • इसके मुताबिक कोई भी देश भारी मात्रा में नाभिकीय हथियार सैन्य उद्देश्यों से इकठ्ठा नहीं कर सकता है हाँ, शांतिपूर्ण तरीके से ऊर्जा ज़रूरतों के लिये परमाणु ऊर्जा के संवर्द्धन की इजाज़त होती है लेकिन, ऐसा करने के लिये भी INTERNATIONAL ATOMIC ENERGY AGENCY यानी IAEA की निगरानी पर सहमति बनानी पड़ती है आपको यह भी बता दें कि मौजूदा वक़्त में, एनपीटी के 190 सदस्य देश हैं और भारत ने अभी तक इस पर अपनी सहमति नहीं दी है

ईरान परमाणु समझौता से बाहर होने के पीछे अमेरिका के क्या तर्क हैं?

  • गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का यह फैसला हैरान करने वाला नहीं होना चाहिये अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार संभालने के समय से ही वह इस परमाणु डील पर सवाल खड़े कर रहे थे उनका मानना है कि ईरान चोरी छिपे नाभिकीय हथियारों को इकठ्ठा कर रहा है डोनाल्ड ट्रम्प इसे बहुत ही उदार और तबाही वाला समझौता बताते रहे हैं डोनाल्ड को इस समझौते के उस SUNSET CLAUSE पर भी आपत्ति थी जिसमें यह कहा गया है कि ईरान परमाणु कार्यक्रम का कुछ हिस्सा 2025 के बाद से शुरू कर सकता है
  • इसके अलावा भी कई ऐसी शर्तें हैं जो 10, 15 या 25 सालों बाद ख़त्म हो जाने वाली हैं साथ ही, इस संधि में न तो ईरान के बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम का ज़िक्र है और न ही मध्य-पूर्व में उसकी विदेश नीति का यही वह पहलू हैं जिन पर अमेरिका समेत इज़राइल और सऊदी अरब को आपत्ति हैI हालाँकि, INTERNATIONAL ATOMIC ENERGY AGENCY यानी IAEA ने हाल ही में यह साफ कर दिया है कि ईरान ऐसी किसी भी गतिविधि को अंजाम नहीं दे रहा है जिससे विश्व समुदाय को चिंता करने की जरूरत है लेकिन, IAEA के इस आश्वासन के बावजूद अमेरिका का यह कदम कई मायनों में हैरान करने वाला है
  • लिहाज़ा, ट्रम्प के इस रवैये से दो बातें सामने आ रही हैं पहली यह कि अमेरिका की यह पहल अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में तनाव बढ़ाने की एक रणनीति का हिस्सा है जिसमें ईरान समेत रूस और चीन जैसे अपने धुर विरोधी रहे देशों पर अमेरिका अपना दबाव बनाना चाहता हैहालाँकि, रूस और चीन ने इस डील में बने रहने की बात करके अमेरिका की रणनीतियों को झटका दे दिया है दूसरी बात यह कि राष्ट्रपति पद की ज़िम्मेदारी संभालने के साथ ही ट्रम्प की रणनीति पूर्व राष्ट्रपति ओबामा द्वारा लिए गये फैसलों को पलटने की रही है लिहाज़ा, ईरान डील से बाहर होने का उनका यह फैसला इसी रणनीति का अगला पड़ाव भी मालूम पड़ता है इससे पहले ट्रम्प पेरिस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन समझौता और प्रशांत-क्षेत्र व्यापार समझौता को तोड़ चुके हैं ऐसा माना जा रहा है कि रिपब्लिकन पार्टी  के ट्रम्प उन सभी फैसलों को पलटने का मन बना चुके हैं जो डेमोक्रेटिक पार्टी के ओबामा ने लिए थे

इस समझौते से अमेरिका के बाहर हो जाने से भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

  • दरअसल, इस ताज़ा घटनाक्रम से भारत के आर्थिक और कूटनीतिक दोनों ही हित प्रभावित होंगे अमेरिका और ईरान दोनों ही भारत के बड़े व्यापारिक साझीदार देश हैं जहाँ तक ईरान का सवाल है तो वह भारत का तीसरा बड़ा कच्चा तेल आपूतिकर्त्ता देश है ज़ाहिर है भारत के लिए तेल आयात करना मुश्किल और महंगा हो जाएगा
  • मौजूदा भारत सरकार पिछले चार वर्षों से सस्ता कच्चा तेल प्राप्त कर लाभ कमाती रही है लेकिन ऐसा लग रहा है कि अब भारत को मुद्रास्फीति में इजाफा के लिए तैयार रहना चाहिये इससे CURRENT ACCOUNT यानी चालू खाते पर भी असर पड़ेगा
  • इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान तक अपनी पहुँच सुनिश्चित करने के लिए चाबहार बंदरगाह के विकास के लिए भारत ने समझौता तो किया ही है, साथ ही मध्य एशिया और रूस के बाज़ारों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए भारत अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण ट्रांजिट कॉरिडोर को लेकर भी उत्सुक है, लेकिन अब भारत की इन सभी योजनाओं पर आशंकाओं के बादल मंडराने लगे हैं
  • अगर चाबहार बंदरगाह ठप पड़ता है तो, यह भी मुमकिन है कि ईरान और चीन की नजदीकियाँ बढ़ जाएँगी , क्योंकि ईरान हर हाल में पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को इस्तेमाल करना चाहेगा जो कि चाबहार से महज़ 80 किलो मीटर की दूरी पर है भू-रणनीतिक नज़रिए से ईरान भारत के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है, इसलिए इस बात की संभावना है कि भारत ईरान के साथ अपने संबंध को बनाये रखेगा I

निष्कर्ष

राष्ट्रपति ट्रम्प के इस कदम से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर अनिश्चित्ता के बादल मंडराने लगे हैं दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने कई चुनौतियाँ खड़ी हो गयी हैं पहली और सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अमेरिका का यह फैसला अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में गुटबाजी को न्यौता देने जैसा है जहाँ एक तरफ अमेरिका के इस कदम का इज़राइल और सऊदी अरब समर्थन कर रहे हैं, वहीं अमेरिका के मित्र राष्ट्र ब्रिटेन और फ्रांस समेत चीन और रूस अमेरिका के इस कदम का विरोध कर रहे हैं इस बात की आशंका प्रबल हो गयी है कि अगर अमेरिका के रूख में नरमी नहीं आई और आगे भी अमेरिका अगर इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के हित की अनदेखी करता रहा तो इसकी परिणति एक विश्वयुद्ध के रूप में हो सकती है साथ ही, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और उत्तरी कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग की आगामी जून में प्रस्तावित बैठक पर भी अनिश्चितता पैदा हो गयी है, इससे भी अंतर्राष्ट्रीय शांति की उम्मीदों को झटका लग सकता है जहाँ रूस और चीन ईरान के साथ खड़े नज़र आ रहे हैं, वहीं ईरान सीरिया के शासक बशर अल असद की खुल कर मदद भी करता रहा है और ईरान की इस पहल का इजराइल और अमेरिका विरोध करता रहा हैI ईरान और सऊदी अरब की बात करें तो शिया-सुन्नी विवाद को लेकर दोनों के संबंध पहले से ही खराब हैं जबकि अमेरिका हमेशा ही सऊदी अरब का हिमायती रहा है

इसके अलावा, ईरान फिलिस्तीन, लेबनानी शियाओं को भी सहायता करता रहा है लिहाज़ा, मध्य-पूर्व एशिया में तनाव बढ़ने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय देशों में भी तनाव बढ़ने की आशंका है। अगर आर्थिक परिस्थितियों की बात करें तो, इस मुद्दे पर भी समस्या खड़ी होने वाली हैI एक तरफ ईरान से कच्चा तेल खरीदने वाले सभी देश प्रभावित होंगे तो दूसरी तरफ दूसरे कारोबार करने वाली विभिन्न विदेशी कंपनियों का भी हित प्रभावित होगा दरअसल, इस डील में शामिल रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी की कंपनियों ने भी ईरान में अपना निवेश किया हुआ है और अगर अमेरिका ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाता है तो ये सभी कारोबार बंद हो जायेंगे और नतीजतन इन कंपनियों को नुकसान उठाना पड़ेगा, यही कारण है कि इस डील में शामिल दूसरे देश डील में बने रहना चाहते हैं। अब सवाल है कि इस बदली परिस्थिति में भारत का क्या रुख होगा दरअसल, भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का जन्मदाता है और इसलिए वह हमेशा से ही गुटनिरपेक्षता का पक्षधर रहा है ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि भारत गुटबाजी से दूर ही रहने वाला है जैसा कि हमने आपको पहले ही बताया कि अमेरिका और ईरान दोनों ही भारत के बड़े व्यापारिक साझीदार देश हैं इतना ही नहीं, अमेरिका और ईरान दोनों से ही भारत के बेहतर कूटनीतिक संबंध भी हैं ऐसे में भारत को चाहिए की वह अपनी परिपक्व कूटनीति का परिचय देते हुए अमेरिका और ईरान के साथ संतुलन बनाये रखे भारत अगर संतुलन नहीं बना पाता है तो आर्थिक और भू-राजनीतिक रूप से भारत को नुकसान उठाना पड़ सकता है। एक ऐसे समय में जब भारत महाशक्ति बनने की राह पर है तब भारत द्वारा ऐसी पहल करने की ज़रूरत है जिससे अंतर्राष्ट्रीय पटल पर उभरे इस मतभेद को ख़त्म किया जा सके। अगर भारत अपनी मध्यस्थता से कुछ बेहतर कर पाता है तो यकीनन वह अपनी कूटनीतिक परिपक्वता का लोहा मनवा पाएगा और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर एक नई इबारत भी लिख सकेगा।

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