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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

पशु अधिकार और न्यायपालिका

  • 23 Jan 2017
  • 8 min read

सन्दर्भ

  • राजा राममोहन राय ने जब सती-प्रथा के खिलाफ़ आवाज उठाई तो उनका यह कहकर विरोध किया गया कि यह लोकप्रिय मान्यताओं और परम्परा के विरुद्ध है| क्या होता यदि राजा राममोहन राय की आवाज हो-हल्ला मचाती लोकप्रिय मान्यताओं के शोरगुल में कहीं दब जाती! शायद आने वाले कई वर्षों तक हिन्दू महिला ज़िन्दा ही अपने पति की चिता पर जलती रहती| विदित हो कि अध्यादेश के माध्यम से जल्लीकट्टू के आयोजन का रास्ता साफ़ किये जाने के बाद कल इस खेल के आयोजन के दौरान दो लोगों की मौत हो गई है| जब पशु-पक्षियों के अधिकारों का प्रत्यक्ष हनन हो और इंसानी जान की कीमत बस शौर्य और बल का एक खेल बन जाए तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि किस हद तक लोकप्रिय जनभावनाएँ और मान्यताएँ कानून को प्रभावित कर सकती हैं|
  • हाल के वर्षों में न्यायपालिका ने जानवरों और पक्षियों के अधिकारों को बरकरार रखा है और इस बात पर बल दिया है कि पशु-पक्षियों को भी सम्मान और गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है| न्यायपालिका ने यह भी सन्देश दिया है कि लोकप्रिय विचारों एवं परम्पराओं तथा पशु अधिकारों में विरोधाभास की स्थिति में भी पशु-पक्षियों के अधिकारों को ही वरीयता देनी चाहिये| गौरतलब कि पशु-पक्षियों के अधिकार हमारे संविधान में निहित है|

क्या कहते हैं संबंधित कानून?

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(A) के मुताबिक हर जीवित प्राणी के प्रति सहानुभूति रखना भारत के हर नागरिक का मूल कर्तव्य है| ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ और ‘खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ में इस बात का स्पष्ट वर्णन है कि कोई भी पशु सिर्फ बूचड़खाने में ही काटा जाएगा और बीमार तथा गर्भ धारण कर चुके पशु को मारा नहीं जाएगा| भारतीय दंड संहिता की धारा 428 और 429 के मुताबिक किसी पशु को मारना या अपंग करना, भले ही वह आवारा क्यों न हो, दंडनीय अपराध है|
  • ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ के मुताबिक किसी पशु को आवारा छोड़ने पर तीन महीने की सजा हो सकती है| पशुओं को लड़ने के लिये भड़काना, ऐसी लड़ाई का आयोजन करना या उसमें हिस्सा लेना संज्ञेय अपराध है|
  • ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ की धारा 22(2) के मुताबिक भालू, बंदर, बाघ, तेंदुए, शेर और बैल को मनोरंजक कार्यो के लिये प्रशिक्षित करना और मनोरंजन के लिये इन जानवरों का इस्तेमाल करना गैरकानूनी है|

पशु-अधिकारों के संबंध में न्यायपालिका का प्रयास

  • ऐतिहासिक पशु कल्याण बोर्ड बनाम ए नागराज के फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जीने के मौलिक अधिकार के दायरे का विस्तार करते हुए इसमें पशुओं को भी शामिल कर लिया| सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार बैलों को भी एक स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण में रहने का अधिकार है, उन्हें पीटा नहीं जा सकता, न हीं उन्हें शराब पिलाया जा सकता है और न ही संकीर्ण बाड़ों में खड़ा किया जा सकता है|
  • यदि संक्षेप में कहें तो सुप्रीम ने इस फ़ैसले में यह कहा कि जानवरों को मानव ज़्यादतियों से रक्षा और गरिमामय जीवन जीने का अधिकार है| दरसल, अनुच्छेद 21 में तब तक गरिमापूर्ण और सम्मानित जीवन जीने का अधिकार केवल मानवों तक ही सीमित था| 
  • मई 2014 में जल्लीकट्टू पर प्रतिबन्ध लगाने वाले अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 के दायरे में बैलों को ही नहीं बल्कि पशुओं की "प्रत्येक प्रजाति” को सम्मिलित कर लिया और तब से ही अदालतों में बैल, हाथी, घोड़े, कुत्ते, मुर्गों और यहाँ तक कि सैलानी पक्षियों के अधिकारों से संबंधित मामलों की बाढ़ सी आ गई है|

निष्कर्ष

  • न्यापालिका के विचार में पशु-पक्षियों के खिलाफ़ क्रूरता बंद होनी चाहिये और उनके प्रति करुणा का भाव रखना चाहिये| जल्लीकट्टू मामले में भी अदालत ने कहा था कि यह खेल भले ही सांस्कृतिक आयोजन है लेकिन इसके आयोजन में पशुओं के विरुद्ध क्रूरता अंतर्निहित है| जल्लीकट्टू ही नहीं आन्ध्र प्रदेश में होने वाली मुर्गों की लड़ाई पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिबंध लगाया हुआ है|
  • भारत की जनता ने खुद को अपना संविधान दिया है, संविधान तमाम राजनैतिक, भौगोलिक और सामाजिक अंतरों के बावजूद आपसी रजामंदी का दस्तावेज है| संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करना संवैधानिक अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है| गौरतलब है कि हमारा संविधान पशुओं पर क्रूरता की इजाजत नहीं देता| कई भारतीय कानूनों में इस बात का साफ जिक्र है कि पशुओं के साथ कैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिये|
  • जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध भी सर्वोच्च अदालत ने इसी आधार पर लगाया था| हालाँकि विरोध करने वालों के अपने तर्क हैं और एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि जल्लीकट्टू के आयोजन से उन बैलों का सरंक्षण सुनिश्चित होगा जिनका इस खेल में इस्तेमाल होता है, यह सही है कि यदि पशुओं का संरक्षण करना है तो हमें पशुओं को हमारे जीवन में अधिक उपयोगी बनाना होगा| हम अपने रोजाना कार्यों जैसे सवारी करना, खेत में या अन्य कृषिगत कार्यों में उनका उपयोग कर सकते हैं  हाँ यहाँ शर्त ये है कि पशुओं से काम लेना चाहिये न की उनका शोषण करना चाहिये| यह तमिलनाडु सरकार की जिम्मेदारी है कि जल्लीकट्टू को बैलों के शोषण से मुक्त कराए, जान-माल के होने वाले नुकसान को बंद कराए और फिर न्यायपालिका से प्रतिबंध हटाने का अनुरोध करे|
  • जिस तरह जलीकट्टू पर प्रतिबंध के फैसले का विरोध हो रहा है, वैसा ही विरोध अगर बलि प्रथा पर लगे प्रतिबंध का भी होने लगे| इतना ही नहीं सती, जाति और छुआछूत को भी परंपरा कहकर फिर से लागू करने की बात की जाने लगे तो! देश को यह समझना होगा कि हम परम्पराओं के नाम पर कानून के राज को खत्म नहीं कर सकते, हाँ यदि कोई परम्परा जन-मानस के अंदर इतनी रच-बस गई है कि उसे समाप्त नहीं किया जा सकता तो उस परम्परा में सुधारवादी प्रयास तो होने ही चाहिए और यह बात केवल जल्लीकट्टू ही नहीं बल्कि उन तमाम परम्पराओं पर लागू होती है जो बुनियादी कानून व्यवस्था के खिलाफ़ हैं|
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