भारतीय राजव्यवस्था
भारत में मध्यस्थता
- 30 Apr 2025
- 20 min read
प्रिलिम्स के लिये:मध्यस्थता, वैकल्पिक विवाद समाधान, अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, स्टार्टअप इंडिया मेन्स के लिये:वैकल्पिक विवाद समाधान, न्यायपालिका के कार्य की दक्षता पर मध्यस्थता का प्रभाव, भारत में विवाद समाधान को बढ़ावा देना। |
स्रोत:द हिंदू
चर्चा में क्यों?
वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की बढ़ती हुई स्थिति तथा घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक लेन-देन की बढ़ती मात्रा ने मध्यस्थता को इसके अतिभारित न्यायालयों के लिये एक तीव्र विकल्प के रूप में उज़ागर किया है। फिर भी, मध्यस्थों की भूमिका और गुणवत्ता में अंतर मध्यस्थता में वैश्विक स्तर पर नेतृत्व करने के लिये भारत की तत्परता पर संदेह उत्पन्न करता है।
मध्यस्थता क्या है?
- परिचय: मध्यस्थता, न्यायालय प्रणाली के बाहर विवादों को सुलझाने की एक अर्द्ध-न्यायिक विधि है (वैकल्पिक विवाद समाधान), जहाँ एक निष्पक्ष तृतीय पक्ष, जिसे मध्यस्थ कहा जाता है, को बाध्यकारी निर्णय लेने के लिये नियुक्त किया जाता है।
- इसका उपयोग प्रायः वाणिज्यिक, नागरिक और अंतर्राष्ट्रीय विवादों में किया जाता है। न्यायालयी कार्यवाही के विपरीत, यह अनुबंध करने वाले पक्षों द्वारा स्वेच्छा से चुना गया एक निजी तंत्र है, जिसमें मध्यस्थों की शक्तियों और कार्यों को मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (वर्ष 2015, वर्ष 2019 और वर्ष 2021 में संशोधित) के तहत वैधानिक रूप से विनियमित किया जाता है।
- सरकार ने संस्थागत मध्यस्थता को बढ़ावा देने और तीव्र विवाद समाधान सुनिश्चित करने के लिये मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) विधेयक, 2024 का मसौदा प्रस्तुत किया है।
- इसका उपयोग प्रायः वाणिज्यिक, नागरिक और अंतर्राष्ट्रीय विवादों में किया जाता है। न्यायालयी कार्यवाही के विपरीत, यह अनुबंध करने वाले पक्षों द्वारा स्वेच्छा से चुना गया एक निजी तंत्र है, जिसमें मध्यस्थों की शक्तियों और कार्यों को मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (वर्ष 2015, वर्ष 2019 और वर्ष 2021 में संशोधित) के तहत वैधानिक रूप से विनियमित किया जाता है।
- भारत में मध्यस्थता का ऐतिहासिक विकास: भारतीय मध्यस्थता अधिनियम, 1899 मध्यस्थता पर पहला औपचारिक कानून था, जो केवल मद्रास, बॉम्बे और कलकत्ता के प्रेसीडेंसी शहरों पर लागू था।
- बाद में, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 ने अपनी दूसरी अनुसूची में मध्यस्थता प्रावधान शामिल किये।
- वर्ष 1940 के मध्यस्थता अधिनियम ने पहले के कानून का स्थान ले लिया और घरेलू मध्यस्थता को नियंत्रित किया, जबकि विदेशी पंचाटों (Award) के प्रवर्तन को जिनेवा कन्वेंशन पंचाटों के लिये मध्यस्थता (प्रोटोकॉल और कन्वेंशन) अधिनियम, 1937 के तहत और न्यूयॉर्क कन्वेंशन पंचाटों के लिये विदेशी पंचाट (मान्यता और प्रवर्तन) अधिनियम, 1961 के तहत अलग से नियंत्रित किया गया।
- वर्ष 1991 के उदारीकरण के बाद, भारत को विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिये एक आधुनिक विवाद समाधान तंत्र की आवश्यकता थी।
- भारत ने वैश्विक संरेखण और कानूनी एकरूपता सुनिश्चित करते हुए, संयुक्त राष्ट्र आयोग के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून (UNCITRAL) के अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता मॉडल कानून 1985 और UNCITRAL सुलह नियम, 1980 के आधार पर मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 को अधिनियमित किया।
- डॉ . टी.के. विश्वनाथन समिति (वर्ष 2024) ने संस्थागत मध्यस्थता को मज़बूत करने, न्यायालयी हस्तक्षेप को कम करने और लागत प्रभावी, समयबद्ध मध्यस्थता ढाँचा पेश करने की सिफारिश की।
- भारत अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र अधिनियम, 2019 ने लागत प्रभावी, उच्च गुणवत्ता वाली मध्यस्थता सेवाएँ प्रदान करने और भारत की वैश्विक मध्यस्थता प्रोफाइल को बढ़ाने के लिये एक स्वायत्त निकाय के रूप में भारत अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र (IIAC) की स्थापना की।
भारतीय मध्यस्थता परिषद
- भारतीय मध्यस्थता परिषद (ACI) मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2019 के तहत स्थापित एक स्वायत्त निकाय है, जिसका उद्देश्य मध्यस्थता और अन्य वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों की गुणवत्ता में सुधार करना है।
- ACI की अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश या एक प्रतिष्ठित मध्यस्थता विशेषज्ञ द्वारा की जाएगी, जिसे भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किया जाएगा।
विवाद समाधान में मध्यस्थता के संदर्भ में भारत के दृष्टिकोण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक कौन से हैं?
- न्यायिक अतिभार और न्याय में विलंब: भारत के न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या बहुत अधिक (लगभग 50 लाख मामले 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं) है।
- प्रति दस लाख लोगों पर केवल 21 न्यायाधीश होने के कारण (जो विश्व स्तर पर सबसे कम अनुपातों में से एक है) न्यायपालिका पर अत्यधिक कार्यभार है, जिसके कारण न्याय में विलंब होता है।
- यह धीमी और अधिक बोझिल प्रणाली समय-संवेदनशील एवं उच्च-मूल्य वाले वाणिज्यिक विवादों को कुशलतापूर्वक हल करने के लिये मध्यस्थता को एक आकर्षक विकल्प बनाती है।
- FDI और व्यावसायिक विवादों में वृद्धि: भारत की आर्थिक संवृद्धि और बढ़ते प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (जो वर्ष 2024 में 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया है) से घरेलू और सीमापार लेन-देन से संबंधित विवादों की संभावना को बढ़ावा मिला है।
- इन विवादों को सुलझाने के लिये मध्यस्थता प्रणाली एक कुशल तंत्र (विशेष रूप से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विवादों के प्रबंधन में) के रूप में उभरी है।
- मध्यस्थता (विशेषकर संस्थागत मध्यस्थता) से तकनीकी विशेषज्ञता का लाभ मिलता है।
- विधायी समर्थन: मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में वर्ष 2015 और 2019 के संशोधनों के माध्यम से भारत की मध्यस्थता को गति मिली, जिसमें 12 माह की अवधि (जिसे आवश्यकता पड़ने पर छह माह तक बढ़ाया जा सकता है) के अंदर निर्णय देने का प्रावधान किया गया।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत न्यायालयों को विवादों को मध्यस्थता, सुलह और लोक अदालतों सहित न्यायिक समाधान जैसे ADR तरीकों हेतु संदर्भित करने का अधिकार दिया गया है।
- इसी प्रकार, वर्ष 2010 में शुरू की गई भारत की राष्ट्रीय मुकदमा नीति का उद्देश्य मध्यस्थता जैसे ADR तंत्रों के उपयोग को प्रोत्साहित करके मुकदमेबाजी को कम करना है, जिससे न्यायालयों पर बोझ कम होने के साथ अधिक कुशल विवाद समाधान को बढ़ावा मिलेगा।
- वैश्विक मान्यता और निर्णयों की प्रवर्तनीयता: मध्यस्थता तंत्र (जिसे तटस्थता और प्रवर्तनीयता के लिये जाना जाता है) को न्यूयॉर्क कन्वेंशन जैसे ढाँचे द्वारा मज़बूत किया गया है, जिस का भारत भी हस्ताक्षरकर्त्ता है।
- भारतीय मध्यस्थता निर्णयों (विशेषकर IIAC जैसी संस्थाओं के निर्णय) को वैश्विक मान्यता प्राप्त हो रही है जिससे मध्यस्थता केंद्र के रूप में भारत का प्रभाव बढ़ रहा है।
- व्यापार-अनुकूल विकल्प के रूप में मध्यस्थता: मध्यस्थता से विवाद समाधान में लचीलापन मिलने के साथ गोपनीयता सुनिश्चित होती है और बौद्धिक संपदा, वित्तीय डेटा और व्यापार रहस्यों सहित संवेदनशील व्यावसायिक जानकारी की सुरक्षा होती है। यह बहुराष्ट्रीय निगमों और प्रौद्योगिकी तथा फार्मास्यूटिकल्स जैसे उद्योगों के लिये विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है।
- यद्यपि यह शुरुआत में महँगा लग सकता है परंतु विवादों को तेज़ी से निपटाने तथा लंबी मुकदमेबाजी से जुड़े खर्चों (जैसे न्यायालय शुल्क और विधिक लागतों से बचने) के संदर्भ में दीर्घावधि में मध्यस्थता लागत-प्रभावी साबित होती है।
भारत में मध्यस्थता प्रणाली से संबंधित क्या चुनौतियाँ हैं?
- न्यायिक प्रभाव से मध्यस्थता की दक्षता में बाधा: भारत में मध्यस्थता पर मुख्यतः सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का प्रभुत्व देखने को मिलता है।
- न्यायालयी प्रक्रियाओं पर इनकी निर्भरता से यह लंबी, कठोर और महंगी प्रक्रिया साबित होती है जिससे अनुकूल और कुशल विवाद समाधान तंत्र के रूप में मध्यस्थता का उद्देश्य विफल हो जाता है।
- वित्त मंत्रालय के वर्ष 2024 के दिशानिर्देश से इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों द्वारा संचालित मध्यस्थता कार्यवाही अक्सर पारंपरिक न्यायालयी प्रक्रियाओं से मिलती जुलती होती है।
- भारत एल्युमिनियम कंपनी बनाम कैसर एल्युमिनियम (2012) मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद (जिसके तहत अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता में भारतीय न्यायालयों के हस्तक्षेप को सीमित किया गया) इनकी अत्यधिक न्यायिक भागीदारी एक चुनौती बनी हुई है।
- मध्यस्थ पूल में सीमित विविधता: मध्यस्थ पूल में अधिकांशतः कानूनी पेशेवर और पूर्व न्यायाधीश शामिल होते हैं।
- इसमें विषय-वस्तु विशेषज्ञों (जैसे, इंजीनियर, अर्थशास्त्री, प्रौद्योगिकीविद) की कमी है। यह विशेषज्ञ तकनीकी विवादों को सुलझाने के लिये महत्त्वपूर्ण होते है।
- इससे इस तंत्र की उद्योग-विशिष्ट मामलों को हल करने की क्षमता सीमित हो जाती है।
- इसमें विषय-वस्तु विशेषज्ञों (जैसे, इंजीनियर, अर्थशास्त्री, प्रौद्योगिकीविद) की कमी है। यह विशेषज्ञ तकनीकी विवादों को सुलझाने के लिये महत्त्वपूर्ण होते है।
- मध्यस्थ तंत्र के लिये प्रशिक्षण का अभाव: मध्यस्थों के लिये कोई अनिवार्य क्षमता निर्माण या मान्यता ढाँचा नहीं है।
- मध्यस्थता के लिये विधिक, प्रबंधकीय, प्रक्रियात्मक और व्यावहारिक कौशल का मिश्रण (विशेष रूप से अंतर-सांस्कृतिक गतिशीलता वाले अंतर्राष्ट्रीय विवादों के संदर्भ में) आवश्यक है।
- अनेक मध्यस्थों के पास साक्ष्य-गहन विचार-विमर्श और जटिल वित्तीय गणना जैसे कार्यों का कौशल नहीं होता है।
- वैश्विक स्तर पर भारतीय मध्यस्थों का अल्प प्रतिनिधित्व: अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता में भारतीय मध्यस्थों का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है, विशेषकर उन मामलों में जिनमें कोई भारतीय पक्ष नहीं होता।
- जैसा कि भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने स्पष्ट किया, यह भारत के मध्यस्थता तंत्र में वैश्विक विश्वसनीयता, मान्यता और नेटवर्किंग के अभाव सहित गहन संरचनात्मक मुद्दों को उजागर करता है।
भारत अपने माध्यस्थम् तंत्र के सुदृढ़ीकरण हेतु क्या उपाय कर सकता है?
- एक सुदृढ़ मध्यस्थ प्रमाणन ढाँचे का निर्माण: विधि एवं न्याय मंत्रालय के अंतर्गत मध्यस्थों के लिये एक राष्ट्रीय मान्यता बोर्ड की स्थापना करने की आवश्यकता है।
- IIAC अथवा बार काउंसिल जैसे संस्थानों द्वारा प्रमाणन कार्यक्रमों के माध्यम से प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिये। पात्र पूल में विविध वृत्तिकों (इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, उद्योग विशेषज्ञ) को शामिल किया जाना चाहिये।
- राष्ट्रीय माध्यस्थम् जागरूकता मिशन का शुभारंभ: डिजिटल इंडिया अथवा विधिक साक्षरता मिशन जैसे अभियानों के समान, टियर 2/3 नगरों और MSME के बीच मध्यस्थता के बारे में जागरूकता अभियान शुरू किये जाने चाहिये।
- माध्यस्थम् तंत्र पर व्यवसायों को प्रशिक्षित करने के लिये स्टार्टअप इंडिया, MSME संबंध और स्किल इंडिया जैसे प्लेटफार्मों का उपयोग किया जा सकता है।
- सीमित हस्तक्षेप हेतु न्यायिक सुधार: माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम के अंतर्गत “न्यूनतम न्यायिक हस्तक्षेप” सिद्धांत का सख्ती से पालन सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है।
- संबंधित मुकदमों को कुशलतापूर्वक निपटाने के लिये माध्यस्थम्-विशेषज्ञ न्यायाधीशों वाली वाणिज्यिक न्यायालय अभिहित किये जाने चाहिये।
- राजनयिक संसाधनों का उपयोग: प्रशिक्षण और सर्वोत्तम प्रथाओं के लिये सिंगापुर अंतर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् केंद्र, अंतर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् न्यायालय जैसे वैश्विक माध्यस्थम् निकायों के साथ साझेदारी की जानी चाहिये।
- वैश्विक माध्यस्थम् सर्किट में भारत के प्रतिनिधित्व में सुधार के लिये अंतर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् शिखर सम्मेलनों की मेज़बानी की जानी चाहिये।
- इसे संयुक्त राष्ट्र, अंतर्राष्ट्रीय बार एसोसिएशन (IBA) और G20 जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों में सक्रिय भागीदारी के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है, जहाँ माध्यस्थम् पर चर्चा की जाती हैं।
निष्कर्ष:
भारत के माध्यस्थम् तंत्र की सहायता से पूर्व न्यायाधीशों पर देश की अत्यधिक निर्भरता को कम किया जाना चाहिये, एक विविध और अच्छी तरह से प्रशिक्षित मध्यस्थ पूल का निर्माण किया जाना चाहिये, न्यायिक अतिरेक में कमी की जानी चाहिये, और एक विश्वसनीय वैश्विक माध्यस्थम् गंतव्य के रूप में देश की स्थापना हेतु संस्थागत समर्थन में सुधार किया जाना चाहिये। इस दृष्टिकोण को साकार करने के लिये मानव पूंजी विकास, क्षमता निर्माण और अंतर्राष्ट्रीय एकीकरण संबंधी सुधार किये जाने आवश्यक हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत के विधिक और आर्थिक परिदृश्य में माध्यस्थम् के बढ़ते महत्त्व की विवेचना कीजिये। वैश्विक माध्यस्थम् केंद्र के रूप में भारत की स्थापना हेतु किन संस्थागत सुधारों की आवश्यकता है? |
विधिक अंतर्दृष्टि: अंस्टांप्ड माध्यस्थम् समझौते पर सर्वोच्च निर्णय
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. लोक अदालतों के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है? (2010) (a) लोक अदालतों के पास पूर्व-मुकदमेबाज़ी के स्तर पर मामलों को निपटाने का अधिकार क्षेत्र है, न कि उन मामलों को जो किसी भी अदालत के समक्ष लंबित हैं। उत्तर: (d) प्रश्न. लोक अदालतों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2009)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. राष्ट्रपति द्वारा हाल में प्रख्यापित अध्यादेश के द्वारा से माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 में क्या प्रमुख परिवर्तन किये गए हैं? यह भारत के विवाद समाधान यंत्रिक्त्व को किस सीमा तक सुधारेगा? चर्चा कीजिये। (2015) |