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भारतीय राजनीति

अग्रिम ज़मानत

  • 01 Feb 2020
  • 6 min read

प्रीलिम्स के लिये:

अग्रिम ज़मानत, सर्वोच्च न्यायालय, भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता

मेन्स के लिये:

अग्रिम ज़मानत से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा कि अग्रिम ज़मानत (Anticipatory Bail) के लिये कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की जा सकती है और यह मुकदमे के अंत तक भी जारी रह सकती है।

महत्त्वपूर्ण बिंदु:

  • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, अग्रिम या पूर्व-गिरफ्तारी ज़मानत की सुरक्षा को किसी भी समयसीमा या निश्चित अवधि तक सीमित नहीं किया जा सकता है क्योंकि इससे व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता बाधित होगी।
  • जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने यह स्वीकार किया है कि अग्रिम ज़मानत प्रभावशाली व्यक्तियों को झूठे मामलों में फँसाने से रोकने में मदद करती है।
  • न्यायालय के अनुसार, वर्तमान समय में बढ़ती राजनैतिक प्रतिद्वंदिता एवं झूठी आपराधिक शिकायतों की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण अग्रिम ज़मानत लोगों के सम्मान की रक्षा हेतु अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती जा रही है।

अग्रिम ज़मानत क्या है?

  • अग्रिम ज़मानत (Anticipatory bail) न्यायालय का वह निर्देश है जिसमें किसी व्यक्ति को उसके गिरफ्तार होने के पहले ही ज़मानत दे दी जाती है अर्थात् आरोपित व्यक्ति को इस मामले में गिरफ्तार नहीं किया जाएगा।
  • भारत के आपराधिक कानून के अंतर्गत गैर-ज़मानती अपराध के आरोप में गिरफ्तार होने की आशंका पर कोई भी व्यक्ति अग्रिम ज़मानत के लिये आवेदन कर सकता है।
  • गौरतलब है कि न्यायालय सुनवाई के बाद सशर्त अग्रिम ज़मानत दे सकती है तथा यह ज़मानत पुलिस की जाँच होने तक जारी रह सकती है।
  • अग्रिम ज़मानत का प्रावधान भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 438 में किया गया है। ध्यातव्य है कि भारतीय विधि आयोग ने अपने 41वें प्रतिवेदन में इस प्रावधान को दंड प्रक्रिया संहिता में सम्मिलित करने की अनुशंसा (सिफारिश) की थी।

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अग्रिम ज़मानत के पक्ष में तर्क

  • राजनीति में प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा अपने प्रतिद्वंदियों को अपमानित करने के लिये झूठे आरोपों में फँसाने एवं गिरफ्तार करवाने संबंधी घटनाएँ प्रायः देखी जाती हैं। इस प्रकार इस प्रावधान के माध्यम से झूठे आरोपों में फँसाए गए लोगों को राहत दी जा सकती है तथा उनके सम्मान की रक्षा की जा सकती है।
  • वर्ष 1980 में गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि धारा 438 (1) की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 21 (प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता) को ध्यान में रखकर की जानी चाहिये।

अग्रिम ज़मानत के विपक्ष में तर्क

  • आलोचकों का मानना है कि यह प्रावधान प्रभावशाली लोगों के लिये मामले को अनायास ही खींचने का एक प्रमुख साधन बन गया है।
  • आलोचकों का यह भी तर्क है कि अग्रिम ज़मानत प्राप्त प्रभावशाली व्यक्ति मामले से संबंधित सबूतों से छेड़छाड़ कर सकते हैं।

अग्रिम ज़मानत के लिये शर्तें

  • धारा 438 में निहित प्रावधान केवल सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय को ही अग्रिम ज़मानत देने का अधिकार देता है।
  • धारा 438 की उपधारा (2) में अग्रिम ज़मानत देने से संबंधित शर्तों का उल्लेख है जो इस प्रकार हैं:
    • आरोपित व्यक्ति किसी भी पुलिस अधिकारी द्वारा पूछताछ के लिये सदैव उपलब्ध रहेगा।
    • आरोपित व्यक्ति मामले से संबंधित किसी भी साक्ष्य से छेड़छाड़ या व्यक्ति को धमकी, अभद्रता या अन्य माध्यमों से प्रभावित करने की कोशिश नहीं करेगा।
    • आरोपित व्यक्ति न्यायालय की अनुमति के बिना भारत से बाहर नहीं जाएगा।
    • धारा 438 की उपधारा (3) में निहित अन्य शर्तें।
  • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, अग्रिम ज़मानत से संबंधित याचिका ठोस सबूतों पर आधारित होनी चाहिये न कि अस्पष्ट या सामान्य आरोपों पर तथा आवेदन में अपराध से संबंधित सभी आवश्यक तथ्य होने चाहिये और आवेदक की यथोचित गिरफ्तारी क्यों न हो इसका भी जवाब स्पष्ट रूप में आवेदन में होना चाहिये।
  • इस प्रकार उपर्युक्त शर्तों को पूरा करने के पश्चात् ही न्यायालय द्वारा अग्रिम ज़मानत दी जा सकती है।

आगे की राह

  • यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि इस प्रावधान का उपयोग प्रभावशाली वर्ग द्वारा स्वयं को बचाने के लिये एक आवरण के रूप में न होकर विशेष परिस्थितियों में निर्दोष लोगों की रक्षा के लिये होना चाहिये।
  • ज़मानत की शर्तों का उल्लंघन होने पर पुलिस को संबंधित व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार दिया जाना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस

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